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जिंदगी एक सफर

…मेरी कहानी आपको हैरान कर सकती है…मुझे जानना चाहेंगे….?

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अनिल अनूप की प्रस्तुति

‘दुनिया मेरा एहसान माने या न माने लेकिन मैं जानती हूं मेरी हर चीख पर बलात्कार थमते हैं, नहीं तो शराफ़त से भरी इस दुनिया में, हर पल चीखती-चिल्लाती लड़कियों की आवाजें सुनाई देतीं, जिनके साथ रेप हो रहा होता.

अगर फ़ौजी सरहद पर देश की इज़्ज़त बचा रहे हैं, तो मैं भी देश में रहने वाले लोगों की इज़्ज़त बचा रही हूं, जो लड़कियों के साथ होने वाली हर अनहोनी घटना पर लुट जाती है.

मैं समाज में रहते हुए भी समाज से कटी हुई हूं. लोग मेरे पास एक ख़ास मक़सद के लिए आते हैं. मक़सद पूरा होते ही वो मेरे पास से ऐसे भागते हैं जैसे, किसी ने उन्हें मेरे साथ देख लिया, तो क़यामत आ जायेगी. मैं जो काम करती हूं, वो दुनिया की नज़रों में ग़लत है पर मैं जानती हूं मैं सही हूं. भूखे मरने से सौ दफ़ा बेहतर है काम करना. मैं भी काम करती हूं. मेरा काम जिस्म बेचना है.

आपकी नज़रों में मैं वेश्या, रंडी, पतुरिया या धंधे वाली लड़की हूं. कुछ पैसों के लिए अपना जिस्म बेचने को तैयार हो जाती हूं. कई बार मेरे ग्राहक मुझे पैसे भी नहीं देते हैं. उधारी में जिस्म भी बिकता है. आम तौर पर मेरे साथ उधारी का रिश्ता रखने वाले शहर के बड़े और दबंग टाइप लोग होते हैं या सरकारी अफ़सर.

चौंकते क्यों हैं अफ़सरों को मेरी ख़ास ज़रुरत पड़ती है. मेरे पास आने पर उन्हें एक साथ कई फ़ायदे हो जाते हैं. पहला फ़ायदा होता है कि उन्हें मुफ़्त में मेरा जिस्म मिल जाता है और दूसरा फ़ायदा होता है कि मुझसे वे पैसे भी एंठ लेते हैं.

मेरा रिश्ता पुलिस वालों से भी अच्छा बन जाता है. हफ़्ते में तीन-चार बार तो पुलिस स्टेशन मुझे चेहरा ढक के जाना ही पड़ता है.

कई बार शहर के छटे हुए बदमाशों को तलाशने पुलिस वाले मेरे कमरे में भी घुस आते हैं. अगर बदमाश न मिला, तो मैं तो मिल ही जाती हूं उन्हें. मेरे पास आकर उनका नुकसान कभी नहीं होता है.

इस धंधें में मैं रोज़ मरती हूं, लेकिन मेरे मरने से मेरे ग्राहकों को मज़ा आता है.

मेरे जिस्म के ख़रीददार बहुत हैं

औरत अगर बाज़ार में ख़ुद को बेचने पर उतर आये, तो बच्चे-जवान और बूढ़े सब ख़रीददार बन जाते हैं. ये पूछिए कौन नहीं आता मेरे पास? बच्चे, जवान, अधेड़, बूढ़े सबको मेरी ज़रूरत  होती है. 

शहर में शराफ़त के सारे ठेकेदार मेरे कमरे में गड़ी खूंटी पर अपने सफ़ेद कपड़े उतारते हैं.

जज, वकील, डाक्टर, मास्टर, इंजीनियर, मंदिर वाले महंत और मस्जिद वाले मौलवी भी मेरे कोठे पर आ जाते हैं. अकसर मैं भी उनके पास चली जाती हूं. क्या है न वहां मुझे नोचने के लिए बहुत सारे भेड़िये पलकें बिछा कर बैठे होते हैं. उनकी हैवानियत पर मुझे सिसकियां भरने के पैसे मिलते हैं.

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अगर बाज़ार में मैं उन्हें न मिलूं, तो न जाने कितनी निर्भया सड़कों पर खून से तर-बतर दिखाई दें. मर्द अपने शरीर की भूख किसी को भी शिकार बना कर मिटा सकता है, चाहे वो पांच साल की बच्ची हो या अस्सी साल की बुढ़िया. उन्हें मतलब बस औरत के जिस्म से होता है.

मेरे बिकने में ख़राबी क्या है?

मेरा जिस्म लोगों के लिए एक खिलौने से ज़्यादा कुछ नहीं होता, जिसे नोचकर कर ही उन्हें चरम सुख मिलता है. इसलिए वो मुझे पैसा देते हैं. ऐसे में ख़ुद को उत्पाद की तरह बेचने पर भी मैं प्रोफ़ेशनल क्यों नहीं? उन्हें अपने काम के बदले में समाज से सम्मान मिलता है, तो मुझे मेरे काम की वजह से नफ़रत क्यों?

कैसा दोगलापन है ये? 

अजीब सा लगता है जब मुझे घर से बाहर निकलने पर समाज के ठेकेदारों से गालियां मिलती हैं. इन्हें लगता है कि मेरे समाज के मुख्य धारा में आने से इनकी बहन-बेटियां और आने वाली पीढ़ियां बर्बाद हो जाएंगी. फिर न जाने क्यों ये लोग शाम ढलते ही मेरे कोठे की ओर आने लगते हैं. इंतज़ार करते हैं कब मैं इन्हें अपने कमरे में बुला कर प्यार करूं. तब मैं इन्हें जन्नत की हूर, परी और अप्सरा क्यों लगने लगती हूं? 

