बुंदेलखंड के इमलिया गांव में 90 वर्षीय महिला की व्यथा, जब बेटे दौलत के लालच में मां-बाप को अलग कर देते हैं। झांसी की इस मार्मिक घटना में बागबान जैसी कहानी दोहराई गई है।
ब्रजकिशोर सिंह की रिपोर्ट
झांसी, बुंदेलखंड। साल 2003 में आई फिल्म बागबान ने लाखों दिलों को छू लिया था। उस फिल्म में जो कुछ दिखाया गया, वह एक काल्पनिक कहानी थी, लेकिन झांसी के इमलिया गांव में जो हुआ, वह हकीकत है। ऐसी हकीकत, जो आज भी हमारे समाज में रिश्तों की सच्चाई को उजागर करती है—जहां धन की चमक में मां-बाप की ममता फीकी पड़ जाती है।
2.85 करोड़ के लालच में बंटा परिवार
बुंदेलखंड के बीहड़ों में बसे इमलिया गांव के एक बुजुर्ग दंपती की 24 एकड़ जमीन बीड़ा प्राधिकरण ने अधिग्रहित की थी। इसके बदले उन्हें कुल 2.85 करोड़ रुपये का मुआवज़ा मिलना था। पहली किस्त में 85 लाख रुपये आ भी गए। लेकिन जैसे ही यह रकम घर पहुंची, बेटों की आंखों में लालच उतर आया।
इसके बाद जो हुआ, वह किसी त्रासदी से कम नहीं था। दंपती के चार बेटों ने अपने उन्हीं मां-बाप को “बांट लिया”—पिता को तीन बड़े बेटों ने अपने पास रख लिया क्योंकि जमीन उनके नाम पर थी। जबकि मां को छोटे बेटे के हवाले कर दिया गया, मानो वह कोई जिम्मेदारी हो जिसे बस निभा देना काफी हो।
“मैं बस अपने पति को देखना चाहती हूं…”
17 मई को मंझले बेटे ने पिता को अपने साथ ले जाकर मां से अलग कर दिया। कई दिन बीत गए, लेकिन मां को अपने जीवनसाथी से मिलने नहीं दिया गया। अंततः 90 वर्षीया यह महिला रक्सा थाने पहुंचीं—कांपते हुए कदम, डबडबाती आंखें और जुबां पर बस एक ही बात—”मुझे मेरे पति से मिलवा दो…”
थाना प्रभारी परमेंद्र सिंह ने मामले की गंभीरता को देखते हुए पारिवारिक काउंसलिंग की बात कही है। हालांकि, अब यह मुद्दा पुलिस कार्रवाई से कहीं अधिक सामाजिक चेतना और नैतिकता का बन गया है।
यह केवल जमीन का मामला नहीं, मानसिकता की गिरावट का उदाहरण है
इमलिया की यह घटना सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक आईना है। सवाल यह नहीं कि 2.85 करोड़ रुपये किसे मिले या किसे नहीं, असली सवाल यह है कि क्या पैसा हमारे रिश्तों से बड़ा हो गया है?
बेटों की आंखों में मुआवज़े की चमक इतनी तेज़ थी कि उन्हें उस मां-बाप की झुर्रियों से भरा चेहरा और कांपती उंगलियां भी दिखाई नहीं दीं, जिन्होंने उन्हें जीवन दिया।
झांसी की यह हृदयविदारक घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आधुनिकता और लालच की दौड़ में हम कहां जा रहे हैं। जब मां-बाप ही बोझ लगने लगें, तो हमें आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। शायद आज बागबान सिर्फ फिल्म नहीं, समाज की वास्तविकता बन गई है।