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November 22, 2024 7:19 am

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हमारी विरासत ; आस्था और सांप्रदायिक सौहार्द का केंद्र बनता जा रहा गुग्गा जाहर पीर मंदिर 

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सुरेन्द्र मिन्हास की खास रपट

बिलासपुर जनपद में पूजे जाने वाले लोक-देवताओं में गुग्गा जाहरपीर का अपना विशेष महत्व है। जहरीले सांपों से जान-माल सुरक्षा करने तथा हर मन्नत को पूरी करने वाले इस देवता को गुग्गा जाहरपीर, गुग्गामल, छत्री चौहान, बागड़ी वाले तथा नीले घोड़े का स्वर आदि कई नामों से जाना जाता है। जाहरपीर की पूजा हिन्दू व मुसलमान दोनों साम्प्रदायों के लोग समान रूप से करते हैं । 

रक्षाबंधन के पावन त्यौहर के दिन से गुग्गा की आठ दिवसीय कार” शुरू होती है तथा गुग्गा नोउमी (नवमी)। इस दौरान गुग्गा के भक्तजन मंडलियों के रूप में या अकेले ही गांव-गांव, घर-घर जाकर गुग्गा राणा की महिमा का गुणगान करते हैं । गुग्गा नवमी के दिन रोठ व भ्ंट चढ़ाने की परंपरा के साथ संम्पन होती है। सदियों से यह परंपरा निर्बाध रूप से चल रही है तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से इसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार हो रहा है। 

बिलासपुर जनपद के गेहडवीं नामक स्थानों का नामकरण तो गुग्गा जाहरपीर के नाम पर हुआ बताया जाता है। गुग्गा-मोहड़ा नामक स्थान का सम्बंध भी जाहरपीर के नाम ही रखा प्रतीत होता। गुग्गा गेहडवीं में गुग्गा के मेले पूरे सप्ताह तक चलते हैं जबकि गुग्गा भटेड के मेले भी दूर-दूर तक मशहूर है । इसके अलावा भी अनेक गुग्गा मढ़ियों में मेले जुटते हैं ।

गुग्गा की “कार” करने वाले भक्तजन सप्ताह भर नंगे पांव रहते हैं तथा चारपाई पर नहीं सोते हैं। गुग्गा जाहरपीर के पिता का नाम ज्योर बताया गया है, जो मारू देश राजस्थान का राजा थे। जिले में ज्योर, ज्योर-कोठी, व ज्योरी-पतन नामक स्थान होना भी इस देवता के प्रति लोगों की अटूठ आस्था को दर्शाता है। लोहे की छड़ी को मोर पंखों से सजाया जाता है तथा उसे रंगीन कपड़ों व रंगीन डोरियों से सजाया जाता है। यही छड़ी गुग्गा की प्रतीक मानी जाती है।

गुग्गा गाथा गायन मंडली में छ-सात सदस्य होते हैं। गायन मंडली का एक सदस्य सबसे आगे छुड़ी को उठाकर चलता है। वह लोगों से प्राप्त होने वाली भेंठ को भी प्राप्त करता है। अन्य सदस्य लोक वाद्ययंत्रों की स्वरलहरियों के साथ गुग्गा राणा की महिमा का गुणगान गायन शैली में करते है। 

“कार के दौरान गुग्गा मंडली किसी न किसी भ्क्तजन के घर पर पूरी रात गुग्गा गाथा का गुणगान करते हैं तथा मंडली का वरिष्ठ सदस्य उसका अनुवाद करके श्रोताओं को समझाता है। भगतजनों को लोग अन्न व धन का दान देते हैं तथा गुग्गा के लिए वस्त्र भेंट करते हैं । डौरू अर्थात डमरू गुग्गा मंडली का प्रमुख लोकवाद्य होता है। 

लोकगाथा के मुताबिक गूगा जहापीर राजा पृथ्वीराज चौहान का वंशज था तथा मारु देश (राजस्थान) के राजा ज्योर का पुत्र था। वह गुरु गोरखनाथ के वरदान से पैदा हुआ था। 

बताया जाता है कि राजा ज्योर के महल में लंबे समय तक कोई संतान नही थी। इस कारण रानी वाछल चिंतित रहती तथा गुरु गोरखनाथ की तपस्या में तल्‍लीन रहती । रानी की बहन काछल भी उनके साथ ही रहती थी। गूगा के जन्म से पूर्व मारू देश मे भयंकर सूखा पड़ा। उसकी मार से पेड़ पौधे भी मुख्झाने लगे। हर ओर चिंता का महौल हो गया। 

