प्रमोद दीक्षित मलय
8 मार्च, विश्व महिला दिवस।
कल पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हर्षोल्लास एवं उत्साह के अतिरेक के साथ मनाया गया। जागरूक, संवेदनशील एवं सह-अस्तित्व के पावन भाव से पूर्ण मन लिए नागरिकों ने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। महिला अधिकार एवं संरक्षण के आकर्षक आदर्श व्याख्यायित किए गए। मंचो पर स्त्री शक्ति शोभायमान हुई। उन्हें महिमा मंडित कर समाज के विकास की धुरी सिद्ध किया किया गया। इसके साथ ही समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में महिलाओं की प्रगति, उपलब्धि एवं योगदान को रेखांकित कर उनकी गौरव गाथा उच्च स्वर में गाई गई। विशेष उपलब्धियों को हासिल करने वाली तमाम महिलाओं को विभिन्न संस्थाओं, विभागों और राज्य एवं केन्द्र सरकारों द्वारा सम्मानित भी किया गया। नारी के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का ऐसा चमकदार वितान ताना गया कि सहसा ऐसा लगा कि पूरा परिदृश्य महिलाओं के मान-सम्मान, उनकी अस्मिता एवं अस्तित्व को स्वीकार कर तमाम लैंगिक विभेदों से परे अब कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ने को न केवल व्याकुल है अपितु मन, वचन एवं कर्म से सहर्ष तैयार भी। लेकिन इस सुबह की भी शाम होनी ही थी और हुई भी। महिला दिवस, दिन बीतते-बीतते तमाम सवाल परिदृश्य में छोड़कर उत्तर पाने के लिए अगले वर्ष तक के लिए प्रतीक्षारत हो मौन हो गया। वह कौन से सवाल हैं जो पहले भी सामाजिक फलक पर उभरते रहे हैं और शायद कल भी उठते रहेंगे। स्मरणीय रहे, सवालों की आंच कभी मंद नहीं होगी जब तक कि सम्यक जवाब जीवन के पृष्ठों पर मुस्कुराने न लगें।
पिछले 30-35 सालों के अपने सामाजिक एवं लेखकीय जीवन के अनुभव के आधार पर देखता हूं कि स्त्री विमर्श पर कोरे संवाद के अलावा हम ऐसा कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं कर पाए हैं कि उस दृढ धरातल पर महिला अधिकारों की छांव तले महिलाएं अपने वजूद का भव्य भवन तामीर कर सकें। आज भी फलक पर उभरा धुंधला चित्र अंधेरों से जूझता प्रकाश की एक रेख ताक रहा है। आज जब हम देश-दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में शीर्ष स्तर पर महिलाओं को परचम लहराते हुए देखते हैं तो लगता है कि जैसे आधी आबादी ने अपना हक पा लिया है। महिला दिवस मनाकर बुके और शाल ओढ़ाकर, उसके हाथों में प्रशस्ति पत्र अर्पित कर हम अपने कर्तव्य की पूर्ति कर अपनी पीठ स्वयं थपथपा रहे हैं। लेकिन यह स्त्री जीवन का एक पहलू है जहां थोड़ी सी उजास है, थोड़ी सी काम करने की जगह और आजादी है और है थोड़ा सा स्वीकृति का भाव। लेकिन दूसरा पहलू वेदना, पीड़ा और कसक-आक्रोश से भरा हुआ है। जहां आंसू हैं, बेबसी है और पल-पल अपमान-तिरस्कार। इस घुटन, शोषण, हिंसा, अमानवीय व्यवहार एवं अस्वीकृति के भाव में एक स्त्री का अस्तित्व हजार टुकड़े होकर रोज बिखरता है। वह मर्यादाओं और परम्पराओं के पाटों में पिसती खून के आंसू पीने को मजबूर है। हमने कभी यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता श्लोक बांचकर उसे साधना-आराधना की देवी का दर्जा देकर पूज्या बना दिया पर वही देवी घर-घर में प्रताड़ित है, हिंसा का शिकार है जिसके ओंठ दिए गए हैं। इन बंद लबों से अभिव्यक्ति का अनवरत निर्मल शीतल प्रवाह सरिता बनकर कब बहेगा, समय क्षितिज पर अवस्थित हो चुपचाप सब देख रहा है।
