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महाकुंभ त्रासदी : आस्था और नियति का द्वंद्व

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अनिल अनूप

प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में जो कुछ हुआ, वह केवल एक हादसा नहीं, बल्कि एक त्रासदी थी, जिसने हजारों लोगों की आस्था और सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए। भीड़ के अत्यधिक बढ़ने और प्रशासन की असफलता के कारण मची भगदड़ में 30 श्रद्धालुओं की मौत हो गई, जबकि 60 से अधिक घायल हो गए। इस त्रासदी ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया, और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इसे भारत की भीड़ प्रबंधन क्षमता की बड़ी असफलता के रूप में देखा।

महाकुंभ हिंदू धर्म का सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन माना जाता है, जहां करोड़ों श्रद्धालु पुण्य कमाने और अपने पापों का प्रायश्चित करने आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इन श्रद्धालुओं को ‘पुण्यात्मा’ कहकर संबोधित किया था। लेकिन जब श्रद्धालु संगम के समीप आस्था के संगम में डूबने पहुंचे, तो उनके सपने अधूरे रह गए। कुछ तो संगम तक भी नहीं पहुंच पाए और भीड़ के रौंदे जाने से उनकी जान चली गई। सवाल उठता है कि क्या इसे भी नियति मान लिया जाए? क्या यह सच में एक अपरिहार्य घटना थी, या फिर इससे बचा जा सकता था?

भगदड़ का यह हादसा हमें याद दिलाता है कि इतिहास में ऐसे कई त्रासद हादसे पहले भी हुए हैं, जहां आस्था और भीड़ प्रबंधन की विफलता ने हजारों लोगों की जान ले ली। फिर भी, हर बार हम इसे भाग्य मानकर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन क्या यह उचित है?

भारत और भीड़ प्रबंधन की विफलता

भारत जैसे विशाल और घनी आबादी वाले देश में भीड़ प्रबंधन हमेशा से एक चुनौती रहा है। हमारे रेलवे स्टेशन हों, बस अड्डे हों या फिर धार्मिक स्थलों पर लगने वाले मेले, हर जगह भीड़ के कारण अव्यवस्था देखी जाती है। महाकुंभ में इस बार भीड़ का अनुमान 10 करोड़ से अधिक लगाया गया था। प्रयागराज में चार हजार हेक्टेयर में फैला यह मेला क्षेत्र अभूतपूर्व तो था, लेकिन क्या यह इतना सक्षम था कि इतनी विशाल जनसंख्या को सुगमता से नियंत्रित कर सके?

इस आयोजन के लिए प्रशासन ने करीब 70,000 सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया था, लेकिन जब भगदड़ मची, तो ये सुरक्षा उपाय नाकाफी साबित हुए। श्रद्धालु 10-15 किलोमीटर पैदल चलते रहे, धक्के खाते रहे, संघर्ष करते रहे, क्योंकि उन्हें ‘अमृत स्नान’ करना था। भीड़ बढ़ती गई, प्रशासन की अपीलें अनसुनी होती रहीं, और अंततः त्रासदी घटित हो गई।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया की आलोचना और भारत की छवि

महाकुंभ त्रासदी की खबरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में छा गईं। बड़े-बड़े अखबारों ने विश्लेषण प्रकाशित किए कि भारत इतने बड़े जन-आयोजन को सुरक्षित रूप से आयोजित करने में नाकाम रहा। सवाल उठाया गया कि क्या भारत को इस तरह के बड़े आयोजनों से बचना चाहिए? क्या यहां की सुरक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह एक धार्मिक आयोजन में आई भीड़ को नियंत्रित नहीं कर सकती?

भारत विरोधी अभियान जैसा माहौल भी बनने लगा, जहां मीडिया ने देश की भीड़ नियंत्रण प्रणाली की नाकामी को जमकर उभारा। हालांकि, यह भी सच है कि दुनिया के कई देशों में बड़ी आपदाएं होती हैं, लेकिन उन्हें इतनी सुर्खियां नहीं मिलतीं।

क्या हर त्रासदी नियति होती है?

कई लोग तर्क देंगे कि भगदड़ और हादसे भारत में होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, इसलिए इन्हें नियति मान लेना चाहिए। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? यदि हम सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए ट्रैफिक नियम बना सकते हैं, तो क्या हम धार्मिक आयोजनों में भीड़ नियंत्रण के लिए ठोस कदम नहीं उठा सकते?

दरअसल, भारत में भीड़-तंत्र का विज्ञान अब भी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है। हमारे पास आपदा प्रबंधन की योजनाएं तो हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन कमज़ोर है। धार्मिक आस्था और प्रशासनिक नियंत्रण के बीच संतुलन बिठाने की जरूरत है। महाकुंभ जैसी घटनाओं से सबक लेकर हमें भीड़ नियंत्रण के नए और प्रभावी तरीकों को अपनाना चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह की त्रासदियों से बचा जा सके।

महाकुंभ त्रासदी केवल एक हादसा नहीं, बल्कि भीड़ नियंत्रण प्रणाली की असफलता और आस्था के बीच के द्वंद्व का प्रतीक है। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ धार्मिक आयोजनों को भव्य बनाना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सुरक्षा और प्रबंधन को भी उतनी ही प्राथमिकता देनी होगी।

अगर प्रशासन समय रहते भीड़ नियंत्रण के आधुनिक तरीकों को अपनाए और श्रद्धालुओं को सुरक्षित तरीके से स्नान की सुविधा दे, तो इस तरह की त्रासदियों को रोका जा सकता है। इसे नियति मानकर भूल जाना एक और बड़ी भूल होगी। भविष्य में ऐसे आयोजनों के दौरान सुरक्षा को प्राथमिकता देना ही एकमात्र उपाय है, ताकि श्रद्धालु न केवल पुण्य कमा सकें, बल्कि अपनी आस्था को सुरक्षित रूप से जी भी सकें।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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