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स्मृति

बलिदान के सबूत में जिनका कटा सिर पेश किया गया था कोर्ट में वो क्रांतिवीर थे प्रफुल्ल चाकी 

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प्रमोद दीक्षित मलय

दिनांक 1 मई, 1908। पटना के निकट मोकामा घाट रेलवे स्टेशन। मुजफ्फरपुर से आने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर रुकने ही वाली थी कि एक बोगी से एक 20 वर्षीय युवक तेजी से उतरा और प्लेटफार्म के एक छोर की ओर भागने लगा। उसे पकड़ने उसी बोगी से उतर एक व्यक्ति तेजी से उसके पीछे भागा। पूरे स्टेशन पर पुलिस अधिकारी और सिपाहियों का सख्त घेरा। भारी पुलिस बल का घेराव भेदकर वह युवक एक आड़ के पीछे छिप कर पुलिस को चकमा देना चाहता था पर पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। अन्य यात्री दहशत से इधर-उधर भाग सुरक्षित जगहों पर ठहर घटना को समझने लगे। पुलिस फायर करते हुए युवक के निकट जाना चाहती थी ताकि उसे जीवित गिरफ्तार कर ले पर युवक की जवाबी फायरिंग से पुलिस के पांव ठिठक गये। दो घंटे से अधिक चली फायरिंग के बाद युवक ने अपने पास बची अंतिम गोली चलाने से पहले मातृभूमि की रज माथे पर मली और अपने सिर पर गोली मार मातृभूमि के प्रति सर्वोच्च समर्पण आत्म बलिदान कर दिया। सिपाही शव को पुलिस चौकी ले आये और सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी ने मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड के आदेश पर शव का सिर धड़ से काटकर स्पिरिट भरे डिब्बे में रख मुजफ्फरपुर अदालत में हाजिर हुआ। वहां जानकारी हुई कि यह दिनेश चंद्र राय नहीं बल्कि युगांतर संस्था से जुड़ा बारीन्द्र घोष का प्रिय साथी रंगपुर का प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी है जो किंग्सफोर्ड पर किये गये बम हमले शामिल था। पुलिस के हाथ अनायास एक बड़ी सफलता हाथ लगी गई थी।

प्रफुल्ल चाकी का जन्म एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में बंगाल प्रेसीडेंसी अंतर्गत बोगरा जिला अंतर्गत बिहारी गांव में (जो अब बांग्लादेश में है)10 दिसम्बर, 1888 को हुआ था। माता स्वर्णमयी देवी शिशु को निहारते प्रसव पीड़ा को भूल खुशी में मग्न हो गयीं।

पिता राजनारायण चाकी बोगरा स्टेट में एक सामान्य कर्मचारी के रूप में कार्यरत थे। परिवार में हंसी-खुशी का बसेरा था। पर निर्मम काल ने दो वर्षीय बालक प्रफुल्ल के सिर से पिता की स्नेह छाया छीन ली। परिवार में मानो बज्रपात हो गया।

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पालन-पोषण में मां ने अनेक कष्ट सहे पर धैर्य न खोया। माता की जीवटता और कर्मठता का प्रभाव प्रफुल्ल पर पड़ना ही था। उसने मनोयोग से जीवन की प्रथम सीढ़ी पर कदम रखे। प्राथमिक शिक्षा हेतु उसका नामांकन जनता प्रसाद इंग्लिश स्कूल में कराया गया। तत्पश्चात रंगपुर जिला स्कूल से आगे की पढ़ाई पूरी की। वह विद्यालय में उपलब्ध स्वामी विवेकानंद साहित्य पढ़ने के कारण उनके राष्ट्रीय एवं सामाजिक उत्थान के विचारों से बहुत प्रभावित हुए।

उसी कालावधि में रंगपुर में स्वामी महेश्वरानंद एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाकर समाज में राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे थे। प्रफुल्ल उनके संगठन में शामिल होकर कार्य करने लगे।

प्रफुल्ल को व्यायाम-कसरत करने, कुश्ती लड़ने और तैराकी करने का नियमित अभ्यास था। लाठी चलाने में तो महारत हासिल थी। घुड़सवारी भी कर लेते थे। इस कारण उनकी कद-काठी बलिष्ठ और ऊंची थी।

