google.com, pub-2721071185451024, DIRECT, f08c47fec0942fa0
खास खबर

आज़ाद समाज पार्टी बनाम बीएसपी: यूपी की राजनीति में दलितों का भविष्य

IMG-20250425-WA1620
IMG-20250425-WA1484(1)
IMG-20250425-WA0826
IMG-20250502-WA0000
Light Blue Modern Hospital Brochure_20250505_010416_0000
Green Modern Medical Facebook Post_20250505_080306_0000
IMG-20250513-WA1941
84 पाठकों ने अब तक पढा

संजय सिंह राणा की रिपोर्ट

उत्तर भारत की दलित राजनीति में चंद्रशेखर एक प्रमुख युवा चेहरा हैं। वह अपनी सक्रियता और आंदोलनकारी शैली के लिए जाने जाते हैं, और संघर्ष के दौरान जेल भी गए हैं। चंद्रशेखर का जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले की बेहट तहसील में हुआ था। उन्होंने साल 2012 में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी से क़ानून की डिग्री प्राप्त की।

चुनावी हलफ़नामे में उनका नाम चंद्रशेखर है, लेकिन वह चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। उनके पिता गोवर्धन दास सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और उनकी माँ घर-बार संभालती थीं।

साल 2015 में चंद्रशेखर ने भीम आर्मी नामक संगठन की स्थापना की और तब से वह चर्चा में आए। भीम आर्मी का दावा है कि उसका मक़सद जाति आधारित हमलों और दंगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना और दलित बच्चों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना है। साल 2015 से भीम आर्मी देश के विभिन्न हिस्सों में दलित उत्पीड़न के मामलों के खिलाफ आवाज़ उठाने में सक्रिय रही है।

15 मार्च 2020 को चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) का गठन किया और इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। यह पार्टी बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, गौतम बुद्ध, संत रविदास, संत कबीर, गुरु नानक देव, सम्राट अशोक आदि को अपना आदर्श मानती है।

पार्टी की वेबसाइट के अनुसार, इसका मक़सद देश के साधन, संसाधन, और उद्योग-व्यापार के साथ-साथ सरकारी और निजी नौकरियों में वंचित वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित कराना है।

पार्टी की वेबसाइट पर कांग्रेस, बीएसपी और बीजेपी को भी निशाना बनाते हुए कहा गया है कि वर्तमान समय में ‘हाथ’ (कांग्रेस का प्रतीक) निरंतर कीचड़ पैदा कर ‘कमल’ (बीजेपी का प्रतीक) को खिलने का मौक़ा दे रहा है। इसके अलावा, इसमें समाज के कई नेता भाई-भतीजावादी बताए गए हैं और कहा गया है कि उम्र के पड़ाव में ‘माया’ (बीएसपी प्रमुख मायावती) को बचाने के लिए वे समझौतावादी होकर मनुवादियों की कठपुतली बन गए हैं।

चंद्रशेखर की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) ने छत्तीसगढ़, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुनील कुमार चित्तौड़ ने कहा कि पार्टी ने उत्तर प्रदेश में भी चार जगह उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन उन्हें जीत सिर्फ़ नगीना सीट पर ही मिली है। चंद्रशेखर को लोगों ने संसद भेजा है। 

चित्तौड़ ने यह भी बताया कि वे लोग अब संगठन को मज़बूत करने पर ध्यान देंगे और आगे आने वाले चुनावों में भी हिस्सा लेंगे। पार्टी का लक्ष्य दलितों और वंचित वर्गों की आवाज़ को संसद में पहुँचाना और उनके अधिकारों के लिए लड़ना है।

चंद्रशेखर आज़ाद का कहना है, “सरकार किसी की भी बने, जनता के अधिकार को हम सरकार के जबड़े से छीन कर लाएंगे। अगर किसी ग़रीब पर कोई जुल्म होगा, जैसे मॉब लिंचिंग, घोड़ी पर बैठने पर या मूंछे रखने पर हत्या होती थी, तो सरकार को चंद्रशेखर आज़ाद का सामना करना पड़ेगा।”

उन्होंने आगे कहा, “सरकार कुछ भी करे लेकिन इंसान की हत्या को रोके। जाति और धर्म के आधार पर अन्याय नहीं होने देंगे। होगा तो चंद्रशेखर आज़ाद से टकराना होगा, ये बात सब लोग जान लें।”

