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November 2, 2024 3:07 am

मानव जीवन में जरूरी है गौरैया की चहचहाहट

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प्रमोद दीक्षित मलय

आज विश्व गौरैया दिवस है। इस घरेलू चिड़िया को बचाने एवं संरक्षण के लिए आज पूरी दुनिया में बहुत सारे आयोजन होंगे। तमाम बातों-वादों के बाद अपवाद स्वरूप कुछ छिटपुट गंभीर प्रयासों को छोड़कर हम फिर अपने दैनंदिन कार्य-व्यवहार में खो जाएंगे। क्योंकि एक दिनी चिंता से कुछ होने वाला नहीं।

आयोजन के उद्देश्यों की पूर्ति व्यापक फलक पर कहीं दिखाई नहीं देती है। गर्मी आते ही सोशल मीडिया पर छतों पर पानी रखने, दाना बिखेरने और गौरैया के लिए घरों एवं पेड़ों पर लकड़ी के बने घोंसले टांगने के उपदेश, प्रवचन और तत्सम्बंधित फोटो की बाढ़ सी आकर वर्षागमन पर उतर जाती है। कुछ अति उत्साही व्यक्ति कुछ दिन प्रयास करते भी हैं पर निरंतरता के अभाव में यह प्रक्रिया दम तोड़ देती है।

आखिर इस बड़े संकट की गंभीरता को हम समझ क्यों नहीं रहे हैं, या समझ कर भी नासमझी भरा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। प्रकृति एवं मानव जीवन परस्पर अन्योन्याश्रित है। 

मानवीय अस्तित्व के लिए यह परमावश्यक है कि प्रकृति में जीवन की जो प्राचीन जैव श्रंखला विद्यमान है उसे न केवल बचाए रखा जाए बल्कि उसको समृद्ध भी किया जाए। लेकिन मानव प्रकृति के साथ जीने की बजाय अपनी बुद्धि बल से प्रकृति से अधिकाधिक लूट-छीन लेने के भाव से लगातार घाव करता जा रहा है। 

संकट केवल गौरैया के जीवन पर नहीं है, वास्तव में यह संकट मानव सभ्यता पर ही है। क्योंकि गौरैया उस जैव श्रंखला में एक कड़ी है जिसके हम भी एक घटक हैं। यदि एक कड़ी कमजोर होती या टूटती है तो पूरी श्रंखला का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है। इसी संकट से मुक्ति की युक्ति का नाम है विश्व गौरैया दिवस।

मैं गांव-देहात से जुड़ा व्यक्ति हूं। मैंने ग्रामीण और शहरी दोनों जीवन को बहुत करीब से देखा और देख रहा हूं। इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि यह संकट केवल शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सुदूर गांव, मजरो और प्राकृतिक अंचलों तक पहुंच गया है। मैं जब भी गांव जाता हूं तो पिछले 20-30 सालों के दृश्य अनायास मानस पटल पर अंकित होने लगते हैं। जब मैं बचपन में बुंदेलखण्ड के अपने गांव बल्लान में हम उम्र साथियों के साथ खेत-खलिहान, बगीचों और तालाबों में आनंद जी रहा था तो यह गौरैया भी हमारी साथिन थी। 

जब पूरा गांव सो रहा होता तब भोर में ही गौरैया का झुंड चीं-चीं, चीं-चीं करता पूरे गांव में चक्कर लगा रहा होता जैसे कि आजकल किसी राजनीतिक सभा में आने वाले नेता का हेलीकॉप्टर पूरे क्षेत्र का चक्कर लगा देता है। चिड़ियों की चहचहाहट हमारे गांव की जैसे सामूहिक अलार्म घड़ी थी। तब मैं चारपाई पर लेटे या कभी बाबा की गोद में बैठ कर सीताराम का भजन करते देखता कि अम्मा दरवाजा बुहार गाय के गोबर से ओरिया डाल थोड़े चावल के दाने रख देतीं। तुरन्त कुछ चिड़िया खपरैल से उतर आती और दाना चुगने लगतीं। धुलने के लिए शाम के जूठे बर्तन निकाल आंगन के एक ओर बने नरदा में रख खजूर की पत्तियों से बने कूंचा (झाड़ू) से बखरी (आंगन) बटोरने लगतीं। मैं देखता कि चिड़ियों का एक झुंड बर्तनों की सफाई में जुट जाता जैसे अम्मा के कामों में हाथ बंटा रही हों। जब तक अम्मा बर्तन धोने के लिए आतीं तब तक चिड़ियों की यह पलटन बर्तनों में चिपके भात, दाल, सब्जी और आटा को साफ कर चुकी होती। तब दादी कुठली (अनाज रखने हेतु मिट्टी की बनी परम्परागत बखारी) से बांस की टोकरी में दो-तीन मुट्ठी चावल या धान लेकर आंगन के आधे हिस्से में बिखेर देतीं। तब चिड़ियों का बहुत बड़ा झुंड, जोकि बहुत देर से खपरैल और आंगन के जामुन के पेड़ में बैठा प्रतीक्षारत होता, एक साथ झपाक से दानों पर टूट पड़ता। पूरा आंगन मनोहारी संगीत के प्रभाती राग से नहा जाता। ऐसे ही किसी आंगन में घुटनों के बल रेंगने वाला शिशु उन्हीं चिड़ियों के बीच किलकारी मार दौड़ता रहता। तभी कहीं कोई चिड़िया शिशु के कंधे पर पल भर के लिए बैठ मानो गाल चूम आशीष दे दादी का आभार व्यक्त कर फिर आने का वादा कर उड़ जाती। तब गांव में बड़े-बड़े आंगन होते और आंगन में होते थे अमरूद, अनार, जामुन, नीम, कैथा के पेड और किसी-किसी आंगन में तो आम और महुआ भी। तब इन पेड़ों पर गौरैया के घोंसले लहराते रहते। खपरैल के नीचे वाले हिस्से में किसी पटिया और बांस के बीच बनी छोटी सी जगह में गौरैया अपने हुनर का कमाल दिखा अपना आशियाना बना लेती जो सालों साल बना रहता। पहली बारिश बाद खपरैल बदला जाता था। पर मजाल कि कोई घोंसलों को हटा सके।