अभी वह कक्षा 9 में ही थे कि लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन कर दिया गया। परिणामस्वरूप एक उग्र और राष्ट्रीय आंदोलन ने आकार लिया।

देशभर में बंग-भंग के विरोध में धरना-प्रदर्शन होने लगे। बंगाल के स्कूल-कालेज की कक्षाएं रिक्त होने लगीं, और छात्र दिलों में राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की दिव्य ज्योति जलाए अंग्रेजी सत्ता के विरोध में सड़कों पर उतर आये। रंगपुर में प्रफुल्ल चाकी ने छात्रों का प्रेरक नेतृत्व किया। फलत: प्रफुल्ल को स्कूल से निकाल दिया गया।

स्कूल से इस निष्कासन ने किशोर प्रफुल्ल के हृदय में धधकती देशभक्ति की अग्नि में घी-गुग्गुल का काम किया। तब प्रफुल्ल ने रंगपुर नेशनल स्कूल में प्रवेश लिया। यहां उनका सम्पर्क जितेंद्र नारायण राय, अविनाश चक्रवर्ती, ईशानचंद्र चक्रवर्ती आदि क्रांतिकारियों से हुआ। संयोग से इसी समय युगांतर के संगठन विस्तार के लिए अरविंद घोष के भाई बारीन्द्र घोष रंगपुर आए हुए थे और युवकों एवं छात्रों से देश की स्वतंत्रता हेतु युगांतर से जुड़कर अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान कर रहे थे।

बारीन्द्र घोष के विचारों से प्रफुल्ल चाकी बहुत प्रभावित हुए और प्रत्यक्ष भेंटकर युगांतर से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की। बारीन्द्र उनको अपने साथ कलकत्ता ले आये। यहां प्रफुल्ल की भेंट अरविंद घोष, कन्हाई लाल दत्त, खुदीराम बोस, उल्लासकर दत्त, सत्येन्द्र नाथ बोस आदिक अनेक क्रांतिकारियों से हुई। प्रफुल्ल ने कुछ दिनों बाद ही कोई महत्वपूर्ण कार्य देने हेतु संगठन से इच्छा व्यक्त की। तब संगठन ने उसे एक अन्य क्रांतिकारी के साथ पूर्वी बंगाल एवं असम के पहले लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जोसेफ बम्मफील्ड फुलर, जिसको बाद में उत्कृष्ट सेवा के लिए सरकार द्वारा नाईट की उपाधि प्रदान की गई थी, की हत्या करने का काम सौंपा। दोनों क्रांतिकारियों ने कई दिन तक फुलर पर हमले का प्रयास किया पर अत्यधिक सुरक्षा व्यवस्था के कारण असफल हो लौट गये। प्रफुल्ल चाकी खाली हाथ लौटने से निराश थे और शीघ्र ही किसी बड़े काम को अंजाम देना चाहते थे।‌ समय ने अवसर थाल में सजाकर जैसे भेंट किया हो क्योंकि संगठन ने मुजफ्फरपुर के जज डगलस किंग्सफोर्ड को मारने का दायित्व खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को दिया। दोनों कलकत्ता से मुजफ्फरपुर पहुंचे।

