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कानपुर

स्वाधीनता के 75वें साल में भी इनके नाम बदले लेकिन हम बदलने को तैयार नहीं

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट 

स्वाभिमान, स्वाधीनता और स्वावलंबन के साथ हम आगे ही आगे बढ़ रहे हैं। हर किसी की जुबान पर आजादी के दौर के चर्चे हैं। तिरंगा यात्राओं में वंदेमातरम, भारत माता की गूंज से चहुंओर देशभक्ति का माहौल है। 

स्वाधीनता के 75 साल पर आजादी के अमृत महोत्सव के रंग में सभी सराबोर हैं। कनपुरिया गली-मोहल्लों, चौराहों, घर-दुकानों, सरकारी व निजी कार्यालयों के भवनों पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा शान से फहरा रहा है। 

सड़क पर टेंपो-टैक्सी, ई-रिक्शा वालों से हम और आप तकरीबन रोज ही बोलते-सुनते हैं कि भइया, कलक्टरगंज चलोगे क्या, हालसी रोड, मेस्टन रोड चलने का कितना पैसा लोगे? अरे उर्सला अस्पताल तक ही तो जाना है, ज्यादा पैसे मांग रहे हो। लाटूश रोड, मूलगंज तो हम अक्सर जाते हैं, लेकिन इतने पैसे नहीं पड़ते। मैकराबर्टगंज, कर्नलगंज के 10 रुपये ही देंगे, ले चलना हो तो चलो, नहीं दूसरे के साथ चले जाएंगे। 

जी हां, भले शहर के ऐसे मोहल्लों, सड़कों या अस्पतालों के नाम सामान्य तरीके से हम सब ले रहे हैं, लेकिन असल में ये उन अंग्रेज अफसरों की याद दिलाते हैं, जो शासन करने के साथ हमारे पूर्वजों को प्रताड़ित भी करते रहे। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान अब ये नाम हमारे दिलों को चुभ से रहे हैं। इनके नाम बदलने के प्रस्ताव लाकर असलियत में आजादी का अमृत महोत्सव मनाना होगा। 

स्वाधीनता के बावजूद गुलामी के ये चिह्न मिटने ही चाहिए। महापुरुषों, क्रांतिकारियों के नाम पर इनकी पहचान होनी चाहिए, जिससे आने वाली पीढ़ियां अंग्रेजों के बजाय महापुरुषों को जान सकें।

यहां अंग्रेज अफसरों के नाम

लाटूश रोड : इस सड़क का नाम संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जेम्स लाटूश के नाम पर रखा गया। अंग्रेजों के समय से इस सड़क का नाम आज तक वही है।

गिलिस बाजार : 1857 से पहले बहुत सी फौजी कंपनियां कानपुर में ठहरती थीं। इनमें से बंगाल इंफेंट्री सबसे महत्वपूर्ण थी। इन्हें गिलिसेज भी कहा जाता था। इसी गिलिसेज के नाम पर गिलिस बाजार अस्तित्व में आया।

कंपनी बाग : नवाबगंज में आज भी कंपनी बाग है। 1847 में अंग्रेजों की सेनाएं यहां आकर रुकी थीं। इसे कंपनी बाग कहा जाने लगा।

डफरिन व उर्सला अस्पताल : उर्सला और डफरिन अस्पताल आजादी से पहले बना था। अंग्रेज कारोबारी अल्बर्ट हार्समैन का विवाह उर्सला से 1921 में हुआ था। 1935 में ब्रिटिश इंपीरियल एयरवेज का विमान हादसे का शिकार हो गया। इसमें उर्सला हार्समैन की मृत्यु हो गई। अल्बर्ट ने पत्नी उर्सला की याद में 26 फरवरी, 1937 को अस्पताल का निर्माण कराया। इसके बाद डफरिन अस्पताल बनाया गया। इन्हें जिला अस्पताल का दर्जा मिला, लेकिन नाम वही है।

हालसी रोड : मूलगंज चौराहा से घंटाघर चौराहा के बीच हालसी रोड है। यह सड़क अंग्रेज कलक्टर एस हालसी के नाम पर बनाई गई, जिसके दोनों ओर थोक बाजार हैं। यह शहर की सबसे व्यस्त सड़कों में से एक है।

परेड : कारसेट चौराहे से नई सड़क होकर सेंट्रल स्टेशन जाने पर परेड चौराहा मिलता है। यहां मैदान में अंग्रेजों की सेना की परेड होती थी, जिससे इसका नाम परेड पड़ गया।

ये मोहल्ले भी

हूलागंज : यह मोहल्ला किसी समय ह्वीलर गंज कहा जाता था। सर ह्यू ह्वीलर की स्मृति में यह नाम पड़ा। बाद में भारतीयों ने अपने सेनापति हुलास सिंह के नाम पर इसे हूलागंज कर दिया।

