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1 January 2025 8:13 pm

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“हम औरतों को बच्चेदानी निकलवाना होता है ताकि कोई रेप करे तो बच्चा न ठहरे…” एक सच्चाई जो हमारे आमने सामने घूमती रहती है

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टिक्कू आपचे की रिपोर्ट

कुल 14 बरस की थी, जब शादी हुई। पति के साथ गन्ना काटने दक्षिण जाना पड़ा। खाली खेत में टिन की झोपड़ी। दरवाजे की जगह साड़ी का परदा। सूना पाकर ठेकेदार आता और नोंच-खसोट के निकल जाता। हम कुछ नहीं कर पाते थे- मन भरके रोना भी नहीं।

अठमासे पेट के साथ रोज 3 हजार किलो गन्ना ट्रक पर चढ़ाया। लकड़ी की कच्ची सीढ़ी पर चढ़ते हुए जितना पैर कांपते, उससे ज्यादा दिल थरथराता। अब सब झंझट खत्म! 30 साल की उम्र में बच्चेदानी निकलवा दी। न पीरियड होंगे और न बच्चा ठहरने का डर!

मराठी मिली हिंदी में अटक-थमकर अपनी कहानी कहती महानंदा महाराष्ट्र के बीड जिले की हैं। वो बीड, जहां की जमीन अपनी दरारों के लिए पहचानी जाती है। यहां कुएं तो हैं, लेकिन पानी नहीं। खेत हैं, लेकिन किसान नहीं। पथरीली जमीन और कांटेदार पेड़ों से घिरे बीड में इकलौती रसीली चीज है- गन्ना। इलाके में घुसते ही इसकी सरसराहट और मिठास जबान पर घुलने लगती है, लेकिन ठहरिए! इस रस की बहुत बड़ी कीमत यहां की औरतें चुका रही हैं। वे कोख निकलवा रही हैं- ताकि पीरियड्स न आएं- और वजनी गठरी सिर पर लाद वे सरपट सीढ़ी चढ़-उतर सकें।

साल 2019 की गर्मियां बीतने को थीं, जब महाराष्ट्र स्टेट कमीशन की रिपोर्ट ने सनसनी पैदा कर दी। रिपोर्ट बीड जिले की थी, जिसमें बताया गया कि गन्ने के खेत में काम करने वाली औरतें 20-30 साल की उम्र में ही यूट्रस यानी बच्चेदानी निकलवा रही हैं। साल 2016 से अगले तीन सालों में 4 हजार से ज्यादा औरतों बच्चेदानी ऐसे निकलवा डालीं, जैसे गर्मी के मौसम में कोई बाल कटवाता हो।

इनके पास अपनी वजहें हैं। पीरियड्स के दौरान छुट्टी लेने पर पैसे कटते। मजदूरी के लिए दूसरे राज्य जाने पर छेड़छाड़ और रेप आम है। छुटकारा पाने के लिए वे बच्चेदानी ही हटवाने लगीं। बीड के कई इलाके अब बगैर कोख वाली औरतों के गांव कहलाते हैं। 

मार्च की दुपहरी भी ऐसी तपती हुई, मानो मई का महीना हो। सड़क किनारे ठूंठ हुए पेड़। बीच-बीच में कई दुकानें थीं। गन्ना-रस बेचती इन दुकानों पर लिखा था- ‘आमच्याकडे उसाचा ताजा व थंड रस मिलेल’ यानी हमारे यहां गन्ने का ताजा और ठंडा रस मिलता है। गर्मी से पड़पड़ाए होंठों को तर करते हुए हम कासारी बॉर्डर पहुंचे।

यहां सबसे पहली मुलाकात हुई महानंदा से। जैतूनी रंग की साड़ी पर मैचिंग चूड़ियां पहनी इस महिला को देखकर साफ था कि वो हमसे मुलाकात के लिए बाकायदा तैयार होकर आई हैं। खेत में गन्ना ढोते हुए साड़ी पैरों से कसकर लिपटी होती है और हाथों में नामभर की चूड़ियां। 

वे कहती हैं- या तो सज-धजकर रहें या फिर पेट ही भर लें! इंटरव्यू के बीच और आखिर में महानंदा किसी सहेली की तरह गपियाती हैं, लेकिन कैमरा ऑन होते ही उनका लहजा बदल जाता है। बोलते हुए वे लड़खड़ाती हैं और फिर संभलकर बोलती हैं, ऐसे कि दर्द की टीस उन्हें कमजोर न दिखाए।