सुबह से शाम तक चूल्हे चौके में घुटती स्त्री अपना हक किससे और कैसे मांगे। संविधान ने उसे कानूनी तौर पर सक्षम-समर्थ बनाने के उपाय तो कर दिए पर उन कानूनों को धरातल पर उतारने और अमलीजामा पहनाने का कार्य कौन करेगा। एक दिनी रस्म अदायगी आयोजन से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। आधी आबादी का सच हर बार मुखर होकर सामने उपस्थित हो जाता है। यही कारण है कि किसी स्त्री की चीख घर की चारदीवारी लांघ नहीं पाती, कार्यस्थल पर शोषण के विरुद्ध उठा स्वर दीवारों से टकरा-टकरा कर मौन हो जाता है। समाज में एक बड़े आमूलचूल परिवर्तन को देखने के लिए समय खिड़की से झांक रहा है। जिस समाज में लड़की और महिलाएं निर्भय होकर स्वतंत्रता के साथ जीवन यापन न कर सकें, क्या हम उस समाज को मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों से युक्त कह सकते हैं। क्या यह सवाल समाज को कभी उद्वेलित करेगा कि एक महिला अपने जरूरी काम के लिए बिना किसी पुरुष की सहायता लिए स्वयं पहल कर सके, किसी भी समय आवाजाही कर सके। कहना न होगा कि एक कामकाजी महिला रोज समाज के बनाई दकियानूसी मान्यताओं, परंपराओं और संहिताओं जूझते अपनी पहचान का निर्माण करती है। पुरुष सत्तात्मक समाज यह कभी स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि कोई महिला युगों से उसके लिए आरक्षित क्षेत्र में दाखिल होने के लिए चुनौती के रूप में खड़ी हो। इसीलिए जब कोई आत्मविश्वासी कर्मठ महिला ऐसे क्षेत्र में प्रवेश के लिए अपना कदम बढ़ा दस्तक देती है तो उस पर एक साथ हजार सवालों के तीरों की बौछार कर आरोप जड़ दिया जाता है कि यह काम महिलाओं के बस का नहीं है। वे यह भूल जाते हैं कि महिलाओं ने कभी युद्ध में सारथी बनकर अपने सम्राट पति की प्राण रक्षा की है तो कभी यमराज से टक्कर ले उसे सवालों से अनुत्तरित कर निष्प्राण देह में प्राण फूंके हैं। कभी ऋचाओं का उच्च स्वर में उद्घोष कर वैदिक साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है तो कभी ब्रह्म, माया और प्रकृति के संबंधों पर संवाद को गति दी है। कभी दो विद्वान पुरुषों के शास्त्रार्थ में निर्णायक बन स्त्री महत्ता के दर्शन कराएं तो कभी पींठ में पुत्र को बांध समरांगण में कूद शत्रुओं के दांत खट्टे किए हैं। कभी सुव्यवस्थित राज्य संचालन कर राजनीति के फलक पर आभा बिखेरी है तो कभी शिक्षा एवं सेवा-साधना के द्वारा समाज रचना में अपनी आहुति दी है। वर्तमान समय की पुस्तक के पृष्ठ भी महिलाओं की जिजीविषा, तेजस्विता, बुद्धिमत्ता एवं कर्मठता से जगमगा रहे हैं। आज वह अंतरिक्ष यात्री बन धरती का चक्कर लगा रही है तो अंटार्कटिका अभियानों का हिस्सा बन नवीन शोधों में सहायक सिद्ध हुई है। अथाह जल राशि संपन्न सिंधु के वक्षस्थल पर अपनी बुद्धि एवं चातुर्य के प्रतीक हस्ताक्षर अंकित किए हैं तो फाइटर प्लेन उड़ा कर शत्रुओं के दिल दहला दिए। खेलों में स्वर्ण में निशाना साध प्रथम पायदान पर खड़ी हुई है तो कोर्ट कचहरी में अकाट्य साक्ष्यों से न्याय की देवी की आराधना की है। ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां वह पहुंची नहीं, जिसके शीर्ष पर उसके पदचिह्न अंकित न हुए हों। उसके वंदन में विशाल गिरि शिखरों ने पुष्प अर्पित किये हैं तो सागर पाद प्रक्षालन कर गौरवान्वित हुआ है।
महिला दिवस मनाने की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जबकि महिलाओं के अस्तित्व को स्वीकृति और पहचान मिले। उन्हें अपनी तरह से जीने की स्वतंत्रता और आकाश मिले। उन्हें किसी एक दिन में न समेट कर हर दिन उनके प्रति श्रद्धा, सम्मान और गौरव का हो। उन्हें स्वाभिमान और सामर्थ्य के साथ आगे बढ़ने के बनाये अवसरों एवं राह में हम बाधक बन सतत प्रवाह को रोके नहीं। इसके लिए जरूरी है कि पुरुषवादी सोच से उबर हर परिवार में महिला को महत्व एवं सम्मान मिले और पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान में उसकी राय ली जाये, उसके निर्णयों को स्वीकार किया जाये। वह आत्म निर्भर हो, इसके लिए व्यावसायिक शिक्षा का विस्तार हो और बच्चों को शुरू से ही लैंगिक जागरूकता के साथ परस्पर इंसान के रूप में व्यवहार करने की प्रवृत्ति विकसित की जाये। तब हर दिन महिला दिवस होगा, यही हर सवाल का जवाब है, यही शुभकामना है।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."