मोहन द्विवेदी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी प्रभावशाली रही मायावती और उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अब एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जहां उनका जनाधार तेजी से खत्म होता दिख रहा है। हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश उपचुनावों में बसपा का प्रदर्शन बेहद खराब रहा, जिसने मायावती की नेतृत्व क्षमता और पार्टी की भविष्य की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
यूपी उपचुनाव में बसपा का प्रदर्शन
बसपा ने उपचुनाव में सभी 9 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन परिणाम बेहद निराशाजनक रहे।
सात सीटों पर जमानत जब्त: इनमें से सात सीटों पर बसपा के उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके।
कुल वोट: सभी नौ सीटों पर पार्टी को सिर्फ 1,32,929 वोट मिले। यह आंकड़ा दिखाता है कि बसपा का प्रभाव उत्तर प्रदेश में कितना सिमट चुका है।
वोट प्रतिशत: कई सीटों पर बसपा को 1,000 से भी कम वोट मिले, जो यह दर्शाता है कि पार्टी का परंपरागत दलित वोट बैंक भी उससे खिसक रहा है।
बसपा के पतन के कारण ; गठनात्मक कमजोरी
मायावती की एकछत्र नेतृत्व वाली बसपा में संगठनात्मक कमजोरी सबसे बड़ा कारण है। पार्टी में निचले स्तर पर नेतृत्व और कार्यकर्ता सक्रियता की कमी है। मायावती की सत्तावादी शैली के कारण पार्टी के कई वरिष्ठ नेता और कैडर या तो अन्य दलों में चले गए या निष्क्रिय हो गए।
दलित वोट बैंक का खिसकना
बसपा का मूल आधार दलित वोट बैंक रहा है, लेकिन यह वर्ग अब भाजपा और सपा जैसे अन्य दलों की ओर रुख कर चुका है। भाजपा ने दलित वर्ग के बीच गहरी पैठ बना ली है, जबकि सपा ने भी अंबेडकरवादी राजनीति को अपनाने का प्रयास किया है।
गठबंधन राजनीति से दूरी
मायावती ने पिछले कुछ वर्षों में किसी भी बड़े राजनीतिक गठबंधन से खुद को दूर रखा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन का अनुभव असफल रहने के बाद उन्होंने किसी भी अन्य दल के साथ गठजोड़ नहीं किया। इसने उनकी पार्टी को अलग-थलग कर दिया।
नई पीढ़ी का आकर्षण खत्म होना
बसपा का वैचारिक एजेंडा और रणनीति युवा मतदाताओं को आकर्षित करने में विफल रही है। सोशल मीडिया और डिजिटल प्रचार के युग में बसपा की निष्क्रियता पार्टी को और पीछे धकेल रही है।
भविष्य की चुनौतियां और संभावनाएं ; नेतृत्व पर सवाल
मायावती का एकछत्र नेतृत्व पार्टी के लिए अब बाधा बनता दिख रहा है। पार्टी में दूसरे स्तर के नेताओं का अभाव है, जो किसी संकट के समय नेतृत्व कर सकें। पार्टी को यदि पुनर्जीवित करना है, तो नेतृत्व में बदलाव या सामूहिक नेतृत्व की रणनीति अपनानी होगी।
गठबंधन की संभावनाएं
अगर बसपा को अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बचानी है, तो उसे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों के साथ गठबंधन की रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा। विपक्षी दलों के साथ हाथ मिलाने से पार्टी को नई ऊर्जा और समर्थन मिल सकता है।
दलितों का भरोसा फिर से हासिल करना
बसपा को अपने मूल दलित वोट बैंक को दोबारा जीतने के लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा। इसके लिए दलित समुदाय के मुद्दों को लेकर मुखर होना और उनके लिए ठोस योजनाएं बनाना जरूरी होगा।
नई रणनीति की जरूरत
पार्टी को अपनी पुरानी रणनीतियों से बाहर निकलकर नए तरीकों को अपनाना होगा। सोशल मीडिया, युवा वर्ग और महिला मतदाताओं तक पहुंचने के लिए एक व्यापक प्रचार अभियान चलाना चाहिए।
राजनीतिक प्रासंगिकता का सवाल
2024 के लोकसभा चुनाव और हालिया उपचुनावों में पार्टी का खाता भी न खुलना यह दिखाता है कि मायावती की राजनीतिक प्रासंगिकता तेजी से खत्म हो रही है। उत्तर प्रदेश में बसपा के पास अब केवल एक विधायक बचा है, जबकि लोकसभा और विधान परिषद में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है। राज्यसभा में भी बसपा की केवल एक सीट रह गई है।
मायावती और बसपा की मौजूदा स्थिति यह स्पष्ट करती है कि पार्टी को अपनी राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए बड़े और साहसिक फैसले लेने की जरूरत है। गठबंधन की रणनीति अपनाना, संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करना और दलितों का भरोसा दोबारा हासिल करना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। मायावती के लिए यह समय introspection और नए दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने का है, अन्यथा यूपी की राजनीति में बसपा का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।