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पेशे से तवायफ और खूबसूरती बला की… जब उतरी चुनावी मैदान में तो मुकाबले को कोई तैयार नहीं…

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चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट

लखनऊ: अपने खास मिजाज की नुमाइंदगी के लिए जो शहर जाना जाता हो, वहां की फिजाओं में सियासत भी उसी अदब और तहजीब से होती है। चीखने-चिल्लाने वाले सियासतदानों से अलग शालीनता और संयम का लहजा जब चुनावी दौर में दिखे तो नारे भी खास हो जाते हैं। तभी तो चुनाव मैदान में जब शहर की सबसे खूबसूरत तवायफ ने कदम बढ़ाया तो उसके चाहने वाले दीवानों ने वोट क्या अपनी जान तक देने की बातें कर दी। ऐसे में विरोधी का होश उड़ जाना लाजमी ही होगा। तो नारे लगे ‘दिल दीजिये दिलरुबा को, वोट दीजिये शम्सुद्दीन को’। 

लोकसभा चुनाव प्रचार के आबोहवा के बीच ऐसा ही एक किस्सा है दिलरुबा का। वही दिलरुबा जो पैरों में घुंघुरू बांधकर नाचती तो शहर के सारे सफेदपोश मदहोश हो जाते हैं। जिसके कोठे पर शहर के सारे दौलतमंदों की कतार लगी रहती, जिसकी एक झलक पाने को सोने की गिन्नियां लुटाने वालों में होड़ लगी रहती।

वही सबसे खूबसूरत तवायफ अब वोट मांगने को चेहरे को बेपर्दा किए गलियों में घूमने लगी। यह किस्सा लखनऊ के अंदाज को बयां करता है। इसमें लखनवी अदब का रंग भी रहा और सियासी शालीनता भी। 

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देश भर में इन दिनों लोकसभा चुनाव का खुमार छाया हुआ है। चार फेज की वोटिंग हो चुकी है। पांचवां चरण 20 मई को होना है। इसमें यूपी की 14 लोकसभा सीटों पर वोट पड़ेंगे। लखनऊ सीट भी इनमें से एक है। मतदान से पहले आइए हम आपको लखनऊ के चुनावों से जुड़ा एक पुराना किस्‍सा सुनाते हैं। 

ब्रिटिश हुकूमत में तहजीब का शहर रहा लखनऊ तवायफों और कोठों के लिए भी मशहूर था। चौक इलाके में एक तवायफ रहती थीं। नाम था दिलरुबा जान।

उनकी खूबसूरती के चर्चे पूरे लखनऊ ही नहीं, आसपास के शहरों में भी थे। दिलरुबा जान को पता नहीं कैसे राजनीति में आने का चस्‍का लग गया। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो गया।

लखनऊ के मशहूर इतिहासकार योगेश प्रवीण ने अपनी पुस्‍तक ‘तवायफ’ में दिलरुबा जान का किस्‍सा विस्‍तार से बताया है। दरअसल 1920 में लखनऊ में नगर पालिका का चुनाव हो रहा था। दिलरुबा जान ने भी चुनाव में उतरने का फैसला ले लिया। जब वह प्रचार करने निकलती थीं तो उन्‍हें देखने के लिए सैकड़ों की भीड़ जुट जाती थी।

उनकी सभाओं में इतने लोग आने लगे कि विपक्षी उम्‍मीदवारों का हालत खराब हो गई। हालत यह हो गई कि दिलरुबा जान की लोकप्रियता देखते हुए कोई उनके खिलाफ लड़ने को तैयार ही नहीं हुआ।

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चौके के पास अकबरी गेट इलाके में एक हकीम शमशुद्दीन रहते थे। दोस्‍तों ने उन पर चुनाव लड़ने का दबाव बनाया। दोस्‍तों के कहने पर हकीम दिलरुबा जान के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने को तैयार हो गए।

हकीम जब चुनाव प्रचार को निकलते तो उनके साथ चुनिंदा लोग ही रहा करते थे। हकीम ने शहर की दीवारों पर नारे लिखवाए थे- ‘है हिदायत लखनऊ के तमाम वोटर-ए-शौकीन को, दिल दीजिए दिलरुबा को, वोट शमसुद्दीन को’

‘चौक में आशिक कम और मरीज ज्यादा हैं’

जब दिलरुबा जान को हकीम साहब के इस नारे के बारे में पता चला तो उन्‍होंने भी पलटवार किया।

उन्‍होंने पुरानी लखनऊ की तमाम दीवारों पर नारा लिखवाया- ‘है हिदायत लखनऊ के तमाम वोटर-ए-शौकीन को, वोट देना दिलरुबा को, नब्ज शमसुद्दीन को’।

खैर, नगर निकाय चुनाव का जब रिजल्‍ट आया तो लोगों को यकीन ही नहीं हुआ। हकीम शमशुद्दीन ने दिलरुबा जान को हरा दिया था। दिलरुबा जान की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ वोट में तब्‍दील न हो सकी।

कुछ साल पहले इतिहासकार योगेश प्रवीण ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि इस हार से दिलरुबा जान बहुत उदास हो गईं । हकीम की जीत के बाद उन्‍होंने कहा था – ‘चौक में आशिक कम और मरीज ज्यादा हैं।’

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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