अनिल अनूप की खास रिपोर्ट
दालमंडी…बनारस…एक बेतरतीब सी गली, वैसे इसके नाम पर ताे कतई मत जाइएगा। यहां दाल की मंडी जैसा अब कोई बाजार नहीं लगता।
बाबा विश्चनाथ मंदिर के पास ही स्थित दालमंडी की संकरी गली में कदम रखते ही ऐसा लगेगा जैसे आप दिल्ली के पालिका बाजार या जयपुर के बापू बाजार या भोपाल के चौक बाजार में पहुंच गए हों।
गली की शुरुआत में मोबाइल की दुकानें हैं, मगर जैसे-जैसे अंदर चलते जाएंगे, यहां हर ओर लड़कियों-महिलाओं के लिए ड्रेसेज, जूतियां या पर्स बिकते नजर आएंगे।
दालमंडी वाली गली में पहुंचें तो आपको इसका नाम एक स्ट्रीट बोर्ड पर लिखा दिखाई देगा- हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग। लोगों की जुबान पर दालमंडी नाम भले ही हो, मगर, बनारस के सरकारी कागजों से दालमंडी नाम गायब है। ऐसा क्यों, यह भी जानेंगे। आज यहां की करीब 200 साल पुरानी इमारतों में रंगरोगन होकर कॉस्मेटिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकानें सजी हैं।
इस दालमंडी की कहानी जितनी पुरानी है, उतने ही चमकते-दमकते किस्सों से भी भरी है। तो चलिए अब आपको इसी मशहूर दालमंडी के फ्लैशबैक में ले चलते हैं।
बनारस शहर के बनने की कहानी 3500 साल से ज्यादा पुरानी है, इसकी गिनती स्कंद पुराण में बताई गई सप्त पुरियों में होती है। शहर बना तो गलियां भी विकसित हुईं। दालमंडी गली भी कहीं कम पुरानी नहीं है।
उस जमाने में यहां बनने वाले घर या इमारतें लाल बलुआ पत्थर से बनती थीं। ये तत्कालीन बनारस का हिस्सा रहे मिर्जापुर के चुनार से आते थे। इन ईंटों और पत्थरों की जुड़ाई सुर्खी और चूने से होती थी। यही वजह थी कि ये इमारतें बरसों बाद आज भी उतनी ही मजबूती से खड़ी हैं।
अंग्रेजों से पहले ये बाजार क्या था, उनके आने के बाद क्या बदला, सबसे पहले इसी से रूबरू हो लेते हैं।
दाल के कारोबार से शुरू हुआ यह बाजार, तवायफों का बना ठिकाना
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) में प्रोफेसर केके मिश्रा बताते हैं कि बनारस घराने के मशहूर तबला वादक पंडित किशन महाराज ने 1986 में सन्मार्ग में एक लेख लिखा-’संगीत की जननी है काशी।’ जिसमें उन्होंने कहा है कि मुगलों के जमाने से भी पहले से दालमंडी एक बाजार के रूप में विकसित हुई।
16वीं सदी में यह बाजार फेमस हो चला था। यह मंडी बनारस के संगीत घरानों का शुरुआती रूप रहा है। प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, मुंबई के डायरेक्टर रहे डॉ. मोतीचंद ने अपनी किताब ’काशी का इतिहास’ में बताया है कि दालमंडी में कभी दालों का कारोबार हुआ करता था। बनारस के रईस यहां दाल का कारोबार करते और शाम होते-होते यहां मनोरंजन भी करते। उस वक्त यहां पर भांड़ मंडली हुआ करती थी, जो इन रईसों का मनोरंजन नाच-गाकर करती।
मुगलों की आखिरी पीढ़ी के जमाने में यह दालमंडी पास ही में विशेसरगंज में शिफ्ट हो गई और दालमंडी में गाने वाले, नाचने वाले और कलाकार बसने लगे।
लेखक विश्वनाथ मुखर्जी अपनी किताब ‘बना रहे बनारस’ में बताते हैं कि 18वीं सदी के आसपास यहां संगीतकार, शास्त्रीय संगीत की साधना करते थे। दालमंडी में रईस लोग शाम के समय कान में इत्र में डूबी रुई रखकर, सफेद बनारसी ड्रेस पहनकर, मुंह में पान की गिलौरी और साथ में पीकदान भी लेकर चलते थे और दालमंडी में संगीत का आनंद लेते थे। तब बनारसी लोग पान खाकर इधर-उधर थूका नहीं करते थे।
