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संपादकीय

जमीन की राजनीति करते हुए ‘नेताजी’ आज निश्चिंत हो गए दुनियादारी से 

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अनिल अनूप 

वह भारतीय लोकतन्त्र की उस अजीम ताकत को बहुत करीब से पहचानते थे जो इस पूरी प्रणाली का आम जनता को मालिक बनाती है

आजाद भारत में जमीन की राजनीति करने वाले नेताओं की श्रृंखला का ऐसा अग्रणी पुरुष हमेशा के लिए अलविदा कह गया है जिसने किसानों और मजदूरों समेत ग्रामीणों व गरीबों की आवाज सत्ता के गलियारों में बुलन्द करने के लिए राजनीति की दिशा तक बदलने का चमत्कार किया। मुलायम सिंह आजाद भारत के उस दौर की राजनीति को समग्र भारतीयता के दायरे में बांधने के पुरोधा भी कहे जायेंगे जब साम्प्रदायिकता के ज्वार में देश की सामाजिक एकता पर खतरा मंडराता दिखाई दिया था। इस दौर में उन्हें ‘मौलाना मुलायम’ तक के ‘खिताब’ से नवाजा गया, मगर हकीकत यह भी रहेगी कि उन्होंने अपने राजनैतिक चातुर्य से भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को चरमपंथियों या उग्रवादियों के चंगुल में फंसने से बचाया।मुलायम सिंह निश्चित रूप से समाजवादी चिन्तक व जननेता डा. राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों में विशिष्ट स्थान रखते थे और लोहियावादी राजनीति के अनुगामी भी थे, हालांकि बाद के वर्षों में उनकी इस राजनीति में कई वर्जनाओं का प्रवेश भी हुआ मगर इन्हें समकालीन राजनैतिक परिस्थितियों की जरूरत भी कहा जा सकता है। मुलायम सिंह की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह भारतीय लोकतन्त्र की उस अजीम ताकत को बहुत करीब से पहचानते थे जो इस पूरी प्रणाली का आम जनता को मालिक बनाती है। ग्रामीण व अपेक्षाकृत अनपढ़ कही जाने वाले मतदाताओं की राजनैतिक समझ व बुद्धि पर उन्हें गजब का भरोसा था, यही वजह रही कि उन्होंने अपनी समाजवादी पार्टी से समाज के हाशिये पर पड़े हुए कई व्यक्तियों को पेशेवर राजनीतिज्ञ बनाया और उन्हें विधानसभा से लेकर संसद तक में भिजवाने का काम किया। मगर उनकी इस राजनीति में भयंकर विरोधाभास भी था। एक तरफ उन्होंने एक जमाने की दस्यु सुन्दरी फूलन देवी को अपनी पार्टी के टिकट पर लोकसभा भेजा, तो दूसरी तरफ शिखर राजनीति में स्व. अमर सिंह जैसे सत्ता के प्रतिष्ठानों के अहलकार कहे जाने वाले राजनीतिज्ञ के साथ भी करीबी सम्बन्ध बनाये रखे। इसकी वजह यह मानी जाती है कि मुलायम सिंह बाजारमूलक अर्थव्यवस्था से उपजी राजनीति के बदलते चेहरे को भली-भांति समझते थे।