गोरखनाथ का अपने शिष्यों के साथ आगमन हुआ हो तभी यह सब कुछ घटा हुआ हो । बाग में डेरा डाले जाने के बाद गुरु गोरखनाथ ने अपने शिष्य घनेरिया को घर – घर जाकर अलख जगाने व भिक्षा लाने का आदेश दिया। घनेरिया राजा ज्योर के महल पहुंचा तथा अलख जगाई। रानी बाछल पहले तो हीरे मोतियों की थाली भर कर लाई लेकिन घनेरिया ने अन्न की भ्िक्षा लेने को कहा। बाछल द्वारा लाई गई अन्न की थाली में से घनेरिया ने मुठुठीभर अन्न अपनी झोली में डालते हुए भोजन करने की इच्छा व्यक्त की । रानी आसन बिछा कर भोजन परोसने लगी तो घनेरिया ने रीठे का प्यालु (डोडे के खोल का आधा भ्षाग) आगे कर दिया। इस पर रानी उपहास उड़ाए बिना नही रह सकी। लेकिन जब घनेरिया खाने लगा और बाछल परोसने लगी। देखते ही देखते सारा ही भोजन समाप्त हो गया । रानी ने अपनी गलती के लिए माफी मांगी । घनेरिया ने उसे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया लेकिन रानी ने अपनी करुण गाथा सुनाई तो घनेरिया ने अगले दिन सवेरे ही गुरु के डेरे में आने को कहा। यह बात बाछल की बहन काछल ने भी सुन ली। काछल उसकी सौतन भी थी। काछल सवेरे तड़के ही गुरु गोरखनाथ के डेरे में गई तथा उसने दो फल प्राप्त किए । बाद में राजा ज्योर के साथ रानी बाछल गुरु के डेरे पहुंची।

बताया जाता है कि उस समय गुरु गोरखनाथ अपने नौ लाख शिष्यों के साथ मारू देश आएं तथा राजा ज्योर के बाग में डेरा डाल दिया। सूखे की स्थिति को मापते हुए गुरु ने अपने शिष्यों को शंख नाद करने को कहा। शंख नाद से धरती अम्बर में कंपन हुआ तथा बदलों की घनघोर घटाए घिर आई देखते ही देखते मुसलाधार बारिश हुई। उससे मुर्झाए हुए पेड़ पौधे फिर लहराने लगे। रानी बाछाल ने अपनी दासी रूपा को पानी लाने भेजा। दासी बाग की बावड़ी से पानी भर कर शीघ्र लौठ आई तथा रानी को बताया कि बाग में असंख्या साधु महात्माओं ने डेरा डाला है। बाग में सूखे पड़े प्राकृतिक जलसतों में फिर से पानी बहने लगा। रानी मन ही मन सोचने लगी कि कहीं गुरु ….लेकिन उसे कोई फल नही दिया गया। खिन्न होकर गोरखनाथ अपने नौ लाख शिष्यों के साथ वहां से आगे चल दिए । रानी बाछल भी उनके साथ हो ली। लेकिन आगे जाकर वह जंगल मे भटक गई तथा वहीं गुरु गोरख नाथ के ध्यान में मग्न हो गई। बारह वर्षों तक रानी ने घोर तपस्या की तथा उसका शरीर मिट्टी की बामी में परिवर्तित हो गया। बारह वर्षो के बाद गुरु गोरखनाथ जब अपने शिष्यों सहित उधर से गुजरे तो कहानी नामक शिष्य ने गुरु का ध्यान उस ओर दिलाया कि मिट्टी की बामी से आपके नाम का उच्चारण हो रहा है। गुरु ने अपने तपोबल से बाछल को पहले की तरह बना दिया तथा वापस घर जाने को कहा लेकिन रानी टस से मस नही हुई। 

गुग्गा दिन को सांप का रूप तथा रात को मानव देह धारण करके अपनी दुल्हन से मिलता था तथा सवेरा होते ही फिर भूमिगत हो जाता था। यह भी कहा जाता है कि ग़ुग्गा ने इस्लाम धर्म से भी नाता जोड़ा था। इस कारण उन्हें जाहरपीर का नाम दिया गया था। हिन्दू व मुसलमान दोनों साम्प्रदायों में समान रूपसे पूजे जाने वाले ग़ुग्गा जाहरपीर की गाथा राष्ट्रीय एकता की प्रतीक भी मानी जाती है। 