चंद्रशेखर को उत्तर प्रदेश में एक दलित युवा नेता के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि, दलित चिंतक और स्तंभकार कंवल भारती की राय अलग है। कंवल भारती, जो ‘कांशीराम के दो चेहरे’ सहित कई पुस्तकों के लेखक हैं, कहते हैं, “चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा तो बनेंगे, लेकिन उनसे अभी बहुत उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास दलित मुक्ति का कोई विज़न नहीं है। वो तात्कालिक परिस्थितियों के हिसाब से रिएक्ट करते हैं। लेकिन निजीकरण, उदारीकरण से लेकर दलितों को हिन्दुत्व फोल्ड से बाहर निकालकर लाने के लिए उनके पास कोई विचारधारा नहीं है।”

इस दृष्टिकोण से, चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व और उनके राजनीतिक प्रयासों के प्रति मिश्रित प्रतिक्रियाएँ हैं। वह जहां एक तरफ दलित समुदाय के लिए एक साहसी और सक्रिय नेता के रूप में उभर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके विचारधारात्मक और नीतिगत दृष्टिकोणों की कमी को लेकर कुछ चिंताएँ भी हैं।

फ़ारवर्ड प्रेस के हिंदी के संपादक और जातियों की आत्मकथा पुस्तक के लेखक नवल किशोर कुमार भी चंद्रशेखर की सांगठनिक क्षमता पर सवाल उठाते हैं। उनका कहना है, “नगीना में अल्पसंख्यकों और दलितों की आबादी अच्छी है। बीएसपी चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि वोट काटने या अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए लड़ती है। इन हालात में चंद्रशेखर जीते हैं। वह आक्रामक तो हैं, लेकिन उन्हें अपनी सांगठनिक क्षमता पर काम करना होगा। मूंछ से ज्यादा विवेक से काम लेना होगा।”

नवल किशोर के अनुसार, “जिस तरह बिहार की पूर्णिया सीट पर निर्दलीय पप्पू यादव की जीत हुई है, उसी तरह से नगीना में चंद्रशेखर की जीत को देखना चाहिए। इससे दलितों की राजनीति पर बहुत असर नहीं पड़ेगा।”

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पद तक पहुंचीं मायावती के संबंध में, कई विशेषज्ञ बीते कुछ चुनावों में उनकी पार्टी के प्रदर्शन के बाद उनकी प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे हैं। 1984 में बनी बीएसपी का वोट बैंक अनुसूचित जाति के लोग रहे हैं। बीएसपी कई राज्यों की चुनावी राजनीति में सक्रिय है, लेकिन पार्टी का व्यापक आधार उत्तर प्रदेश ही रहा है।

मायावती ने चुनाव परिणामों के बाद कहा, “दलित वोटरों में मेरी खुद की जाति के ज़्यादातर लोगों ने वोट बीएसपी को देकर अपनी अहम जिम्मेदारी निभाई है। उनका मैं आभार प्रकट करती हूँ। साथ ही मुस्लिम समाज, जिसको कई चुनाव में उचित पार्टी प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है, वह बीएसपी को ठीक से नहीं समझ पा रहा। ऐसे में पार्टी उनको सोच-समझकर ही मौका देगी ताकि भविष्य में इसका भयंकर नुकसान ना हो।”

मायावती के इस बयान को देखते हुए, उन्होंने चंद्रशेखर के उभार पर कोई टिप्पणी नहीं की। उन्होंने अपनी जाति के कोर वोटर को धन्यवाद दिया और मुस्लिमों के प्रति नाराजगी जाहिर की। मायावती और चंद्रशेखर दोनों ही जाटव समुदाय से आते हैं।

दलित चिंतक कंवल भारती का मानना है कि बीएसपी ने अपनी ज़मीन और विश्वास दोनों खो दिए हैं। उनका कहना है, “अल्पसंख्यक, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित मायावती के वोटर रहे हैं, लेकिन अब बीएसपी इन समूहों का समर्थन खो चुकी है। मायावती अब बीजेपी की तरफ़ से खेल रही हैं और अपने उम्मीदवारों को खड़ा करती हैं ताकि इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार हार सकें। वह दलित उत्पीड़न, सांप्रदायिक, धार्मिक उन्माद और आरक्षण के सवाल पर चुप रहती हैं।”

आँकड़ों के अनुसार, बीएसपी का वोट बैंक लगातार घट रहा है। 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी को 19.43 प्रतिशत वोट मिले थे और पार्टी ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2022 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 12.88 प्रतिशत हो गया और सिर्फ़ एक सीट पर जीत पाई। इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 9.39 प्रतिशत हो गया और पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई।

