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22 March 2025 1:47 am

कठपुतली: डोरियों में बंधी कला, समय की लय पर थिरकती परंपरा

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विश्व कठपुतली दिवस पर जानिए इस प्राचीन कला का इतिहास, महत्व और आधुनिक दौर में इसकी चुनौतियां। राजस्थान से बंगाल तक फैली विविध कठपुतली परंपराओं, सामाजिक जागरूकता में इसके योगदान और इसे जीवंत रखने वाले कलाकारों की कहानी पढ़ें।

21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाया जाता है, जो इस प्राचीन कला के संरक्षण और इसके महत्व को रेखांकित करने का अवसर है। कठपुतलियां, जो कभी मेलों, गांवों और मोहल्लों में मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करती थीं, अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। टेलीविजन और इंटरनेट के प्रभाव ने इस पारंपरिक कला को बच्चों से दूर कर दिया है। हालांकि, लखनऊ जैसे शहरों में कुछ कलाकार अब भी इस विधा को जीवंत बनाए हुए हैं।

कठपुतली कला: अतीत से वर्तमान तक का सफर

कठपुतली एक ऐसी कला है जो सदियों से न केवल मनोरंजन बल्कि सामाजिक जागरूकता फैलाने का भी माध्यम रही है। पहले यह कला केवल कहानियों और लोकगीतों तक सीमित थी, लेकिन समय के साथ इसने सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता फैलाने का भी कार्य किया।

लखनऊ में जन्मी गुलाबो-सिताबो कठपुतली कला इसकी सबसे प्रसिद्ध विधाओं में से एक है। लगभग 200 साल पहले नवाबों के दौर में यह कला विकसित हुई, जहां घरेलू झगड़ों और समाज की कहानियों को कठपुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता था।

हालांकि, डिजिटल युग ने कठपुतलियों को दर्शकों से दूर कर दिया है। मोबाइल स्क्रीन पर थिरकती उंगलियों ने नई पीढ़ी को इस कला से अनभिज्ञ कर दिया है। लेकिन, कलाकार प्रदीप नाथ त्रिपाठी जैसे कुछ समर्पित लोग इसे जीवंत रखने के प्रयास कर रहे हैं।

कठपुतली कला का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

कठपुतली कला का इतिहास 3000 साल से भी अधिक पुराना है। इसका प्राचीनतम प्रमाण मिस्र की सभ्यता में मिलता है। भारत में भी इसका उल्लेख महाभारत और पंचतंत्र जैसी पौराणिक कथाओं में किया गया है। महाभारत में अर्जुन द्वारा ब्रहन्नला को कठपुतली कला सिखाने का उल्लेख मिलता है, जबकि विक्रमादित्य के समय में सिंहासन बत्तीसी कठपुतली कला का उदाहरण था।

भारत में कठपुतली न केवल मनोरंजन का साधन रही, बल्कि शिक्षा और जागरूकता का माध्यम भी बनी। राजस्थान, ओडिशा, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में यह कला अलग-अलग स्वरूपों में विकसित हुई।

भारत में कठपुतली की प्रमुख शैलियां

1. राजस्थान की कठपुतली: इसे कठपुतली नृत्य के रूप में जाना जाता है, जिसमें लकड़ी से बनी पतली कठपुतलियां रंग-बिरंगे कपड़ों में सजाई जाती हैं।

2. ओडिशा की कुंधेई: इसमें पैर नहीं होते, बल्कि लंबी स्कर्ट पहने हुए कठपुतलियां पारंपरिक ओडिसी नृत्य के साथ प्रस्तुत की जाती हैं।

3. कर्नाटक की गोम्बेयट्टा: यह यक्षगान नाटकों से प्रभावित कठपुतली कला है, जिसमें बड़े और आकर्षक मुखौटे होते हैं।

4. तमिलनाडु की बोम्मालट्टम: इसमें छड़ी और डोरी दोनों तकनीकों का मिश्रण होता है, जिससे कठपुतली को अधिक गतिशील बनाया जाता है।

5. पश्चिम बंगाल की पुतुल नाच: यह लकड़ी की बनी कठपुतली होती है, जो पारंपरिक बंगाली लोककथाओं को जीवंत बनाती है।

6. बिहार की यमपुरी: यह पारंपरिक छड़ी कठपुतली है, जो अद्वितीय विशेषताओं के कारण दर्शकों को आकर्षित करती है।

आधुनिक युग में कठपुतली कला

तकनीक के विकास के साथ कठपुतली कला भी बदली है। अब डिजिटल कठपुतली एनिमेशन, 3D मॉडलिंग और इंटरैक्टिव गेम्स के रूप में उभर रही है। हालाँकि, पारंपरिक कठपुतली प्रदर्शन अभी भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

हाल ही में, प्रदीप नाथ त्रिपाठी जैसे कलाकार इस कला को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। उन्होंने स्पेन, जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस में कठपुतली समारोहों में भारत का प्रतिनिधित्व किया और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

कठपुतली कला का भविष्य

भले ही डिजिटल मनोरंजन ने कठपुतली कला को पीछे धकेल दिया हो, लेकिन यह कला अभी भी प्रासंगिक है। अगर इसे सही मंच और संरक्षण मिले, तो यह फिर से लोकप्रिय हो सकती है।

इस विश्व कठपुतली दिवस पर हमें इस पारंपरिक कला को पुनर्जीवित करने का संकल्प लेना चाहिए। स्कूलों, कला संस्थानों और सामुदायिक थिएटरों में कठपुतली प्रदर्शन को बढ़ावा देना चाहिए ताकि नई पीढ़ी इसे देखे, समझे और अपनाए।

कठपुतली केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, शिक्षा और समाज को जोड़ने वाली एक कड़ी है। हमें इस विलुप्त होती लोककला को संरक्षित करने और इसे एक बार फिर मुख्यधारा में लाने के प्रयास करने चाहिए। अगर हम इसे बचाने के लिए समय पर कदम नहीं उठाते, तो हमारी आने वाली पीढ़ियां इस अनमोल धरोहर से वंचित रह जाएंगी।

तो आइए, इस विश्व कठपुतली दिवस पर हम अपनी पुरानी यादों को ताजा करें और इस कला को जीवंत रखने में योगदान दें!

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