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करबला की शहादत: सच्चे इस्लाम और आतंक के खिलाफ हज़रत हुसैन की कुर्बानी

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नौशाद अली की रिपोर्ट

इन दिनों पूरे विश्व में इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने, यानी माह-ए-मुहर्रम के दौरान इस्लामी इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण शहादत को याद किया जा रहा है। लगभग 1450 वर्ष पूर्व, 10 अक्टूबर 680 (इस्लामी कैलेंडर के अनुसार 10 मुहर्रम 61 हिजरी) को इराक़ के करबला क्षेत्र में यज़ीद इब्ने मुआविया ने पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके पूरे परिवार को क़त्ल करने का आदेश अपनी लाखों की सेना को दिया था। 

इमाम हुसैन ने अपने 72 परिजनों और सहयोगियों के साथ 10 मुहर्रम को करबला में तीन दिनों तक भूखे-प्यासे रहते हुए अपनी और अपने परिवार के कई लोगों की शहादत देकर यह साबित किया कि हज़रत मुहम्मद के परिजनों और इस्लाम के वास्तविक वारिसों द्वारा अहंकारी, अधर्मी, अय्याश और क्रूर शासक को इस्लामी साम्राज्य के शासक के रूप में कभी मान्यता नहीं दी जा सकती।

करबला के मैदान में हज़रत इमाम हुसैन ने अपने छह महीने के मासूम बच्चे अली असग़र, जवान बेटे अली अकबर और भाई अब्बास जैसे 72 साथियों को अधर्म के विरुद्ध जिहाद बोलते हुए क़ुर्बान किया। 

इन शहादतों की कोई दूसरी मिसाल नहीं है। दूसरी तरफ, यज़ीद और उसकी सेना द्वारा करबला में क्रूरता का ऐसा इतिहास रचा गया जिसकी दूसरी मिसाल पूरी पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलती। यही वजह है कि दास्तान-ए-करबला को ग़लत (बातिल) के विरुद्ध सत्य (हक़) के संघर्ष और अन्याय और झूठ के खिलाफ़ न्याय और सत्य के बलिदान के प्रतीक के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा। 

करबला में इमाम हुसैन ने अपनी क़ुर्बानी देकर पूरे विश्व के सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इसी कारण आज पूरी पृथ्वी पर हज़रत हुसैन के चाहने वाले और उनका ग़म मनाने वाले मिल जाते हैं।

आज इस्लाम को बदनाम करने और इस पर आतंकवाद का लेबल लगाने की विश्वव्यापी कोशिशें की जा रही हैं। ऐसे में इस बात पर चर्चा होना जरूरी है कि इस्लाम का वास्तविक संरक्षक और मार्गदर्शक कौन है? क्या सिर पर इस्लामी टोपी पहनने, क़ुरआन की आयतें पढ़ने, हाफ़िज़ और क़ारी बनने, मुफ़्ती और मौलवी कहलाने, अज़ान, नमाज़, रोज़े अदा करने, कलमा पढ़ने, हज, ज़कात अदा करने आदि के आधार पर किसी को सच्चा मुसलमान कहा जा सकता है? 

यदि मुसलमान होने के लिए ये दलीलें काफी हैं, तो करबला में यज़ीदी सेना के सिपाही और अधिकारी भी उस समय के नमाज़ी, क़ारी, कल्मागो, हाजी, हाफ़िज़ और रोज़ेदार थे। यदि यही बातें किसी को सच्चा मुसलमान बनाती हैं, तो अलक़ायदा में भी सभी लंबी दाढ़ी रखने वाले नमाज़ी और हाजी, हाफ़िज़ क़ारी मिलेंगे। आईएसआईएस में भी ऐसे ही ‘वेशधारी’ मुसलमान मिल जायेंगे। 

फिर तो क्रूर तालिबानियों को भी सच्चा मुसलमान कहना सही होगा? पाकिस्तान से लेकर भारत और बांग्लादेश तथा अन्य कई देशों में ऐसे ही संगठनों द्वारा इस्लाम और मुसलमान के नाम पर किए जा रहे आतंकी हमलों को भी क्या इस्लामी शिक्षा से प्रेरित कहा जा सकता है? जैसा कि वैश्विक स्तर पर प्रयास भी किया जा रहा है?

