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21 March 2025 10:11 pm

संगीत से परे: बिस्मिल्लाह खाँ, एक विरासत, जिसने भारत को विश्व मंच पर प्रतिष्ठा दिलाई

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भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, जिन्होंने शहनाई को वैश्विक पहचान दिलाई। लाल किले से लिंकन सेंटर तक, उनकी मधुर धुनों ने भारतीय संस्कृति को अमर बना दिया। जानिए उनकी प्रेरणादायक यात्रा और अनमोल विरासत!

संगीत एक ऐसी विधा है, जो सीमाओं और भाषाओं से परे आत्मा को छूती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा में शहनाई को वैश्विक पहचान दिलाने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। आज, उनकी 109वीं जयंती के अवसर पर, आइए उनके जीवन के रोचक पहलुओं को जानें और उनकी अद्भुत विरासत को नमन करें।

संगीतमय बचपन और प्रारंभिक जीवन

21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का असली नाम कमरुद्दीन खाँ था। उनके पिता पैगंबर बख्श खाँ महाराजा केशव प्रसाद के दरबार में शहनाई वादक थे। यही कारण था कि संगीत उनकी धरोहर में था। परिवार में अधिकांश सदस्य शहनाई वादन से जुड़े थे, और उनके दादा भी इसे साधते थे।

महज छह साल की उम्र में वे अपने मामा अली बख्श के साथ वाराणसी आ गए, जो खुद काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे। यहीं से उस्ताद ने अपनी शहनाई साधना शुरू की और वाराणसी की गलियों ने उन्हें वह आत्मीयता दी, जिसने उनकी कला को अद्वितीय बना दिया।

पहली सफलता और अंतरराष्ट्रीय पहचान

बिस्मिल्लाह खाँ ने अपने करियर की शुरुआत स्टेज परफॉर्मेंस से की। हालाँकि, उन्हें असली पहचान 1937 में कोलकाता के ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में मिली, जहाँ उनकी शहनाई की गूंज ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद, उन्होंने न सिर्फ भारत में, बल्कि अमेरिका, कनाडा, ईरान, इराक, अफगानिस्तान, वेस्ट अफ्रीका, बांग्लादेश जैसे कई देशों में अपनी प्रतिभा का जादू बिखेरा।

उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ी कि वे पहले भारतीय कलाकार बने, जिन्हें न्यूयॉर्क के प्रतिष्ठित लिंकन सेंटर हॉल में शहनाई वादन के लिए आमंत्रित किया गया। इसके अलावा, उन्होंने मॉन्ट्रियल विश्व प्रदर्शनी, कान फिल्म फेस्टिवल, और ओसाका ट्रेड फेयर जैसे वैश्विक आयोजनों में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया।

स्वतंत्रता दिवस और ऐतिहासिक भूमिका

भारत की स्वतंत्रता के ऐतिहासिक क्षण में भी उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई गूँजी। 15 अगस्त 1947 को जब देश ने अंग्रेजों की बेड़ियों से आज़ादी पाई, तब लाल किले पर उनके शहनाई वादन ने इस गौरवशाली पल को अमर बना दिया। आज भी, हर स्वतंत्रता दिवस पर उनकी शहनाई की धुन राष्ट्रीय प्रसारण में सुनी जाती है, जो उस ऐतिहासिक दिन की याद दिलाती है।

धार्मिक सौहार्द का प्रतीक

हालाँकि वे एक मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखते थे, लेकिन उनकी श्रद्धा बनारस के गंगा-जमुनी तहज़ीब से गहराई से जुड़ी थी। वे काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे, तो वहीं मोहर्रम के अवसर पर उनकी शहनाई की दर्द भरी धुन लोगों की आँखें नम कर देती थी। उनकी कला ने कभी धर्म की सीमाओं को स्वीकार नहीं किया, बल्कि संगीत को मानवता की सच्ची भाषा के रूप में प्रस्तुत किया।

सम्मान और उपलब्धियाँ

बिस्मिल्लाह खाँ को भारतीय संगीत के प्रति उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया—

1956 – पद्मश्री

1968 – पद्म भूषण

1980 – पद्म विभूषण

2001 – भारत रत्न (संगीत के क्षेत्र में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान)

वे अपने अंतिम दिनों तक शहनाई के प्रति समर्पित रहे और 21 अगस्त 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी मृत्यु के बाद पूरे भारत में राष्ट्रीय शोक मनाया गया।

बिस्मिल्लाह खाँ की विरासत

आज, जब हम उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की जयंती मना रहे हैं, तो यह समझना ज़रूरी है कि उन्होंने सिर्फ शहनाई नहीं बजाई, बल्कि उसे संगीत की आत्मा बना दिया। उनकी शहनाई की गूँज काशी के घाटों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक फैली और भारतीय शास्त्रीय संगीत को एक नई ऊँचाई दी।

उनकी यह विरासत हमें याद दिलाती है कि संगीत सीमाओं, जातियों और धर्मों से परे एक आध्यात्मिक अनुभूति है। उनका जीवन और संगीत हमें प्रेम, समर्पण और सांस्कृतिक समन्वय का संदेश देता है।

नमन शहनाई के इस जादूगर को!

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाता है कि समर्पण और साधना से संगीत कैसे ईश्वर का रूप ले सकता है। उनकी शहनाई की मधुर ध्वनि हमेशा भारतीय संस्कृति की पहचान बनी रहेगी। उनके जन्मदिवस पर हम सभी उनके योगदान को नमन करते हैं और उनकी आत्मा को शांति की कामना करते हैं।

वाह उस्ताद! आपकी शहनाई की गूँज युगों-युगों तक गूंजती रहेगी!

➡️अनिल अनूप

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