शशांक झा की रिपोर्ट
पटना की गलियों से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाली रूबी खातून का जीवन उन संघर्षों की कहानी है, जो एक मुस्लिम महिला को थिएटर जैसे पुरुष-प्रधान क्षेत्र में जगह बनाने के लिए लड़ने पड़ते हैं। बिहार की पहली मुस्लिम महिला थिएटर आर्टिस्ट के रूप में 2022 में राष्ट्रीय बिस्मिल्लाह खां अवॉर्ड से सम्मानित रूबी का सफर आसान नहीं था।
रूबी का जन्म एक साधारण मुस्लिम परिवार में हुआ, जहां परंपराओं और मान्यताओं का कठोर पालन किया जाता था। पर्दे के पीछे रहने की संस्कृति ने उनके जीवन को सीमित कर दिया था, लेकिन उनके भीतर की कलाकार इस सीमितता को तोड़ने के लिए बेताब थी। एक समय था जब मुस्लिम परिवारों में थिएटर को एक ‘गुनाह’ माना जाता था, और रूबी को इस संघर्ष का हर कदम पर सामना करना पड़ा।
संघर्ष की शुरुआत और पारिवारिक विरोध
रूबी की कहानी पटना के एक छोटे से मोहल्ले से शुरू होती है, जहां एक थिएटर आर्टिस्ट के रूप में उभरने के उनके सपने को समाज और परिवार दोनों की आपत्तियों का सामना करना पड़ा। रूबी के पिता, जो पहले उनकी थिएटर गतिविधियों से अनजान थे, अखबार में उनकी तस्वीर देखकर क्रोधित हो गए। रिश्तेदारों और मोहल्लेवालों के दबाव ने पिता को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने रूबी को घर और थिएटर में से एक को चुनने का अल्टीमेटम दे दिया। यह एक ऐसा पल था जिसने रूबी की जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया।
“अगर उस दिन मैंने पिता की बात मान ली होती, तो आज मैं किसी गांव में पर्दे के पीछे होती,” रूबी कहती हैं। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। अपने परिवार, समाज और धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ जाकर उन्होंने थिएटर में अपनी जगह बनाई।
थिएटर से राष्ट्रीय पुरस्कार तक
रूबी ने 16 साल की उम्र में थिएटर में कदम रखा और अपने दम पर खुद को स्थापित किया। लेकिन आर्थिक तंगी और समाज की आलोचनाओं ने हमेशा उनका पीछा किया। प्ले करने के बाद रात 11-12 बजे घर लौटने पर मोहल्ले के लोग उनके चरित्र पर सवाल उठाते थे। बावजूद इसके, उन्होंने हार नहीं मानी और थिएटर में लगातार काम करती रहीं।
पटना के विभिन्न थिएटर ग्रुप्स के साथ काम करने के बाद उन्होंने अपनी पहचान बनाई। उनके प्रदर्शन ने न केवल दर्शकों का दिल जीता, बल्कि उनके पिता की सोच भी बदली। रूबी का सबसे बड़ा अचीवमेंट तब आया जब उनके पिता ने उनका प्ले देखकर उनकी तारीफ की। “दुनिया की तारीफ से बड़ी मेरे पिता की वैलिडेशन थी,” रूबी कहती हैं।
समाज और आर्थिक तंगी के बीच जद्दोजहद
रूबी का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। 2022 में राष्ट्रीय अवॉर्ड मिलने के बाद भी काम मिलना मुश्किल हो गया। कोरोना महामारी के बाद थिएटर शो की कमी और नए कलाकारों को सस्ते में काम करने की प्रवृत्ति ने उनके करियर को पीछे धकेल दिया। अब उन्हें मॉल उद्घाटन जैसे इवेंट्स में एंकरिंग करनी पड़ती है, जिससे महीने का खर्च मुश्किल से चल पाता है।
रूबी कहती हैं, “थिएटर की कलाकार को मॉल के उद्घाटन में संचालन करना पड़े, तो यह कलेक्टिव फेल्योर है।” बावजूद इसके, उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी। पापा की बीमारी और आर्थिक संकट के बीच वे अपने सपनों के साथ संघर्ष कर रही हैं।
रूबी खातून की कहानी केवल एक थिएटर आर्टिस्ट की नहीं, बल्कि हर उस महिला की है जो समाज की रूढ़ियों और परिवार की अपेक्षाओं के खिलाफ जाकर अपने सपनों को जीने की हिम्मत करती है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."