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17 March 2025 9:42 pm

24 दलितों की निर्मम हत्या, 44 साल बाद तीन दोषी करार, देर से मिला न्याय लेकिन सवाल अब भी कायम

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44 साल बाद दिहुली नरसंहार में तीन दोषियों को कोर्ट ने हत्या और आपराधिक साजिश का दोषी करार दिया। जानें पूरी घटना, चश्मदीदों की गवाही और न्याय प्रक्रिया की देरी की वजह।

उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद जिले के दिहुली गांव में 1981 में हुए भीषण नरसंहार का मामला 44 साल बाद एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंचा। मैनपुरी की एक अदालत ने इस जघन्य अपराध के तीन अभियुक्तों को दोषी करार दिया है और 18 मार्च को उन्हें सजा सुनाई जाएगी।

क्या था दिहुली नरसंहार?

18 नवंबर 1981 को फिरोज़ाबाद से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित दिहुली गांव में 24 दलितों को बेरहमी से गोलियों से भून दिया गया था। इस सामूहिक हत्या का आरोप कुख्यात डकैत संतोष, राधे और उनके गिरोह पर लगा था। पुलिस की चार्जशीट के अनुसार, इस हत्याकांड को अंजाम देने वाले ज्यादातर अभियुक्त ऊंची जाति से थे।

कैसे शुरू हुई दुश्मनी?

इस भीषण हत्याकांड की जड़ें व्यक्तिगत रंजिश में थीं। पुलिस के मुताबिक, डकैत गिरोह का एक सदस्य कुंवरपाल, जो दलित समुदाय से था, की एक ऊंची जाति की महिला से मित्रता थी। यह बात गिरोह के अन्य सदस्यों संतोष और राधे को पसंद नहीं आई। इसके बाद कुंवरपाल की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या कर दी गई।

जब पुलिस ने इस हत्या की जांच की, तो संतोष-राधे गिरोह के दो सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया और उनके पास से भारी मात्रा में हथियार बरामद किए। गिरोह को शक था कि उनकी गिरफ्तारी के पीछे जाटव समुदाय के लोगों का हाथ है। इसी बदले की भावना में उन्होंने दिहुली गांव में नरसंहार को अंजाम दिया।

कैसे हुई थी वारदात?

इंडिया टुडे के मुताबिक, 18 नवंबर की शाम करीब 4:30 बजे संतोष-राधे गिरोह के 14 लोग पुलिस की वर्दी में गांव पहुंचे और अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। यह खूनी तांडव करीब चार घंटे तक चला। जब तक पुलिस मौके पर पहुंची, हत्यारे फरार हो चुके थे।

घटना के बाद गांव में दहशत का माहौल बन गया और कई दलित परिवारों ने गांव छोड़ दिया। हालांकि, प्रशासन ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए गांव में सुरक्षा बलों की तैनाती कर दी थी।

44 साल बाद आया फैसला

इस हत्याकांड में कुल 17 अभियुक्त थे, जिनमें से 13 की मौत हो चुकी है। अब मैनपुरी की अदालत ने तीन जीवित अभियुक्तों—कप्तान सिंह, रामसेवक और रामपाल—को दोषी ठहराया है।

कप्तान सिंह: कोर्ट में हाजिर हुए

रामसेवक: पहले से ही मैनपुरी जेल में बंद

रामपाल: गैरहाजिरी के कारण उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी

एक अन्य अभियुक्त, ज्ञानचंद्र, को भगोड़ा घोषित कर दिया गया है।

किन धाराओं में दोषी करार दिए गए?

अभियोजन पक्ष के वकील रोहित शुक्ला के अनुसार, अदालत ने दोषियों को भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत दोषी ठहराया है, जिनमें शामिल हैं:

धारा 302: हत्या

धारा 307: हत्या का प्रयास

धारा 120बी: आपराधिक साजिश

धारा 216: अपराधियों को शरण देना

धारा 449-450: घर में घुसकर अपराध करना

पीड़ित परिवारों की प्रतिक्रिया

देर से ही सही, लेकिन इंसाफ मिलने पर पीड़ित परिवारों को राहत महसूस हो रही है। संजय चौधरी, जिनके चचेरे भाई इस नरसंहार में मारे गए थे, ने कहा,

“न्याय तो मिला, लेकिन बहुत देर से। अगर यह फैसला पहले आ जाता, तो बेहतर होता। अभियुक्त अपना जीवन जी चुके हैं।”

वहीं, निर्मला देवी, जिनके दो चचेरे भाई इस हत्याकांड में मारे गए थे, ने कहा,

“गांव में अब भी दहशत बनी हुई है।”

चश्मदीदों की आपबीती

घटना के चश्मदीदों ने भी उस भयावह दिन को याद किया।

भूप सिंह (70 वर्ष), जो उस समय 25 साल के थे, ने कहा,

“डकैतों ने पूरे जाटव मोहल्ले को घेर लिया था। जो भी दिखा, उसे गोली मार दी गई।”

राकेश कुमार (अब 57 वर्ष), जो उस वक्त 14-15 साल के थे, ने बताया,

“जब गोलियां चलने लगीं, तो मैं धान के पुवाल के ढेर में छिप गया था। रात में जब गोलियां बंद हुईं, तो देखा कि मेरी मां के पैर में गोली लगी थी।”

उनकी मां चमेली देवी (अब 80 वर्ष) ने कहा,

“हम औरतें-बच्चे भागने लगे, लेकिन किसी को नहीं छोड़ा गया। मुझे भी गोली लगी थी, लेकिन किसी तरह जान बच गई।”

राजनीतिक प्रभाव और जांच की देरी

इस घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश फैल गया था। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी दिहुली गांव का दौरा किया था। विपक्ष ने सरकार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाए थे।

इस मामले में जांच और न्याय प्रक्रिया में वर्षों तक देरी हुई। 1984 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर केस को इलाहाबाद सेशन कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया, जहां 2024 तक सुनवाई चली। इसके बाद केस को दोबारा मैनपुरी डकैती कोर्ट में भेजा गया, जहां अब फैसला आया है।

दिहुली हत्याकांड भारतीय न्याय प्रणाली में न्याय में देरी का एक और उदाहरण है। पीड़ित परिवारों को इंसाफ तो मिला, लेकिन 44 साल बाद। अब 18 मार्च को दोषियों को सजा सुनाई जाएगी, जिससे इस लंबे कानूनी संघर्ष का अंत होगा। हालांकि, गांव में अब भी भय का माहौल बना हुआ है, और इस घटना की छाया वहां के दलित समुदाय पर आज भी देखी जा सकती है।

➡️चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट

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