जी नहीं, यज़ीद से लेकर अलक़ायदा, आईएसआईएस और तालिबान जैसे अनेक आतंकी संगठन सभी लगभग एक ही विचारधारा से प्रेरित हैं। ये इस्लाम और मुसलमानों का नाम केवल इसलिए लेते हैं ताकि इस्लामी जगत को धोखे में रखकर उनका नैतिक समर्थन हासिल कर सकें। 

इनका वजूद पूर्णतया राजनैतिक मक़सदों को हासिल करने के लिए है। इन्हें सत्ता चाहिए और सत्ता का विस्तार चाहिए। 

करबला में हज़रत हुसैन ने अपने समय के सर्वशक्तिशाली, चरित्रहीन सीरियाई शासक यज़ीद को इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने और उसे इस्लामी शासक स्वीकार करने से इसलिए इनकार कर दिया था ताकि इतिहास इस बात का गवाह रहे कि हज़रत मुहम्मद के इस्लामी सिद्धांत किसी दुश्चरित्र, अपवित्र, अहंकारी और ज़ालिम बादशाह को इस्लामी सल्तनत का बादशाह स्वीकार करने की कतई इजाज़त नहीं देते। 

इसीलिए हज़रत हुसैन ने इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए यज़ीदी आतंक और यज़ीदी विचारधारा के विरुद्ध जिहाद किया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपने पूरे परिवार की क़ुर्बानी देनी पड़ी थी।

आज भी दुनिया के कई देश आतंकी संगठनों की गिरफ़्त में हैं या वहां ऐसी ही विचारधाराओं के लोग सत्ता में हैं। और जो भी व्यक्ति या संगठन इन्हें बेनक़ाब करता है, जो भी इनके ‘यज़ीदी कनेक्शन’ को सार्वजनिक करता है, ये उनकी जान के दुश्मन बन जाते हैं। 

ये मस्जिदों, दरगाहों, ईमामबारगाहों, जुलूस और मीलाद पर हमले करते हैं, मस्जिदों में और मुहर्रम के जुलूसों में आत्मघाती हमले करते हैं। ये सभी अमानवीय गतिविधियां यज़ीदी विचारधारा को पोषित करने वाले संगठनों और उनसे जुड़े लोगों के काम हैं। 

चूंकि ये लोग अपनी सभी अमानवीय गतिविधियां इस्लाम का नाम लेकर और हाथों में इस्लामी कलमा लिखा झंडा लेकर अंजाम देते हैं, इसलिए पारंपरिक रूप से इस्लाम विरोधी पूर्वाग्रह रखने वाला विश्व का एक बड़ा वर्ग इसे इस्लामी शिक्षा और समग्र मुस्लिम कृत्य के रूप में पेश करता है।

दरअसल असली जिहाद तो करबला में हज़रत हुसैन ने उन्हीं ज़ालिम ताक़तों के विरुद्ध किया था, जो इस्लामी चोले में छुपकर इस्लाम पर नियंत्रण हासिल करना चाह रहे थे। 

परंतु हुसैन ने अपनी अज़ीम क़ुर्बानी देकर दुनिया को यह बता दिया कि असली इस्लाम बादशाहों, तानाशाहों और शासकों का नहीं बल्कि हज़रत मुहम्मद के घराने वालों का है। 

आज भी जो इस्लाम सल्तनत की सियासत में उलझा है, वह दरअसल इस्लाम नहीं है। असली इस्लाम तो पैग़ंबरों, रसूल, इमामों, फ़क़ीरों, सूफ़ियों, त्यागियों, तपस्वियों और वास्तविक अध्यात्मवादियों द्वारा पोषित है। 

ग़ज़नवी से लेकर सद्दाम, लादेन, मुल्ला उमर और ग़द्दाफ़ी तक, ऐसे अनेक आतंकी, आक्रांता और तानाशाहों ने धर्म के नाम का दुरुपयोग केवल अपनी सत्ता को बचाने या विस्तार के लिए किया है। जबकि वास्तविक इस्लाम करुणा, प्रेम, भाईचारा, शांति, अहिंसा और सद्भाव का संदेश देता है। हज़रत मुहम्मद के इसी सच्चे इस्लाम की रक्षा के लिए उनके नवासे हज़रत हुसैन ने करबला में 72 लोगों की शहादत देकर आतंक के विरुद्ध जिहाद की सबसे बड़ी मिसाल पेश की थी।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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