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November 23, 2024 3:29 am

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1.5 लाख दिलवाले और 18 करोड़ का इंजेक्शन…. खबर पढ़कर आप खुद कहेंगे…इसलिए दुनिया खूबसूरत है…

10 पाठकों ने अब तक पढा

चुन्नीलाल प्रधान और जयप्रकाश की रिपोर्ट 

कल्पना कीजिए, उस शख्स पर उस वक्त क्या गुजरती होगी जब डॉक्टर बताएं कि उसके बच्चे या परिजन को दुर्लभ बीमारी (What is rare disease) है या बीमारी लाइलाज है। उस वक्त इंसान कितना निरीह और बेबस महसूस करता होगा। धरती फट जाए और उसमें समा जाएं।

आंखों के सामने बच्चा पल-पल मौत के करीब जाता दिखे और मां-बाप लाचार हों। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। अभी हाल में गाजियाबाद का एक दिल दहला देने वाला वीडियो वायरल (Ghaziabad dog bite death viral video) हुआ था। एक 14 साल का बच्चा ऐम्बुलेंस में पिता की गोद में तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता है। बच्चे को कुछ दिनों पहले कुत्ते ने काटा था। परिवारवालों को ये बात तब पता चली जब रेबीज संक्रमण बच्चे के दिमाग तक पहुंच गया। परिजनों ने अस्पतालों के चक्कर लगाए। दिल्ली एम्स के डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए कि अब कुछ नहीं हो सकता। संक्रमण अब लाइलाज हो चुका है।

कल्पना कीजिए लाइलाज शब्द सुनकर, अब कुछ नहीं हो सकता सुनकर याकूब के दिल पर क्या गुजरी होगी। आखिरकार 14 साल का बेटा तड़प तड़पकर उनकी गोद में दम तोड़ दिया। रेबीज लाइलाज नहीं है, बशर्ते कि समय रहते उसका इंजेक्शन लग जाए।

ऐसा ही सुन्न कर देने वाला शब्द है दुर्लभ बीमारी (Rare Diseases)। ऐसी बीमारियां जिनका इलाज भी दुर्लभ है। इस तरह की कई बीमारियों में तो इलाज इतना महंगा कि परिजन लाचार हो जाते हैं और तिल-तिलकर किसी अपने को धीरे-धीरे मौत की आगोश में जाते देखने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

दिल्ली के डेढ़ साल के मासूम कनव जांगड़ा (Kanav Jangra 17.5 cr injection) को ऐसी ही दुर्लभ बीमारी थी। उसके बचने का एक ही रास्ता था- दुर्लभ इंजेक्शन जो भारत में कहीं मौजूद भी नहीं था। अमेरिका से मंगाना पड़ता और उस इंजेक्शन की कीमत थी 17.5 करोड़ रुपये। लेकिन पिता ने हार नहीं मानी। क्राउड फंडिग (Save Kanav Jangra campaign) का सहारा लिया। देखते ही देखते डेढ़ लाख लोग मदद को आगे आए और कनव को जिंदगी मिल गई।

7 महीने का था कनव जब स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी का पता चला

कनव जब सिर्फ 7 महीने का था तब पता चला कि उसे स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी (SMA) टाइप-1 नाम की दुर्लभ अनुवांशिक बीमारी है। ऐसी बीमारी जिससे पीड़ित बच्चे शायद ही कभी 2 साल से ज्यादा उम्र तक जिंदा रह पाते हैं। वो खुद से उठ-बैठ नहीं पाते, चलना तो बहुत दूर की बात है। यहां तक कि उन्हें खाना खाने और सांस लेने में भी दिक्कत होती है। कनव की जान एक इंजेक्शन के सिंगल डोज से बच सकती थी। लेकिन Zolgensma नाम के उस इंजेक्शन की कीमत 17.5 करोड़ है। एक सामान्य मिडल क्लास परिवार के लिए 17.5 करोड़ रुपये की व्यवस्था करना कहां संभव है? लेकिन कनव के पिता अमित जांगड़ा ने हार नहीं मानी। उन्होंने ऑनलाइन क्राउडफंडिंग अभियान शुरू किया जो वायरल हो गया। मदद के लिए तमाम लोग आगे आने लगे। दिल्ली सरकार और बॉलीवुड की कुछ हस्तियों ने भी मदद के लिए हाथ बढ़ाया और लोगों से कनव की जान बचाने के लिए मदद की अपील की। सोनू सूद, राजपाल यादव, फराह खान, विद्या बालन, शक्ति कपूर और कपिल शर्मा जैसी बॉलिवुड हस्तियों ने सोशल मीडिया पर लोगों से अपील की कि वे मासूम के इलाज के लिए मदद करें। कई पॉलिटिशियन भी मदद के लिए आगे आए। इसका असर हुआ और देखते ही देखते, आम लोगों ने असंभव को संभव बना दिया। और अच्छी बात ये हुई कि इंजेक्शन बनाने वाली अमेरिकी कंपनी भी दवा को 17.5 करोड़ रुपये के बजाय 10.5 करोड़ रुपये में देने को तैयार हो गई। केंद्र सरकार की तरफ से इंजेक्शन के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगा। आखिरकार अमेरिका से इंजेक्शन आया। 13 जुलाई को कनव को इंजेक्शन लगा और उसे एक ‘नई जिंदगी’ मिल गई। अब डेढ़ महीने बाद मासूम अपने पैरों को फिर से हिला-डुला पाने और बैठने में सक्षम है। दिलवालों की ये दरियादिली बताती है कि दुनिया को ऐसे ही खूबसूरत होनी चाहिए। जीवन में किसी को जिंदगी देने से बड़ा काम कुछ हो भी नहीं सकता। कतरा-करता समंदर बनता है उसी तरह हजारों दिलवालों की पाई-पाई देखते ही देखते, करोड़ों बन गया और जिंदगी फिर मुस्कुराने लगी।