एलेनगंज : यह मोहल्ला जार्ज बर्नी एलेन के नाम पर बसा है, जो पहले इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहते थे। बाद में कानपुर आकर बस गए। यहां जमीन व जंगल खरीदा। एलेन फारेस्ट (चिड़ियाघर वाला हिस्सा) भी उन्हीं की स्मृति में है।

कर्नलगंज : कर्नल जेम्स शेफर्ड के नाम से आबाद कर्नलगंज अंग्रेजों के नाम पर पुराना मोहल्ला है। बेहद प्रभावशाली व्यक्ति रहे जेम्स शेफर्ड को वर्ष 1801 में प्रतिमाह 1000 रुपये पेंशन मिलती थी।

फेथफुल गंज : कैंट क्षेत्र का यह मोहल्ला 1831 के कमिश्नर टू दि बाजीराव पेशवा आफ बिठूर मेजर आरसी फेथफुल की स्मृति में है। कुछ लोग बताते हैं कि 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के वफादारों के लिए फेथफुलगंज बसाया गया।

कूपरगंज : लेफ्टिनेंट जनरल आफ यूनाइटेड प्राविंस ईडब्ल्यू कूपर (चीफ कमिश्नर आफ अवध) की याद में कूपरगंज मोहल्ला बसा। लोग उसे कोपरगंज कहने लगे हैं।

हैरिसगंज : कर्नल हैरिस की स्मृति में यह मोहल्ला बसा। कर्नल हैरिस यहां सन् 1842 में तैनात रहे थे।

बेकनगंज : कानपुर के कलेक्टर रहे डब्ल्यू बेकन की स्मृति में यह मोहल्ला बसा है।

मूलगंज : 1890 मे कानपुर के कलेक्टर रहे एचडी मोले की याद में बसा मोलगंज ही वर्तमान का मूलगंज है।

सूटरगंज : एडवर्ड एम सूटर की याद में यह मोहल्ला आबाद हुआ। एडवर्ड सूटर एमएलए और कानपुर इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के प्रभारी भी थे। वह मेसर्स फोर्ड एंड मैकडोनाल्ड लिमिटेड के मालिक थे।

मैकराबर्टगंज : लाल इमली ऊलेन मिल के मैनेजर एलेक्जेंडर मैकराबर्ट के प्रयास से ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन की स्थापना हुई थी। 1900 से 1909 तक एमएलए रहे। उन्हें बैरोनेट व सर की उपाधि मिली हुई थी। उन्होंने लाल इमली के कार्मिकों को आवासीय परिसर दिया, जो मैकराबर्टगंज के नाम से जाना गया।

कलक्टरगंज : सेंट्रल स्टेशन के पास कलक्टरगंज मोहल्ला कानपुर के कलेक्टर रहे विलियम स्टर्लिंग हालसी की याद दिलाता है। वह यहां 1865 से 1872 तक रहा। उसने दौलतगंज से अनाज मंडी कलक्टरगंज में शिफ्ट की थी, जिसका शुभारंभ 19 अक्टूबर, 1866 दशहरा को कलेक्टर हालसी ने किया था।

कलक्टरगंज : नगर निगम की लिखापढ़ी में नाम अयोध्या नगरी हो चुका है, लेकिन कम ही लोग जानते हैं।

परेड चौराहा : बलिदानी भगत सिंह के नाम पर रखा गया, लेकिन कोई नहीं बोलता।

बिरहाना रोड : नाम बदलकर कस्तूरबा गांधी मार्ग रखा गया, शायद ही कोई जानता होगा।

मेस्टन रोड : हसरत मोहानी मार्ग, लेकिन बोलता कोई नहीं।

माल रोड : महात्मा गांधी मार्ग, एमजी रोड लिखा रहता है दुकानों पर बोलचाल में नहीं।

हालसी रोड : सरदार वल्लभभाई पटेल मार्ग, बोलचाल में वही।

केईएम हाल : फूलबाग स्थित केईएम हाल का नाम पहले गांधी भवन, फिर विद्यार्थी भवन रखा गया, कनपुरिये केईएम हाल ही बोलते।

हैलट अस्पताल : लाला लाजपत राय (एलएलआर) अस्पताल रखा जा चुका, लेकिन लोग बोलते हैलट ही हैं।

क्रांतिकारियों ने झेलीं यातनायें, नाम बदलने चाहिए

क्रांतिकारियों ने जिन अंग्रेजों की यातनायें झेलीं, उनके नाम बदलने ही चाहिए। बुजुर्ग बताते हैं कि उस दौर में अंग्रेज अफसर हर गली-मोहल्ले में लोगों को प्रताड़ित करते थे। इनकी प्रताड़ना के कारण तमाम लोगों ने शहर छोड़ दिया तो कई को जान से ही हाथ धोना पड़ा। नानाराव पार्क से लेकर कई जगहों पर बलिदानियों से जुड़ी यादें संजोई गई हैं। उन्हीं के नाम से अंग्रेजों की याद दिलाने वाले मोहल्लों के नाम भी होने चाहिए।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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