कांग्रेस विरोध से शुरू हुई अपनी राजनीति में मुलायम सिंह ने समयानुसार संशोधन भी किये और एक समय ऐसा भी आया जब वह उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रतिरोधी नम्बर एक भी बने, मगर उनका यह विरोध कभी भी व्यक्तिगत रंजिश में तब्दील नहीं हुआ। वह उस नेहरू व लोहिया युग की राजनीति की परंपरा के व्यक्ति थे जिनमें सैद्धान्तिक मतभेदों का अर्थ निजी सम्बन्धों पर नहीं पड़ता था। यही वजह थी कि शिखर राजनीति में उनकी निपुणता 1990 के बाद हमेशा उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में रखे रही, हालांकि उनकी पार्टी क्षेत्रीय ही थी और उत्तर प्रदेश से बाहर इसका खास प्रभाव नहीं था। साझा सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दलों की महत्ता कैबिज करने का अदभुत कार्य भी मुलायम सिंह ने किया और सिद्ध किया कि राष्ट्रीय मसलों पर क्षेत्रीय नेताओं के दखल को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। इसका पहली बार प्रदर्शन उन्होंने 1998 में स्व. वाजपेयी की भाजपा नीत एनडीए सरकार के एक वोट से गिर जाने के बाद तब किया जब केन्द्र में वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति के पास जाकर उन्हें लोकसभा में बहुमत के लिए 272 सांसदों का समर्थन मिलने का आश्वासन दिया। तब श्री मुलायम सिंह ने संसद परिसर में ही घोषणा की कि बहुमत की बात की जा रही है और ‘हमसे कोई बात ही नहीं कर रहा है’।

यह मुलायम सिंह का जमीनी राजनैतिक चातुर्य था जो शिखर राजनीति की चौसर में अपनी मन पसन्द ‘गोटियां’ बैठाने के लिए प्रेरित कर रहा था। मुलायम सिंह वह चाल चल चुके थे कि देश में मध्यावधि चुनाव का रास्ता प्रशस्त हो। 1999 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त सफलता प्राप्त हुई। यह बात स्वयं में विस्मयकारी हो सकती है कि श्री मुलायम सिंह ने देश के दो राष्ट्रपतियों के चयन में निर्णायक भूमिका निभाई । 2002 में जब स्व. कृष्णकान्त को एनडीए द्वारा राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाये जाने के प्रयास असफल हो गये तो स्व. मुलायम सिंह यादव ने ही स्व. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सुझाया जिस पर कम्युनिस्टों को छोड़ कर राजनैतिक सहमति जैसी हो गई थी। इसके बाद 2012 में जब नये राष्ट्रपति का चुनाव होना था तो सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की यूपीए सरकार में भ्रम की स्थिति थी। पार्टी की तरफ से तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी व वित्त मन्त्री स्व. प्रणव मुखर्जी के नाम आगे किये गये थे। श्री मुखर्जी के नाम पर एकमत होने में कांग्रेस में मतभेद चल रहा था तो मुलायम सिंह यादव ने इस पद के लिए स्व. मुखर्जी को सर्वथा योग्य मानते हुए यह एेसा पांसा फेंका कि कांग्रेस के होश उड़ गये। उन्होंने प्रस्ताव कर दिया कि प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया जाये। इस पांसे से कांग्रेस के हाथ के तोते उड़ गये और तुरन्त ही पार्टी की तरफ से श्री मुखर्जी के नाम की घोषणा कर दी गई।मुलायम सिंह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में भी अच्छी पैठ रखते थे। उन्होंने संसद के भीतर कई बार चेतावनी दी कि चीन भारत का सबसे बड़ा दुश्मन साबित हो सकता है। अतः उसके साथ सावधानी के साथ सम्बन्धों का विस्तार किया जाये। मगर 2008 में जब जुलाई महीने में मनमोहन सरकार ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की तसदीक के लिए संसद का विशेष दो दिवसीय सत्र बुलाया तो मुलायम सिंह ने अपने पुराने कम्युनिस्ट मित्रों को बरतरफ करते हुए मनमोहन सरकार द्वारा रखे गये ‘विश्वास प्रस्ताव’ के पक्ष में वोट देकर भारत की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बरकरार रखा, क्योंकि तब इस समझौते के रचनाकार तत्कालीन विदेश मन्त्री स्व. प्रणव मुखर्जी अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश से साफ कह कर आ गये थे कि समझौता तब तक नहीं हो सकता जब तक कि भारत की संसद इसकी सहमति न दे दे। श्री मुलायम के स्वर्गवास से राजनीति का वह पुरोधा सदा के लिए सो गया जिसकी जमीन की राजनीति शिखर राजनीति के दांव तय किया करती थी।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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