मोहन द्विवेदी
“विद्याहीन मनुष्य बिना पूंछ व सींग के पशु समान है।”
यह पुरातन कथन आज भी शिक्षा के महत्व को उतनी ही प्रासंगिकता के साथ दोहराता है। भारत, जो कभी समूचे विश्व का ज्ञान-केन्द्र रहा, वहां की शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से सुधार की प्रतीक्षा में थी। अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति ने भारतीय जड़ों से कटकर ऐसी प्रणाली को जन्म दिया, जो न तो व्यवहारिक थी और न ही संतुलित। परंतु अब, शिक्षा के नवयुग का आगमन हो चुका है—नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP-2020) के साथ।
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देर से सही, पर सही दिशा में कदम
एक लंबे अंतराल के बाद, केंद्र सरकार ने शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव करते हुए इस नीति को अंगीकार किया है। दशकों से जिस सुधार की मांग की जा रही थी, वह अब अमल में लाई जा रही है। यह परिवर्तन केवल नीतिगत नहीं है, बल्कि दृष्टिकोण का भी पुनर्निर्माण है। अब शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि व्यवहारिकता, कौशल और सृजनात्मकता को प्राथमिकता दी जाएगी।
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मैकाले की छाया से मुक्ति: नई संरचना 5+3+3+4
ब्रिटिश काल की 10+2 प्रणाली को अब अलविदा कहा जा चुका है। उसके स्थान पर 5+3+3+4 की नवीन संरचना लागू की गई है। इस संरचना का उद्देश्य बच्चों की आयु-उपयुक्त विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम और शिक्षण-पद्धति का निर्माण करना है।
- प्रारंभिक अवस्था (3-8 वर्ष): सोचने, सीखने और समझने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए लचीला पाठ्यक्रम।
- मूलभूत अवस्था (8-11 वर्ष): भाषायी दक्षता और संख्यात्मक समझ को मज़बूती।
- माध्यमिक अवस्था (11-14 वर्ष): विश्लेषण, तार्किक चिंतन और अभिव्यक्ति पर ज़ोर।
- माध्यमिक-उत्तर अवस्था (14-18 वर्ष): स्वयं की रुचियों के अनुसार विषयों के चयन की स्वतंत्रता।
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भाषा का सम्मान और बोझ से मुक्ति
जहां पहले अंग्रेजी को एक माध्यम के रूप में थोपा गया था, वहीं अब नई नीति स्थानीय भाषाओं में शिक्षा को प्राथमिकता देती है। इससे न केवल विद्यार्थियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि वे अपनी संस्कृति से भी जुड़ाव महसूस करेंगे। अंग्रेजी अब एक विषय होगा, न कि शिक्षा का माध्यम।
साथ ही, दसवीं की बोर्ड परीक्षा हटाकर केवल बारहवीं में बोर्ड परीक्षा का प्रावधान किया गया है। कक्षा 9 से 12 तक सेमेस्टर सिस्टम लागू होगा, जिससे परीक्षा का मानसिक दबाव कम होगा और निरंतर मूल्यांकन पर ज़ोर रहेगा।
व्यावहारिक शिक्षा: नीति से क्रियान्वयन की ओर
शिक्षा का अर्थ केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होना चाहिए। जीवन के लिए उपयोगी और व्यवहारिक शिक्षा आज की आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति में व्यावसायिक (Vocational) शिक्षा को बढ़ावा देने की बात तो की गई है, परंतु आवश्यकता इस बात की है कि यह ज़मीनी स्तर पर प्रभावशाली रूप से लागू हो।
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आज हमारे देश के छात्र कठिन गणनाएं और परिभाषाएं तो रट लेते हैं, लेकिन जीवन कौशलों—जैसे वित्तीय साक्षरता, संवाद-कला, रोजगार-प्रशिक्षण और टीमवर्क में पिछड़ जाते हैं। नई नीति यदि इन बातों पर गंभीरता से अमल करती है, तो यह भविष्य की पीढ़ियों को आत्मनिर्भर बनाएगी।
उच्च शिक्षा: बहुआयामी और लचीली
नई नीति केवल स्कूली शिक्षा तक सीमित नहीं है। उच्च शिक्षा में भी अभूतपूर्व बदलाव लाए गए हैं। स्नातक पाठ्यक्रम अब 3 या 4 वर्षों का होगा, जिसमें मल्टी एंट्री और एग्जिट सिस्टम शामिल किया गया है। यानी छात्र यदि बीच में पढ़ाई छोड़ते हैं, तो भी उन्हें डिप्लोमा या सर्टिफिकेट मिल सकेगा, और वे भविष्य में वहीं से पुनः पढ़ाई शुरू कर सकते हैं।
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एमफिल जैसे अप्रासंगिक पाठ्यक्रम को हटाकर, अब सीधे पीएचडी की ओर मार्ग प्रशस्त किया गया है। इससे शोध को गंभीरता और व्यापकता मिलेगी।
ग्रामीण भारत की शिक्षा में आशा की किरण
नई नीति में विशेष प्रावधान ग्रामीण क्षेत्रों और वंचित समुदायों को ध्यान में रखकर किए गए हैं। स्थानीय भाषा में शिक्षा, बुनियादी ढांचे का विकास, डिजिटल लर्निंग और शिक्षक प्रशिक्षण जैसे बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। इससे दूरदराज़ क्षेत्रों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की पहुंच संभव हो सकेगी।
इतिहास और अध्ययन सामग्री का पुनरावलोकन आवश्यक
नीति बदलाव के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि शैक्षणिक सामग्री और पाठ्यक्रम भी निष्पक्ष और यथार्थपरक हों। इतिहास को जिस तरह तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, उससे विद्यार्थियों को अपने गौरवशाली अतीत की वास्तविक जानकारी नहीं मिलती। शिक्षा में निष्पक्षता, सच्चाई और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक है।
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परिवर्तन की दिशा में ऐतिहासिक कदम
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, भारत के लिए एक क्रांतिकारी और दूरदर्शी पहल है। यह न केवल विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास में सहायक सिद्ध होगी, बल्कि राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का आधार भी बनेगी। बशर्ते इसका सच्ची नीयत और प्रभावी क्रियान्वयन किया जाए।
भारत, जो कभी विश्वगुरु था, वह फिर से शिक्षा के क्षेत्र में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। लेकिन इसके लिए नीति नहीं, दृढ़ संकल्प और सतत प्रयास की आवश्यकता है। तभी हम एक शिक्षित, सशक्त और आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना को साकार कर सकेंगे।