मध्य प्रदेश में भी पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा। 2018 में पार्टी को 5.01 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2023 में घटकर 3.40 प्रतिशत रह गए। हालांकि, 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत मामूली बढ़त के साथ 1.77 प्रतिशत हो गया था, जो 2017 में 1.5 प्रतिशत था।

नवल किशोर का कहना है, “बीएसपी का समय अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। अब भी उसका 9 प्रतिशत कोर वोटर है। लेकिन बीएसपी को दिल बड़ा करके गैर-जाटव लोगों को सम्मान देना होगा। मायावती 2007 में जब यूपी की सत्ता में आईं तो उनके साथ पिछड़ा, अति पिछड़ा, जाटव, गैर-जाटव सब थे। लेकिन सतीश मिश्रा के पार्टी के नीतिगत मसलों और ढांचे में प्रभाव बढ़ने के बाद एक-एक करके पार्टी के जाटव, गैर-जाटव नेता किनारा कर गए। इनमें बाबू सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद, और ओम प्रकाश राजभर शामिल थे। इसलिए 2012 के बाद से बीएसपी सत्ता में कभी वापस नहीं लौटी।”

इस सबके बीच चंद्रशेखर आज़ाद का उभार मायावती की बीएसपी के लिए एक नई चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। जहां एक ओर चंद्रशेखर दलित युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बीएसपी के कमजोर होते जनाधार से दलित राजनीति में एक बदलाव की संभावना बन रही है।

उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी करीब 25 प्रतिशत है, जो मुख्य रूप से जाटव और गैर-जाटव समुदायों में विभाजित है। जाटव समुदाय कुल अनुसूचित जाति का लगभग 54 प्रतिशत हैं, जबकि गैर-जाटव समुदायों में पासी, धोबी, खटिक, धानुक आदि आते हैं, जो 46 प्रतिशत हैं।

यूपी विधानसभा में 86 सीटें आरक्षित हैं, जिनमें 84 अनुसूचित जाति के लिए और दो अनुसूचित जनजाति के लिए हैं। यह संख्या बल सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाता है। इसी दलित वोट बैंक के सहारे मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं।

चंद्रशेखर ने भीम आर्मी की स्थापना के बाद बीएसपी को अपनी पार्टी बताया था, लेकिन 2020 में उन्होंने अपनी पार्टी आज़ाद समाज पार्टी बना ली। 2022 के विधानसभा चुनाव में चंद्रशेखर ने गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन उनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा। हालांकि, उन्होंने सड़क पर अपनी लड़ाई जारी रखी।

मायावती ने अपनी पार्टी में युवा नेतृत्व के तौर पर अपने भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकारी बनाया था। आकाश आनंद ने नगीना में चुनावी सभा करते हुए चंद्रशेखर आज़ाद पर निशाना साधा था। माना जाता है कि एक चुनावी सभा में आकाश आनंद के बीजेपी सरकार पर तीखे हमले से मायावती नाराज हो गईं और बाद में उन्होंने आकाश आनंद को राष्ट्रीय समन्वयक पद से हटा दिया।

बीएसपी समर्थक संतोष कुमार बीबीसी से कहते हैं, “ऐसा करके बहन जी ने साफ़ कर दिया कि वह बीजेपी के इशारों पर काम कर रही हैं। ऐसे में उनका वोट कम होगा ही। युवा को जगह देने से ही पार्टी आगे बढ़ती है और पार्टी के साथ फिर से उसके समर्थक जुड़ते हैं।”

पत्रकार शीतल पी सिंह कहते हैं, “आकाश आनंद को हटाना भ्रूण हत्या की तरह था। अब चंद्रशेखर संसद जा रहे हैं। उत्तर भारत में दलित युवा उनके साथ संगठित हो चुके हैं और अब जब उनको मौका मिला है तो उनसे अपने संगठन के विस्तार की अपेक्षा है।”

चंद्रशेखर और मायावती के बीच बढ़ते इस राजनीतिक संघर्ष में, यह स्पष्ट हो रहा है कि दलित राजनीति में एक नया समीकरण बन रहा है। चंद्रशेखर का उभार और मायावती की पार्टी के अंदरुनी संघर्ष दोनों ही दलित वोट बैंक के भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं।

samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

[embedyt] https://www.youtube.com/embed?listType=playlist&list=UU7V4PbrEu9I94AdP4JOd2ug&layout=gallery[/embedyt]
Tags

samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की
Back to top button
Close
Close