शायद यह गौरैया या समस्त प्राणियों के प्रति विश्वास एवं अपनेपन का एक सहज रिश्ता था। अपने घर में ऐसे दर्जनों घोंसले बिल्कुल हमारी पहुंच में होते। लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि कभी किसी घोंसले का नुकसान या छेड़छाड़ किसी बच्चे द्वारा की गई हो, बड़ों द्वारा करने का तो सवाल ही नहीं था। एक प्रकार से गौरैया की मनुष्य के साथ पारिवारिक सदस्य होने की स्वीकृति थी। जब मैं खेतों में अपने भैंस, गाय और बैलों को चरते हुए देखता तो उनकी पीठ पर गौरैया शान से सवारी करती रहती। मुफ्त सवारी के बदले में गौरैया यात्रा करते हुए जानवरों के नाक, कान, पूंछ और पूरी देह से बहुत महीन कीड़े खोज-खोज कर चट कर चमड़ी की सफाई कर देतीं। मैंने इस सफाई अभियान में अक्सर मैना को भी शामिल हो अपना योगदान देते देखा है। गाय जब आराम कर रही होती तब चिड़िया उसके कान का मैल साफ करते हुए जैसे कह रही होतीं तुम चिंता न करना सखी, सफाई के लिए हम हैं न। और जब गाय स्वीकृति में कान हिलाती तो सारी चिड़ियां खिलखिलाकर फुर्र हो जातीं। 

अगर थोड़ी सी बात मैं गौरैया से हटकर अन्य पक्षियों की भी कर लूं तो कोई हर्जा न होगा। उस समय तोते, कठफोड़वा, बाज, मैना भी खूब आवाजाही करते थे। मृत पशु की दावत उड़ाते सैकड़ों गिद्धों का झुंड देखकर बचपन में डरता भी था। पर अब ये दृश्य किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह आकर रिश्तों की डोर के छूटे सिरे को अतीत से जोड़ ओझल हो जाते हैं। 

गौरैया पर आये संकट के कारणों से आप परिचित हैं, फिर भी स्मरण के लिए पुनः कुछ बिन्दुओं को रखना उचित प्रतीत होता है। जिसमें फसलों से अत्यधिक उत्पादन के लिए कीटनाशकों एवं उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से चिड़ियों के लिए सहज उपलब्ध भोजन का विषाक्त हो जाना, कृषि के विस्तार के लिए खेती योग्य भूमि निकालने के लिए जंगलों, बगीचों को उजाड़ना एवं मकान बनाने के लिए गांवों के अंदर के पेड़ों का काटा जाना, खपरैल की जगह पक्के मकानों का निर्माण, मोबाइल टावरों के बिछे जाल आदि ने गौरैया के प्रकृतिक पर्यावास एवं भोजन-पोषण को खत्म किया, घोंसले बनाने के लिए उपयुक्त जगह न मिलने से असुरक्षित अंडों को सर्प, बाज, नेवला, सियार, लोमड़ी आदि द्वारा भक्षण कर जाना, रेडिएशन एवं तरंगों से प्रजनन एवं निषेचन प्रक्रिया के प्रभावित होने से गौरैया के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है।

अब जबकि मैं लेख के अंत की ओर बढ़ रहा हूं तो समाधान के तौर पर कुछ बातें रखना आवश्यक है। अमुक उपाय करना चाहिए के उपदेशात्मक प्रवचनों की बजाय अनुरोध स्वरूप अनुभूत बाते साझा करना समीचीन एवं न्यायोचित होगा। अतः मकान, पार्क, स्कूल, आफिस, जहां कहीं भी खाली जगह उपलब्ध हो कुछ पौधे जरूर लगाएं। यह कोशिश रहे कि केवल छायादार, शोभाकारी ही नहीं बल्कि फलदार पौधे भी लगायें। सम्भव हो तो अपने घरों में लकड़ी के घोसले लगायें। घरों में कोई एक स्थान निश्चित कर साल भर सुबह एक मुट्ठी चावल के दाने और ताजे पानी का प्रबन्ध कर गौरैया का स्वागत करें। सुख एवं खुशी मिलेगी, मुझे तो मिली है। खेती में जैविक खाद का प्रयोग करें। प्राकृतिक कीटनाशकों का छिड़काव बेहतर होगा। मित्रो! अभी संभलने का समय है यदि संभल सके तो आगामी पीढ़ी के तीखे सवालों से बच सकेंगे। अन्यथा बहुत देर हो चुकी होगी।

लेखक पर्यावरण बेहतरी एवं विद्यालयों को आनन्दघर बनाने के अभियान पर काम कर रहे हैं। बांदा (उ0प्र0)।
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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."