ये कैसा दोगलापन है समाज के लोगों में ?

ग्राहकों की फ़रमाइश

अगर मैं लिख भी दूं तो आप पढ़ नहीं पायेंगे, लेकिन ज़रूर पढ़ेंगे आप. सेक्स लिखा जाए और लोग पढ़ें न ये कैसे हो सकता है? हां! भाई, मोबाइल की हिस्ट्री साफ़ करने में कितना वक़्त लगता है ?

हो सकता है आप में से कुछ लोगों को किसी पॉर्न मूवी का कोई सीन याद आ जाए. कुछ को इसमें चरम सुख मिल सकता है. कुछ लोग रस लेकर इसे दोस्तों को इनबॉक्स भी कर सकते हैं. सेक्स जो शामिल है इसमें.

जानते हैं? मुझे उनकी हर डिमांड पूरी करनी होती है. वो मुझे नहीं मेरा वक़्त खरीदते हैं और उस वक़्त में मैं उनके लिए केवल खिलौना होती हूं. वो मुझसे जैसा चाहते हैं वैसा करवाते हैं.

मैं वो सब करते वक़्त बेमौत मरती हूं. मेरी चीख पर ग्राहक खुश होता है. उसे लगता है कि उसमें मर्दानगी अभी बची हुई है.

सब कहते हैं मैं चरित्रहीन हूं

बाज़ार में दुकानें कुछ बेचने के लिए ही लगाई जाती हैं. मेरा भी बाज़ार लगता है. कुछ दल्ले मुझे भी बेचते हैं. कुछ अच्छे दल्ले भी होते हैं. कमीशन कम खाते हैं और ग्राहकों से मोटी रकम दिलाते हैं. कमीशन खाना उनका धंधा है और जिस्म बेचना मेरा.

मैं जिस्म बेचती हूं, तो गलत क्या करती हूं? अगर लोगों का मेरा जिस्म कुछ वक़्त के लिए खरीदना ग़लत नहीं है, तो मेरा जिस्म बेचना क्यों गलत है? समाज को जो भी लगे मगर मैं गुनाहगार नहीं हूं.

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लिखने वाले मुझसे पूछते हैं

कैसा लगता है आपको इस धंधे में रहना? आप मेन स्ट्रीम सोसाइटी में कब आएंगी? क्या आपको नहीं लागता आप ग़लत कर रही हैं? आप शादी क्यों नहीं कर लेतीं? एक दिन में कितना कमा लेती हैं? क्या आपके साथ कभी ज़ोर-ज़बरदस्ती हुई है? ये सब करते हुए कितने दिन हो गए आपको? आप छोड़ क्यों नहीं देतीं ये धंधा? आपको ज़बरन लाया गया है या इस धंधे में आप अपनी मर्ज़ी से हैं? आपको अपने बच्चों के बाप के नाम याद हैं?

एक दिन में कितनी बार सेक्स करना पड़ता है आपको? क्या आप पीरियड्स में भी सेक्स करती हैं?

और मैं जवाब देती हूं

मुझ पर लिखने से आपका धंधा चल जाएगा न? आप लिखने के धंधे में हैं न? आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते? मैं अपना धंधा क्यों छोड़ दूं?

मैं इन सवालों के ज़वाब क्यों दूं? सहानुभूति है न आपको मुझसे?

क्या भूल कर भी आपने कभी मेरी समस्याओं पर लिखा है? कभी मुझे समझने की कोशिश की है? मैं कभी आपके प्राइम टाइम डिबेट का हिस्सा रही हूं? कभी आपने मुझे अपने एडिटोरियल पेज पर जगह दी है? कभी मेरा इंटरव्यू छापा है?

कभी-कभी कुछ लोग आते हैं मुझ पर लिखने, पर मैं उन्हें एक धंधे वाली से ज़्यादा कुछ लगती ही नहीं. उनकी पूरी कहानी मेरे शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमती है. क्या कहूं मैं आपसे? मैं एक देह भर नहीं हूं.

क्यों घिन आती है मुझे समाज से?

मैं स्वेच्छा से इस धंधें में नहीं हूं. मुझे धकेला गया है इस धंधें में. अब मैं चाह कर भी आम लड़कियों जैसी नहीं रह सकती. ऐसे दलदल में मेरे पांव हैं जहां से बाहर निकल पाना मुमकिन नहीं है. मैं ठीक से जवान भी नहीं हुई थी जब मुझे कोठे पर बेच दिया गया था. मुझे एक दिन दुल्हन की तरह सजाया गया था. उस दिन जो कुछ भी हुआ उसमें मेरी सहमति नहीं थी. उस दिन के बाद से अब तक अभिशप्त जीवन जी रही हूं. 

कब समझेगा मुझे समाज?

शायद कभी नहीं. क्योंकि कोई मुझे समझ के भी क्या करेगा. मैं दाग हूं सभ्य-समाज की नज़रों में. समाज मेरे बारे में कुछ भी सोचे, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

अगर समाज मेरे साथ इतना गंदा व्यवहार करके भी साफ़-सुथरा है, तो मैं भी पवित्र हूं. उतना ही जितना यह समाज.

मैं जो काम करती हूं उस पर मुझे कोई मलाल नहीं है. मुझे भी समाज से उतनी ही इज्ज़त चाहिए जितनी सबको मिलती है. मैं बिलकुल भी अलग नहीं हूं. हां!  मैं जिस्म बेचती हूं और यही मेरा प्रोफ़ेशन है.

(ये लेख मेरठ के  रेड लाइट एरिया में रहने वाली,  एक वेश्या से हुई, मेरी  बात-चीत पर आधारित है)प्रदर्शित सभी चित्र पूर्णतः सांकेतिक है। 

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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