वो कहती हैं- करीब14 साल की उम्र में शादी हो गई। जिस उम्र में लड़कियां गुड्डे-गुड़िया खेलती हैं, मैं घर संभालने लगी। जमीन के बित्ताभर टुकड़े पर खेतीबाड़ी और सबके लिए भात-भाखरी (रोटी) बनाना। ये फिर भी आसान था, असल मुश्किल तब हुई, जब खेतों में काम करने कर्नाटक जाना पड़ा। वहां जोड़े में काम मिलता। पति गन्ने काटता, मैं गड्डियां बनाकर ट्रक पर चढ़ाती। एक बार में 30 किलो की गठरी सिर पर लेकर चलना और हवा में झूलती कच्ची सीढ़ी से होते हुए ट्रक पर चढ़ाना। मैं रो-रो पड़ती।

मेहनत खूब की थी, लेकिन ये काम खून मांगता था। महानंदा याद करती हैं- पीरियड्स में खून बहना बढ़ने ही लगा। बोझ उठाकर चलते-चलते कपड़ा पट से भीग जाता, लेकिन उन पराए गांवों में न तो सैनिटरी पैड मिलता, न हमारे पास पैसे थे, और न ही दुकान जाकर ये सब खरीदने का वक्त।

अनगढ़ हिंदी में महानंदा जब बात कर रही थीं, मैं सिर्फ सुन रहा था। बिल्कुल अपने मोबाइल या कैमरे के रिकॉर्डर की तरह। महसूस तब हुआ, जब खुद खेतों में पहुंचा। तीखी पत्तियां पैरों पर ऐसे चुभतीं, जैसे कीड़े काट रहे हों। चलते हुए पांवों पर बारीक खरोंचें आ गईं। उस पर लोहे को मोम बनाती धूप। तपते सिर को हाथों से ढांपने की नाकाम कोशिश करते हुए मैं केवल अंदाजा ही लगा सका कि 12 घंटों तक बोझ चढ़ाना कितनी और कैसी तकलीफ देता होगा।

‘गन्ना ढोते-ढोते एक के बाद एक तीन बच्चे हो गए। जिस वक्त औरत ठीक से चल नहीं पाती है, मैं पूरे पेट के साथ बोझ उठाती रही। चढ़ते हुए चक्कर आता था, लगता कि नीचे गिर जाऊंगी, लेकिन कोई रास्ता नहीं था। मैं गिरूं, चाहे बच्चा गिरे- काम तो करना ही होगा। चटर-पटर खाने को जी चाहता! खट्टा खाना चाहती थी, लेकिन भात-भाखरी खाकर सो जाती’। भरे गले, लेकिन सूखी आंखों से महानंदा बताती हैं, जैसे किसी और की कहानी सुना रही हों।

वजन उठा-उठाकर गले में गांठ बनने लगी। डॉक्टर ने ऑपरेशन कर दिया। वे गले की ओर इशारा करती हैं, जहां माला की तरह सर्जरी के बाद लगे टांके सजे हुए थे। साड़ी के अंचरे से वे टांकों को छिपाकर रखती हैं। हमारे कहने पर उसे उघाड़कर दिखाया और फिर तुरंत ढंक दिया। ब्लीडिंग बढ़ने पर डॉक्टर ने बच्चेदानी निकलवाने को कहा। पति से सलाह करके मैंने हां कर दी। बच्चे हो चुके। अब बच्चेदानी का क्या काम! नहीं पता था कि इतनी तकलीफ होगी। कमर दुखती है, हाथ-पैरों में दर्द रहता है। नींद नहीं आती। पसीना आता है। बात-बात पर रोना आता है।

पति के साथ रहने का मन करता है? मेरे सवाल पर छोटा सा जवाब आता है- ‘नहीं, मन नहीं करता अब’। मैं कुरेदता हूं तो वे मराठी में आसपास की औरतों से बात करने लगती हैं। धीरे-से समझ आता है कि वे बाकी सब कुछ बोल सकती हैं, लेकिन ये बात नहीं। पति नाराज हो जाएंगे। क्या पता छोड़ भी दें। बिना कोख की औरत भला किस काम की। माहौल बदलने के लिए मैं हल्के-फुल्के सवाल करने लगता हूं।

क्या अच्छा लगता है? ‘गाना’- उधर से जवाब आता है। ‘स्कूल में गाती थी। खूब शौक था। आगे पढ़ती तो गाना सीखती। लेकिन, शादी ने सब बदल दिया।’ हमारे कहने पर महानंदा मराठी में कुछ गुनगुनाती-सा हैं, जिसका हिंदी तर्जुमा है- इस खुले आसमान के नीचे हम सब बराबर हैं। न जाति अलग है, न रंग अलग। हम सब ईश्वर की संतानें हैं, हम सब बराबर हैं।