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खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी क्रमशः दुर्गादास सेन और दिनेश चंद्र राय के छद्म नाम से एक धर्मशाला में ठहर किंग्सफोर्ड पर नजर रखने लगे।‌ 30 अप्रैल, 1908 के दिन एक ठोस योजना के साथ दोनों हमले हेतु यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की घोड़ागाडी का इंतजार करने लगे। ज्यों ही गाड़ी क्लब से बाहर निकली खुदीराम ने बम फेंका, गाड़ी के परखच्चे उड़ गये। किंग्सफोर्ड पर हमले को सफल मान दोनों वहां से सुरक्षित भाग खड़े हुए। पर दुर्योग से किंग्सफोर्ड उस गाड़ी में न होकर उसके पीछे की दूसरी गाड़ी में होने से साफ बच गया। अंग्रेज सरकार में हड़कंप मच गया। तुरंत घटना की सूचना और हमलावरों को पकड़ने का संदेश पुलिस स्टेशनों तक पहुंचा दिया गया। हमले में दो निर्दोष महिलाओं के मारे जाने से दोनों क्रांतिकारी दुखी थे क्योंकि निर्दोषों क हत्या करना उनका उद्देश्य न था। शहर से बाहर भागने के रास्ते बंद थे, संदिग्ध पकड़े जा रहे थे।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि किंग्सफोर्ड पर बम हमले में दो अंग्रेज महिलाओं के मारे जाने की निंदा करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि ऐसी हिंसा भारत को स्वतंत्रता प्रदान नहीं करने देगी। किंतु मराठी भाषी पत्र ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने बम हमले की सराहना करते हुए लिखा, “हमेशा अनर्गल शक्ति का प्रयोग करने वाले शासकों को यह याद रखना चाहिए कि मानवता के धैर्य की हमेशा एक सीमा होती है और इसलिए हिंसा चाहे कितनी भी निंदनीय हो, अपरिहार्य हो गई है।” यह लेख लिखने के कारण तिलक जी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर कारावास में डाल दिया गया, अस्तु।

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बम हमले के बाद खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी अलग-अलग रास्तों से सुरक्षित निकल भागे। प्रफुल्ल चाकी मुजफ्फरपुर से कलकत्ता जाने हेतु पटना के लिए ट्रेन पकड़ी। जिस बोगी में प्रफुल्ल बैठे थे संयोग से उसी बोगी में पुलिस सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी भी यात्रा कर रहा था जिसे बम हमले और भागे हुए क्रांतिकारियों के बारे में पूरी जानकारी थी। प्रफुल्ल के हाव-भाव एवं असहजता देखकर उसे शक हुआ। उसने प्रफुल्ल से सामान्य बातचीत कर अपने शक को और पुष्ट कर लिया। तब प्रफुल्ल को गिरफ्तार करने के लिए उसने पुलिस को गुप्त संदेह भेज अगले स्टेशन पर ट्रेन की घेराबंदी करने को कहा। प्रफुल्ल भी सतर्क थे। नंदलाल बनर्जी के व्यवहार पर उनको संदेह हुआ और किसी भी घटना के प्रत्युत्तर लिए वह सावधान होकर बैठ गये। मोकामा घाट स्टेशन पर ट्रेन पहुंची तो भारी पुलिस बल को ट्रेन की ओर आते देखकर प्रफुल्ल बोगी से कूदे और एक ओर भागने लगे। इसके बाद जो कुछ हुआ उसे आप लेख के आरंभ में पढ़ चुके हैं। उधर 2 मई, 1908 को खुदीराम बोस भी गिरफ्तार कर लिए गये। और उनको 11 अगस्त, 1908 के दिन फांसी दे दी गयी। उनकी शवयात्रा में अठारह हजार आदमी शामिल हुए। इधर क्रांतिकारी दल दो साथियों के पकड़े जाने एवं मृत्यु से दुखी थे और बदला लेने की ताक में थे।

एक दिन अवसर देखकर दो क्रांतिकारियों ने सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी को मौत के घाट उतार प्रफुल्ल चाकी की मौत का बदला ले लिया। प्रफुल्ल चाकी ने केवल 20 वर्ष की अवस्था में भारत माता की मुक्ति हेतु स्वतंत्रता संघर्ष के राष्ट्रीय अनुष्ठान में अपने प्राण आहुति की समिधा बना समर्पित कर दिये।

धन्य है वह माता और वह मातृभूमि जिसकी पावन गोद में प्रफुल्ल चाकी जैसे अप्रतिम वीर ने शिशु क्रीड़ा की है। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रफुल्ल चाकी के योगदान को भुला दिया गया पर उनकी वीरता और भारत माता के प्रति उत्कट भक्ति की ज्योति हम भारतीयों के हृदयों में सदैव प्रज्वलित रह हमें प्रेरित करती रहेगी। (लेखक स्वतंत्रता आंदोलन के अध्येता हैं। बांदा, उ.प्र.)

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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