संजय कुमार वर्मा
भारत का वीर जवान हूं मैं
ना हिंदू ना मुसलमान हूं मैं
जख्मों से भरा सीना है
दुश्मन के लिए चट्टान हूं मैं
भारत का वीर जवान हूं मैं
कैप्टन हनीफ उद्दीन करगिल के वो शहीद जिन्होंने अपने दूसरे साथियों को बचाते हुए महा बलिदान देने का काम किया। हनीफ की पोस्टिंग 11 राज राइफल में हुई थी। उसका उद्घोष था ‘राजा रामचंद्र की जय’। एक समय लगता था एक मुस्लिम क्या कभी राजा रामचंद्र की जय जैसा नारा लगाएगा लेकिन इंसान और किसी सैन्य अधिकारी में यही सबसे बड़ा अंतर होता है। वो जाति-धर्म से ऊपर उठकर खुद की पहचान सिर्फ एक भारतीय के रूप में रखता है, उसके लिए भारत का हित सर्वोपरि होता है। ऐसा ही महान, गौरवान्वित करने वाला काम शहीद कैप्टन हनीफ ने करगिल युद्ध के दौरान किया था।
हनीफ का बड़ा मिशन
करगिल का युद्ध उस समय बस शुरू ही हुआ था। पाकिस्तान की साजिश और उसकी रणनीति पूरी तरह नहीं खुली थी। तब कैप्टन हनीफ को ऑपरेशन थंडरबोल्ट के तहत एक बड़े मिशन पर भेजा गया। मिशन था तुरतुक क्षेत्र की उस चोटी पर कब्जा करना जिससे पाकिस्तान के सैनिकों पर कड़ी नजर रखी जा सके। अब कैप्टन हनीफ हमेशा से ही आगे से लीड करने में विश्वास रखते थे, अनुभव ज्यादा नहीं था लेकिन खून मैं शौर्य की धारा तेज दौड़ रही थी।
साथियों को बचाना था, खुद खाईं गोलियां
चार जूनियर रैंक के साथियों के साथ हनीफ अपने मिशन पर निकल पड़े। तुरतुक क्षेत्र में उन्हें खराब और बर्फीले मौसम के बीच में पाकिस्तानी फौजियों को सबक सिखाना था। 2 दिन की कड़क मशक्कत के बाद वे अपनी मंजिल के काफी करीब पहुंच गए, लेकिन किस्मत ऐसी रही कि पाकिस्तान के सैनिकों ने उन्हें देख लिया। फिर शुरू हुआ बर्फीले मौसम और ऊंची चोटियों पर खूनी खेल। घंटों की गोलीबारी होती रही, दोनों तरफ से गोले बरसाए गए। लेकिन कैप्टन हनीफ के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने अपने साथियों को बचाना ज्यादा जरूरी समझा।
25 साल की उम्र, महा बलिदान
इसी वजह से कैप्टन हनीफ ने फैसला किया कि वे दूसरे फ्रंट से गोलीबारी करेंगे। जो पाकिस्तान फौजी थे, वो व्यस्त हो गए और उनका सारा फोकस कैप्टन हनीफ की तरफ चला गया। इसी वजह से एक तरफ अगर अकेले हनीफ बंदूक लेकर गोलीबारी करते रहे तो दूसरी तरफ से बड़ी संख्या में पाकिस्तान के सैनिकों ने गोलियों की बौछार कर दी। काफी देर तक तो हनीफ दुश्मनों के सामने टिके रहे, लेकिन जख्म इतने गहरे थे कि बाद में उन्होंने देश के लिए महा बलिदान दे दिया। 25 साल की उम्र में वे दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए और उनके नाम के साथ शहीद का तमगा लग गया।
शहीद का मां बनी सच्ची देशभक्त
अब कैप्टन हनीफ की किस्मत उन लकीरों ने लिखी थी जहां पर उनका शव सुरक्षित वापस लाना भी सेना के लिए एक बड़ी चुनौती था। ऑथर रचना बिष्ट ने अपनी किताब ‘करगिल:द अनटोल्ड स्टोरी’ में एक किस्से का जिक्र किया है। बताया गया है उस समय के जनरल मलिक काफी उदास होकर शहीद कैप्टन हनीफ की मां से मिलने गए थे। वहां जाकर जनरल मलिक ने कहा था कि उन्हें इस बात का बड़ा अफसोस है कि 40 दिनों के बाद भी वे उनके बेटे का शव ऊंची चोटियों से वापस नहीं ला पा रहे हैं क्योंकि दुश्मन की तरफ से लगातार गोलीबारी हो रही है।
