लखनऊ, जिसे नज़ाकत और नफ़ासत का शहर कहा जाता है, अपनी समृद्ध तहज़ीब, अदब, और खानपान के लिए मशहूर रहा है। इस शहर की गली-कूचों से लेकर नवाबी महलों तक, हर जगह एक चीज़ समान रही है—चाय। पुराने दौर का लखनऊ और चाय का रिश्ता उतना ही गहरा है जितना इस शहर का रूमानी अदब और चिकनकारी से।
चाय की आमद: लखनऊ में शुरुआत
भारत में चाय की शुरुआत अंग्रेजों के ज़रिए हुई, लेकिन लखनऊ जैसे सांस्कृतिक शहरों में इसे अपनाने में देर नहीं लगी। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, जब चाय का प्रचलन बढ़ने लगा, तब लखनऊ ने इसे अपने अंदाज में अपनाया। पहले-पहल चाय अंग्रेजों और उच्च वर्ग के बीच लोकप्रिय थी, लेकिन धीरे-धीरे यह आम लोगों की पसंदीदा पेय बन गई। नवाबों और अभिजात वर्ग ने इसे अपने दरबारों में शिष्टाचार का हिस्सा बनाया, वहीं आम लोग इसे नुक्कड़ों और गलियों में चुस्कियों के साथ गप्पें लड़ाने का ज़रिया बनाने लगे।
चायख़ाने और अड्डेबाज़ी की संस्कृति
पुराने दौर के लखनऊ में चाय सिर्फ़ एक पेय नहीं थी, बल्कि यह एक सामाजिक ताने-बाने का अभिन्न हिस्सा थी। शहर के कोने-कोने में चायख़ाने और ठीये खुलने लगे, जहाँ लोग घंटों बैठकर अदब, सियासत, और समाज पर चर्चा किया करते थे। चौक, अमीनाबाद, नक्खास, और हुसैनगंज जैसे इलाकों में ऐसे कई मशहूर चायख़ाने थे, जहाँ शहर के बुद्धिजीवी, शायर, और आम लोग इकट्ठा होते थे।
रईस टी हाउस, हबीब टी स्टाल, और शर्मा टी स्टाल जैसे चायख़ाने पुराने दौर में काफ़ी मशहूर थे। इन जगहों पर सिर्फ़ चाय ही नहीं, बल्कि तांबे की केतली में बनी रूहानी गुफ़्तगू भी हुआ करती थी। लखनऊ की अड्डेबाज़ी की संस्कृति इन्हीं चायख़ानों से पनपी और धीरे-धीरे साहित्यिक और राजनीतिक बहसों का केंद्र बन गई।
चाय और अदब: ग़ज़ल, नज़्म, और चाय की चुस्कियाँ
लखनऊ शायरी और अदब का केंद्र रहा है, और चाय ने इस तहज़ीब को संवारने में बड़ी भूमिका निभाई। पुराने दौर में कई बड़े शायर और लेखक अपने दोस्तों के साथ चायख़ानों में बैठा करते थे। चाय की हर घूंट के साथ नए शेर और नज़्में गढ़ी जाती थीं।
मीर, अमीर मीनाई, और जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों के दौर में भले ही चाय का उतना चलन न रहा हो, लेकिन 20वीं सदी के शायरों—फ़िराक़ गोरखपुरी, अली सरदार जाफ़री, और मजाज़ लखनवी—ने चाय को अपनी महफ़िलों का अहम हिस्सा बना लिया था। मजाज़ तो अक्सर अपने दोस्तों के साथ अमीनाबाद के चायख़ानों में घंटों बैठकर चाय पर चर्चा किया करते थे।
नवाबी चाय: एक अलग अंदाज़
लखनऊ की नवाबी तहज़ीब ने चाय को भी एक ख़ास अंदाज़ दिया। यहाँ की चाय सिर्फ़ दूध, पत्ती और चीनी तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसमें मसाले, केसर, और इलायची जैसी चीज़ें भी डाली जाने लगीं।
नवाबी चाय और इक़बाल चाय जैसे विशेष रूप से तैयार किए गए पेय पुराने लखनऊ के खास चाय स्वादों में शामिल थे। ये चाय पारंपरिक तरीके से धीमी आँच पर पकाई जाती थी, जिससे उसका स्वाद और भी लाजवाब हो जाता था।
चाय के साथ लखनवी नाश्ता
पुराने दौर के लखनऊ में चाय के साथ परोसे जाने वाले नाश्ते का भी ख़ास महत्व था। रेज़ा बिस्कुट, बन-मक्खन, नानख़ताई, और खासतौर पर शर्मा टी स्टाल की मक्खन-टोस्ट—ये सभी चाय के साथ खाने की पसंदीदा चीज़ें थीं। कई जगहों पर गर्म-गर्म समोसे और कचौड़ियाँ भी चाय के साथ परोसी जाती थीं।
बदलते वक़्त के साथ चाय की विरासत
हालाँकि समय के साथ लखनऊ में चाय पीने के तरीकों में बदलाव आया है, लेकिन इसकी विरासत आज भी बरकरार है। कैफ़े कल्चर के बढ़ने के बावजूद, पुराने लखनऊ में आज भी कई जगहें हैं जहाँ लोग परंपरागत तरीके से चाय का आनंद लेते हैं।
आज के दौर में भी चौक, नक्खास, और अमीनाबाद के पुराने चायख़ानों में वही पुरानी रौनक देखने को मिलती है। चाहे वो कुल्हड़ वाली चाय हो, या मसाला चाय—लखनऊ की गलियों में इसकी सुगंध और इसके साथ चलने वाली गुफ़्तगू आज भी ज़िंदा है।
पुराने दौर के लखनऊ में चाय सिर्फ़ एक पेय नहीं थी, बल्कि यह लोगों को जोड़ने का एक ज़रिया थी। यह अदब और तहज़ीब का हिस्सा थी, जो महज़ चुस्कियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसमें शायरी, बहसें, और दोस्ती की महक भी थी। आज भले ही समय बदल गया हो, लेकिन लखनऊ की चाय और उससे जुड़ी रिवायतें अब भी इस शहर की रूह में बसती हैं।
➡️अनिल अनूप

Author: जगदंबा उपाध्याय, मुख्य व्यवसाय प्रभारी
जिद है दुनिया जीतने की