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वाराणसी

काशी नगरी में लगभग 2300 साल पुराने हाथी दांत के आभूषण मिले, तहकीकी जायज़ा

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

दुनियां के प्राचीनतम नगरों में से एक काशी के अतीत को जितना जानने की कोशिश की जाती है, यहां की सभ्यता, संस्कृति और फैशन का उतनी ही गहराई से पता चलता है। यहां के लोग तब भी कहीं ज्यादा शौकीन रहे। खास तौर पर महिलाएं। इसका अंदाजा इसी से लगता कि जिले के बभनियांव गांव में चल रहे उत्खनन कार्य के दौरान ऐेसे आभूषण मिले हैं जो आज भी बेहद आकर्षक हैं। बताया जा रहा है कि ये आभूषण तत्कालीन समाज की संपन्न महिलाएं इस्तेमाल किया करती रहीं। तो जानते हैं विस्तार से..

बभनियांव में चल रहे उत्खनन कार्य के प्रमुख, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति विभाग के प्रो अशोक सिंह बताते हैं कि बभनियांव गांव स्थित पुरास्थल पर उत्खनन में कीमती ‘हाथी दांत की लटकन’ और अंजन शलाका मिले है। ये आभूषण तकरीबन 2300 साल पुराने हैं। वो बताते हैं कि हाथी दांत के लटकन का प्रयोग तब आभूषणों के रूप में होता रहा। उस दौर की महिलाएं गले के हार में इसका उपयोग करती रहीं।

तब बनारस में ही होते थे हाथी दांत के कारीगर

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प्रो. सिंह बताते हैं कि यह 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व तक के काल की बात है। इस काल को उत्तरी काली चमकीली मृदभांड या एनबीपी काल भी कहा जाता है। वो बताते हैं कि प्राचीन ग्रंथों और साहित्य में इस बात की चर्चा मिलती है कि बनारस में हाथी दांत पर काम करने वाले बेहतरीन कारीगर होते थे। ये कारीगर विश्वनाथ गली के इर्द-गिर्द रहते थे। यही नहीं बनारस में तब हाथी दांत की गली भी हुआ करती थी। इस कला को दंतकार विथि कहा जाता है। उन्होंने बताया कि बनारस में हाथी के दांत से निर्मित वस्तुओं का निर्यात भी होता रहा। वो बताते हैं कि हाथी दांत के कारीगर हर जगह उपलब्ध नहीं थे। लेकिन अब तो ये कला ही मृत प्राय हो चुकी है। आज बनारस में ही उन जैसा कोई कारीगर नहीं है।

महारानी-पटरानी करती रहीं इन कीमती आभूषणों का प्रयोग

प्रो सिंह के अनुसार बभनियांव गांव में जो आभूषण मिले हैं वो काफी कीमती हैं। ऐसे आभूषणों का इस्तेमाल हर कोई नहीं कर सकता था। ऐसे में ये केवल संपन्न घरों की महिलाएं ही इस्तेमाल किया करती रहीं। वो बताते हैं इस हाथी दांत के लटकन में धागा पिरोने वाला जो छिद्र है वह काफी घिस गया है जिससे ये कयास लगाया जा रहा है कि इसका उपयोग बहुत ज्यादा हुआ होगा। प्रो सिंह कहते हैं कि उस दौर की महारानियां ही अपने आभूषण में इसका उपयोग कर सकती थीं। इसके अलावा अंजन शलाका का प्रयोग महिलाएं काजल लगाने के लिए करती थीं।

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बभनियांव गांव में नागरी लिपि में अभिलेख भी मिले

बभनियांव स्थित पुरास्थल में नए ट्रेंच में मिट्टी के बर्तन और ईंट के महीन टुकड़ों से बनी फर्श भी दिखाई दे रही है। ट्रेंच संख्या 3 में काले, धूसर और चमकीले लाल रंग के बर्तनों के कई टुकड़े भी मिले हैं। साथ ही कुषाणकालीन शिव मंदिर वाले ट्रेंच की साफ-सफाई करके एक-एक संरचना की रिकॉर्डिंग और फोटोग्राफी कराई गई है। बभनियांव गांव में नागरी लिपि में अभिलेख भी मिले हैं, जिन्हें पढ़ा जा रहा है। इसके अलावा विगत दो दिनों में यहां से स्प्रिंकलर, पूजा के बर्तन, लाल और धूसर प्रकार के मिट्टी के पात्र यथा कटोरा, ढक्कन, तसला और घड़े मिले हैं। इन सभी के 2200 साल तक प्राचीन होने का अनुमान लगाया जा रहा है।

करीब साल भर पहले दिखी थीं मूर्तियां

करीब साल भर पहले यानी 2020 के अंत में वाराणसी से 17 किलोमीटर दूर जक्खिनी स्थित बभनियांव गांव में कई प्राचीन मूर्तियां दिखी थीं। उसके बाद ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुरातत्वविदों ने उत्खनन कार्य शुरू कराया।

इसके बाद हड़प्पाकालीन, वैदिक, कुषाण, शुंग और गुप्तकालीन वस्तुएं मिलीं हैं। पहले ही ट्रेंच में कुषाणकालीन एकमुखी शिवलिंग मिला। यह उत्तर प्रदेश का इकलौता शिवलिंग है जो कि एकमुखी है।

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Author: samachardarpan24

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