बंद दरवाजे से सटी हुई महानंदा सिर हिलाते हुए धीमे-धीमे गा रही हैं। बेरंग दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटका है। मैं देखते हुए सोच रहा हूं, शायद गाने के बोल ही कोई जादू फूंक दें। शायद बंद दरवाजा खुल जाए। मासूम बोलों वाले इस गीत को सुनकर शायद महानंदा समेत उन तमाम औरतों की किस्मत का ताला भी खुल जाए, जो औरत होने की सजा काट रही हैं।

आगे हमारी मुलाकात होती है, 29 साल की लता दत्तात्रेय से। लाल छींट की साड़ी में लता बताई हुई उम्र से काफी छोटी लगती हैं। शहर में होतीं और नए फैशन के कपड़े पहनतीं तो शायद यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट लगतीं। तेज-तर्रार और चुटीली बोली वाली। पूरी बातचीत के दौरान वे हंसती रहती हैं। वजह पूछने पर कहती हैं- ‘हिंदी में बोलना है न, तो हंसी आती है। मराठी बोलने कहो तो सब बता डालूंगी’।

हमें मराठी नहीं आती, लता को हिंदी नहीं आती। मैं मलाल से भरकर कहता हूं- अगली बार आऊंगा तो काम लायक बोली सीखकर आऊंगा, लेकिन अभी क्या! खूब हिसाब-किताब के बाद लता इस पर राजी होती हैं कि जहां अटकेंगी, मराठी में बोलने लगेंगी। मैं मुंडी डुलाती हूं।

वो याद करती हैं- शादी के बाद दो साल तक घर पर रही, फिर पति कर्नाटक ले गया। वहां टाट की झोपड़ी बनाई, जो हवा से हिलने लगती थी। रात में उजाला ऐसे झांकता, जैसे लाइट जली हो। थकान रहती, तब भी नींद नहीं आती थी।

दिन में दस बार रोती। सिर पर अधबनी छत। न बोली की समझ थी, न काम आता था। गन्ना खाया तो था, लेकिन उठाया कभी नहीं था। बार-बार गिर जाती, उठकर फिर काम करती। 3 हजार किलो का गट्ठर ट्रक पर लोड न हो तो पैसे कट जाते थे। कितने पैसे? लता बताती हैं- एक आदमी का 200 रुपए। जोड़े का 400 रुपए। सुबह 8 से रात 8 बजे तक काम करने पर ये पैसे मिलते। वो भी तब, जब ट्रक मुंह तक भरी हो।

ये तो फिर भी सह लें, लेकिन ठेकेदार की बदतमीजी ज्यादा रुलाती थी। मैं पेट से थी। सातवां महीना था, जब गांव लौटने का मन हुआ। पति ने ठेकेदार से बात की तो उसने मना कर दिया। कहा कि पहले काम करो, फिर जाते रहना। पति जितना गिड़गिड़ाता, वो उतना अनाप-शनाप बोलता। मुझे भी पीटा। हम कुछ नहीं कर सके। वहीं रहना पड़ा। लौट भी जाते तो क्या खाते। गांव में न खेत है, न कारखाना। वो हम औरतों को छेड़ता-छूता, तब भी हम चुप रहती थीं। आहिस्ते-आहिस्ते रोती, लेकिन चिल्ला नहीं पाती थीं। पेट का डर मुंह सिल देता है।

हंसते हुए ही लता दर्द की पूरी तस्वीर उकेर जाती हैं। पराई धरती पर ठेकेदारों की छेड़छाड़ की बात लगभग सभी ने दोहराई लेकिन दबी जबान में ही। इस पर सोशल वर्कर मनीषा सीताराम घुले कहती हैं- ये तो होता ही है। गन्ने के खेतों में काम करते हुए कई औरतों के कईयों बार रेप हो जाते हैं, लेकिन वे पति तक से नहीं कह पातीं। उन्हें डर रहता है कि पति उन्हीं पर इलजाम लगाएगा।

बहुतों के साथ यही हुआ। अब औरतें चुप रहती हैं। यूट्रस निकलवाने की ये भी बड़ी वजह है। बच्चा ठहरने का डर खत्म हो जाता है। पीरियड्स का झंझट चला जाता है। ये बात अलग है कि इसके बाद नए दर्द शुरू हो जाते हैं- उम्र से पहले उम्र बीत जाने का डर।

जैसा कि महानंदा कहती हैं- ‘मेरे बाल काले हैं। दांत पूरे हैं। सबको जवान लगती हूं, लेकिन मैं खुद अपनी नजर में बुढ़ा चुकी। काम करते-करते थक जाती हूं। अब आराम करना चाहती हूं।’ कहते हुए आवाज सूखी हुई है। बीड की सख्त जमीन ने जैसे उनके भीतर का सारा रस सोखकर गन्नों में भर दिया हो।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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