दुर्गा प्रसाद शुक्ला की खास रिपोर्ट
लेती नहीं दवाई अम्मा, जोड़े पाई-पाई अम्मा,
दुख थे पर्वत राई अम्मा, हारी नहीं लड़ाई अम्मा।
यह कविता एक मां का जीवन बताती है। इससे उसके त्याग और बड़प्पन को समझा जा सकता है। जीवन के तमाम झंझावातों को झेलने वाली माएं अब अपनों के दिए दर्द को सहन नहीं कर पा रही हैं।
जिन औलादों के लिए अपनी खुशियों का त्याग किया, जिनकी सलामती के लिए न जाने कितनी बार मन्नतें मांगी। व्रत रखा और पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्होंने बुढ़ापे की लाठी बनने के बजाय बेगाना कर दिया है। लिहाजा वृद्धाश्रम में शरण लेना पड़ रहा है। इन मांओं का दिल अभी भी इसको स्वीकार नहीं कर रहा है और हर किसी से कहती हैं कि कोई कह दे मेरे लाल से कि वह उन्हें घर ले जाए।
आगरा,रामनगरी के वृद्धाश्रम में रह रही महिलाएं अब सुकून में हैं, लेकिन अपनी पुरानी जिंदगी की चर्चा कर वो आज भी कांप जाती हैं। किसी को बेटे ने घर से निकाल दिया तो किसी को उसकी बहू ने पीटा। वृद्धाश्रम में रह कर अपना भरण पोषण कर रहीं देश के अलग-अलग शहर की महिलाओं ने जब अपनी पुरानी यादों को साझा किया, तब उनकी आंखें फिर डबडबा गईं।
गाजियाबाद की 80 वर्षीय बुजुर्ग बताती हैं कि वह अपने दो बेटों के इस दुनियां से चले जाने का गम नहीं सह सकी। यह वाकया 10 साल पहले का है। इसके बाद वह अचानक अपना घरबार छोड़कर निकल पड़ी, करीब एक सप्ताह तक रुक रुककर चलती रही और अंबाला जिले में पहुंच गई। कई दिनों तक सड़क के किनारे रही फिर उसे स्थानीय लोगों ने छावनी के वृद्धा आश्रम में पहुंचा दिया। वर्ष 2012 से अब वृद्धा आश्रम ही घर बन चुका है। अपनी कांपती आवाज से दोनों बेटों की याद में रो पड़ती है।
सोचिए, कोई मां-बाप अपने जीवनभर की कमाई को लगाकर अपने बच्चों का भविष्य संवारे और जीवन के अंतिम पड़ाव में जब उन्हें अपने बच्चों की सहारे की जरूरत पड़े और वे इससे मुंह मोड़ लें, तो उन पर क्या गुजरती होगी। जलाराम ज्ञान यज्ञ समिति द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में रहने वाले 15 बुजुर्गों से जब चर्चा की गई, तो उनका दर्द उभर पड़ा। अपनों की बेवफाई से उन्हें दुख जरूर है, लेकिन साथ ही वृद्धाश्रम में एक-दूसरे का दर्द बांटते हुए उन्हें अपनापन पैदा हो गया है। और यह अपनापन ही वर्तमान में उनके लिए सकारात्मक ऊर्जा का काम कर रहा है। इसके चलते उनकी जिंदगी एक बार फिर खिल उठी है।
चंडीगढ़ के सेक्टर 15 के वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्गों का एक ही दुख है। उनका कहना है कि मां-बाप बच्चों के लिए हर कुर्बानी देते हैं। उन्हें हर सुख-सुविधा देकर पालते हैं और जब बुढ़ापे में मां-बाप को उनकी जरूरत होती है तब मां-बाप उनके लिए बोझ बन जाते हैं। सोचिए ऐसे में माता-पिता पर क्या बीतती होगी। ईश्वर न करे हम जो भोग रहे हैं, वह कोई और भोगे।
इस आश्रम में रहने वाली 75 वर्षीय तारा देवी कहती हैं कि उनके बेटे का साफ कहना था कि घर में रहना है तो पैसे कमाकर लाने होंगे। जिस बेटे को पालपोस कर बड़ा किया, उसी ने जब उम्र के आखिरी पड़ाव में ये शर्त रख दी तो क्या करती? जैसे तैसे वृद्धाश्रम का पता लगाया और बिना बताए दो साल पहले आ गई यहां। अगर मां-बाप के जिंदा रहते बच्चे उन्हें न पूछें तो मरने के बाद श्राद्ध करने का क्या फायदा।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."