गुरु ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया

बताया जाता है कि गर्भवती होने के बाद जब बाछल बैलगाड़ी से अपने मायके जा रही थी तो एक बैल को सांप ने इस लिया। गुग्गा जाहरपीर ने गर्भ से ही बैल के इलाज का उपाय बताया। कहा जाता है कि रानी बारह महीने तक अपने मायके में रही लेकिन गुग्गा का जन्म नहीं हुआ। गुग्गा ने फिर गर्भ से ही अपनी माता को मारू देश चलने को कहा। 

मारुू देश पंहुचने पर जाहरपीर का जन्म हुआ तथा उसके बाद लड़की पैदा हुई जबकि उसी समय उनकी घोड़ी ने भी बच्चे को जन्म दिया। जो नीला घोड़ा के नाम से प्रसिद्ध हुआ गुग्गा की बहन का नाम गुगड़ी रखा गया। 

काछल ने गुरु गोरखनाथ के वरदान से अर्जन व सुर्जन नामक दो जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया। गुग्गा की पूजा हिमाचल प्रदेश में ही नही बल्कि उत्तर भारत के कई राज्यों में घी की जाती है। 

लोक गाथा के मुताबिक गुगा का विवाह गौडवगाले रियासत के राजा मलाप की कन्या सुरियल से हुआ। उनके विवाह का प्रसंग भी काफी रोचक बताया गया है। सगाई होने के बाबजूद राजा मलाप अपनी पुत्री का विवाह गुग्गा से करने को राजी नही हुआ। गुगा ने इसके लिए गुरु गोरखनाथ की अरदास की। गुरु ने इसके लिए वासुकी नाग की मदद ली। वासुकी ने पहले डंक मारा तथा बाद में मानव देह धारण करके विष उतारने का प्रपंच किया । राजकुमारी बेहोश थी। मानव रूपी वासुकी ने कहा कि यदि सुरियल का विवाह गुग्गा से होता है तो उसकी जान बच सकती है। राजा मलाप ने मजबूरी में हां कह दी तथा पांच सेर सरसों के जितने दाने होते हैं, उतने बाराती लाने को कहा। एक ओर विवाह की तैयारियां शुरू हुई तथा दूसरी ओर गुग्गा के मसेर भाइयों अर्जुन व सुर्जन ने आधे राज्य की मांग कर दी । उन्होंने यह शर्त रखी दी कि आधा राज्य दो या फिर लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। गुरु गोरखनाथ की कृपा से लड़ाई टल गई इसके साथ ही बारात की तैयारी हुई। गुरु गोरखनाथ व काहनी चेला के अलावा दो छेठे बच्चों के रूप में हनुमान व भैरव कुल चार बाराती हुए । उधर राजा मलाप ने सैंकड़ों मन पकवान बनवाए थे लेकिन बारात देखकर राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई। 

गुरु ने हनुमान व भैरव बालकरूपी दोनों बारातियों को कह कर भोजन करने भेजा की ये दोनों छोटे हैं तथा इन्हें बहुत भूख लगी है। फिर क्या था, दोनों भोजन करने लगे तो देखते ही देखते सारे पकवान ही खत्म हो गए मगर उनकी भूख शांत नहीं हुई। इसका पता जब राजा ज्योर को लगा तो उन्होंने हनुमान व क्र से माफी मांगी। बताया जाता है कि जब गुग्गा की बारात वापस आ रही थी तो अर्जुन व सुर्जन ने आधा राज्य लेने के लिए लड़ाई शुरू कर दी। बड़ी लड़ाई डुगे डाबर में लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में गुग्गा ने अपने नाना राय पधौरा व अर्जुन व सुर्जन दोनों मसेर भाइयों को मार गिराया तथा उनकी रक्तरंजित गर्दने धड़ से अलग कर दी। जब बाछल रानी ने यह खबर सुनी तो उसने गुग्ग्स जाहरपीर को धरती में समा जाने का वरदान दे दिया। लेकिन साथ में यह छूट री दे दी कि वह रात को अपनी नई नवेली दुल्हन सुरियल के साथ रह सकता है। 

बताया जाता है कि गुग्गा दिन को सांप का रूप तथा रात को मानव देह धारण करके अपनी दुल्हन से मिलता था तथा सवेरा होते ही फिर भूमिगत हो जाता था। यह भी कहा जाता है कि गुग्गा ने इस्लाम धर्म से भी नाता जोड़ा था। इस कारण उन्हें जाहरपीर का नाम दिया गया था। हिन्दू व मुसलमान दोनों साम्प्रदायों में समान रूपसे पूजे जाने वाले गुग्गा जाहरपीर की गाथा राष्ट्रीय एकता की प्रतीक भी मानी जाती है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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