क्यों इतनी ज्यादा होती हैं दुर्लभ बीमारियों की दवाओं की कीमत?

दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए आम लोगों के ऐसे ही समर्थन और सहयोग की जरूरत है। आपका छोटा सा प्रयास किसी को जिंदगी बख्श सकता है, किसी की दुनिया उजड़ने से बचा सकता है। आखिर दुर्लभ बीमारियां क्या हैं, किसे कहते हैं और इनका इलाज इतना महंगा क्यों है? जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि दुर्लभ बीमारियां यानी वो बीमारियां जो दुर्लभ हों, जो बहुत कम दिखती हों। अलग-अलग देशों में इसे तय करने के पैमाने अलग हैं। वैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन उन बीमारियों को दुर्लभ मानने की सिफारिश करता है जो 10000 की आबादी में 10 से ज्यादा लोगों को नहीं होता हो। अमेरिका में ये संख्या 10 हजार आबादी पर 6.4, यूरोप में 5, जापान में 4 ऑस्ट्रेलिया में 1 है। दुर्लभ बीमारियों का इलाज भी आसानी से उपलब्ध नहीं है। मशहूर मेडिकल जर्नल लैंसेट की एक स्टडी के मुताबिक लगभग 95 प्रतिशत दुर्लभ बीमारियों का कोई स्वीकृत उपचार नहीं है। इलाज महंगा होने की बड़ी वजह ये है कि दुर्लभ बीमारियों से पीड़ितों की संख्या भी कम होती है यानी दवा कंपनियों के लिए ये कोई बड़ा मार्केट नहीं है। यही वजह है कि दुर्लभ बीमारियों को ‘अनाथ बीमारी’ भी कहा जाता है और उनके इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं को ‘अनाथ दवाएं’। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए रिसर्च और दवा तैयार करने पर जो खर्च आता है, उसकी भरपाई के लिए कंपनियां इनकी कीमतें काफी ऊंची रखती हैं।

राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति 2021

  • दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए भारत में बाकायदे नीति बनी है लेकिन सरकार के स्तर पर किए जा रहे प्रयास नाकाफी ही साबित हो रहे। नीतियां भले ही बन जाएं लेकिन उसका व्यापक प्रचार-प्रचार न हो, उसे लेकर जागरूकता न हो, पीड़ितों को इसके बारे में जानकारी न हो तो नीति कारगर नहीं हो सकती। वैसे दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार का जोर भी क्राउडफंडिंग पर ही है। मार्च 2021 में सरकार ने ‘नैशनल पॉलिसी फॉर रेयर डिसीजेज 2021’ जारी की। इसके तहत दुर्लभ बीमारियों को 3 श्रेणियों में बांट गया है- ग्रुप 1, ग्रुप 2 और ग्रुप 3।

ग्रुप 1 में उन दुर्लभ बीमारियों को रखा गया है जो एक बार के इलाज में ठीक हो जाती हैं। ग्रुप 2 में वो बीमारियां हैं जिनका इलाजा लंबा चलता है या जीवनभर चलता है। इनका इलाज बहुत ज्यादा महंगा भी नहीं होता। ग्रुप 3 में वो बीमारियां हैं जिनका निश्चित इलाज तो उपलब्ध है लेकिन उसका खर्च बहुत ही ज्यादा है और जीवनभर इलाज चलता है। भारत सरकार दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए 50 लाख रुपये तक की आर्थिक मदद देती है। इनके इलाज के लिए सेंटर ऑफ एक्सीलेंस तय किए गए हैं। आर्थिक सहायता पाने के लिए मरीज को नजदीकी सेंटर ऑफ एक्सीलेंस में जाना होगा। इसके अलावा अनुवांशिक यानी जेनेटिक बीमारियों से जुड़े टेस्ट और काउंसलिंग सर्विस के लिए देशभर में 5 निदान केंद्र भी बनाए गए हैं। दिक्कत ये है कि दुर्लभ बीमारियों से पीड़ितों का कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। सरकार का जोर भी क्राउड फंडिंग पर ही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके लिए एक पोर्टल भी बनाया है- डिजिटल पोर्टल फॉर क्राउडफंडिंग ऐंड वालंटरी डोनेशंस फॉर पेशेंट्स ऑफ रेयर डिसीजेज। इस पर सैकड़ों लोगों ने, खासकर बच्चों ने रजिस्ट्रेशन कराया है। पिछले साल तक इस पोर्टल पर 574 लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया था।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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