तब हनीफ की मां ने कुछ ऐसा कह दिया जिसने उन्हें भी एक महान देशभक्त बना दिया। हनीफ की मां ने कहा कि मेरा बेटा तो पहले ही शहीद हो चुका है, उसे लाने के लिए मैं नहीं चाहती किसी दूसरी मां का बेटा भी शहीद हो जाए, उसकी जान चली जाए।
मेरी बस इतनी इच्छा जरूर पूरी कर देना, जब यह युद्ध रुक जाए तो मुझे उस जगह ले जाना जहां मेरे बेटे का शव पड़ा है।
अब करगिल में जान गंवाने वाले जवानों के प्रति तो सम्मान है ही, उन बहादुर मांओं को भी सलाम करने की जरूरत है जिन्होंने अपने सपूतों को ना सिर्फ युद्ध के मैदान में भेजा बल्कि खुद भी फौलादी इरादे दिखाते हुए देश की सेना को किसी भी मौके पर कमजोर होने नहीं दिया। करगिल विजय दिवस के मौके पर एक श्रद्धांजलि शहीद कैप्टन हनीफ के नाम।
यह कहानी उन वीर शूरवीरों की है जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। 25 साल पहले, 26 जुलाई 1999 को भारत के बहादुर सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों के मंसूबों को ध्वस्त करते हुए कारगिल की चोटियों पर तिरंगा फहराया था। यह दिन हर भारतीय के लिए गर्व का दिन था और तभी से इसे कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
क्यों है ऐतिहासिक ये दिन
26 जुलाई का दिन इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि इसी दिन ऑपरेशन विजय सफल हुआ था। इस ऑपरेशन में भारतीय सैनिकों ने जम्मू-कश्मीर स्थित कारगिल के उन इलाकों पर दोबारा फतह हासिल की थी, जिन पर पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों ने घुसपैठ कर कब्जा कर लिया था।
कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से जुड़ी है। इस युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरा, जिसे अब बांग्लादेश कहा जाता है। इस युद्ध के बाद भी दोनों देशों के बीच की दुश्मनी समाप्त नहीं हुई। सियाचिन ग्लेशियर पर अपने-अपने हक को स्थापित करने के लिए दोनों देशों के बीच झगड़े जारी रहे। इस दुश्मनी को शांति से हल करने के लिए फरवरी 1999 में दोनों देशों के बीच “लाहौर डिक्लेरेशन” नामक समझौता हुआ। लेकिन इसके बावजूद, समझौते की अवहेलना करते हुए पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के उत्तरी कारगिल में स्थित भारत की लाइन ऑफ कंट्रोल (LoC) पर घुसपैठ कर कब्जा कर लिया।
इस घुसपैठ की सूचना भारतीय सैनिकों को मई 1999 में मिली, जिसके बाद भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय की शुरुआत की। पहाड़ों की हड्डियां गला देने वाली ठंड में भी भारतीय सैनिक डटे रहे और मई 1999 से जुलाई 1999 तक इस ऑपरेशन को जारी रखा। इन तीन महीनों की भीषण लड़ाई में हमारे देश के लगभग 490 सैन्य अधिकारी और जवान शहीद हुए। लंबी लड़ाई और कई जवानों की शहादत के बाद 26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकवादियों को खदेड़ने में सफल रही और कारगिल की चोटी पर तिरंगा फहराया गया।
हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है, ताकि कारगिल युद्ध में शहीद हुए सेना के जवानों और अधिकारियों की बलिदान को याद किया जा सके और उन्हें सम्मानित किया जा सके।
कारगिल विजय दिवस देश की एकता और देशभक्ति का प्रतीक है। यह दिन शहीदों की वीरता और बलिदान की कहानी को प्रेरणा मानते हुए देशवासियों में देश के प्रति कर्तव्य की भावना को प्रबल करता है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."