यहीं से सितारा देवी और बागेश्वरी देवी जैसी हस्तियां निकलीं। बाद में जब अंग्रेज आए तो उन्होंने यहां पर तवायफों को बसाना शुरू किया, जहां जमींदार, रईसजादे और अंग्रेज लोग मनोरंजन के लिए आया करते थे।
अंग्रेजों के आने बाद इस इलाके का रूप बिगड़ गया। एक समय में पूरे पूर्वांचल को दाल मुहैया कराने वाली दालमंडी का नाम इसी दौरान ‘डॉलमंडी’ भी हो गया। इसकी वजह है कि अंग्रेज तवायफों को ‘डॉल’ कहते थे। इस वक्त भी यहां दालें बिका करतीं।
18-19वीं सदी में दालमंडी में तवायफों का बसना शुरू हुआ। कुछ ही दशकों में बनारस की इस गली में अलग-अलग राग गाए जाने लगे। नीचे यह ग्राफिक देख लेते हैं फिर आगे बढ़ते हैं।
दो मंजिला कोठों में नीचे कारोबार, ऊपर तवायफों का मुजरा
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़े और इसी मार्केट में रेडीमेड कपड़ों की दुकान चलाने वाले 75 साल के तनवीर हसन के जेहन में आज भी पुरानी दालमंडी की यादें और किस्से ताजा हैं। वह बताते हैं- इस गली में नीचे दुकानों में दाल का कारोबार होता और ऊपरी मंजिल के बंद दरवाजों के बाहर तक तवायफों के घुंघरुओं, तबले की थाप और कसक में डूबी आवाज गूंजतीं।
दुकानों के ऊपर बने कोठे शाम गहराते-गहराते मुजरे की आवाज से गुलजार हो जाया करते। कहीं से वाह-वाह सुनाई पड़ता तो कोई नजर चुराकर गुजरता दिख जाता।
लेकिन आज इन गलियों में सजी मोबाइल की एक दुकान पर हमें पाकीजा फिल्म का मशहूर गाना सुनाई दिया- इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा। मगर, आज इन गलियों में सुर, साज और आवाज सभी खामोश हैं।
अब न कोठे रहे न तवायफें, दो मंजिला इमारतों में घर-गृहस्थी चल रही हैं और नीचे ब्राइडल वेयर और कॉस्मेटिक का इतना बड़ा कारोबार जहां दूसरे इंसान से टकराए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते।
70 के दशक में इस इलाके को खाली कराए जाने से तवायफें बनारस के एक और मोहल्ले शिवदासपुर में जाकर बस गईं, जहां आज भी उन्हें आसपास के कई इलाकों के लोगों का विरोध झेलना पड़ता है।
जद्दनबाई, छप्पन छुरी, गौहरजान… दालमंडी से निकले मशहूर नाम
कहते हैं कि आधुनिक हिंदी के अगुवा भारतेंदु हरिश्चंद्र भी दालमंडी की इसी गली की एक नर्तकी मल्लिका के दीवाने थे। वह जब-तब उससे मिलने आ ही जाया करते। तौकीबाई, हुस्नाबाई, बॉलीवुड अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई, छप्पन छुरी के नाम से चर्चित जानकीबाई, गौहरजान, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, विद्याधरी, ये सभी नाम पूरे देश में मशहूर थे और आज भी हैं।
इनका ऐसा जलवा था कि ये अपनी प्रस्तुति देने बग्घी या डोली पर बैठकर जातीं। राजे-रजवाड़ों के जमाने में राजा और राजपुरोहित के बाद केवल राजनर्तकी ही अपने साथ चंवर और राजदंड ले जा सकती थीं।
बड़ी बात यह है कि दालमंडी में कभी देह का सौदा नहीं होता था। यहां केवल संगीत और नृत्य की ही साधना हुआ करती थी। तनवीर बताते हैं कि पद्मा खन्ना, नरगिस, गोविंदा जैसी हस्तियों का यहां से नाता रहा है।
चौकी पर रखी बिस्मिल्लाह खां की शहनाई अब खुद ही कर रही रियाज
दालमंडी में कुछ दूर तक चलने के बाद दाईं ओर एक और गली खुलती है, जहां से कुछ कदम पर एक नई गली नजर आती है। इसे सराय हड़हा कहते हैं। यही गली भारतरत्न बिस्मिल्लाह खां साहब के घर तक ले जाती है।
इसी पुराने से मकान की तंग सीढ़ियों से हम उस कोठरी तक पहुंचे, जहां एक चौकी पर खां साहब की शहनाई रखी हुई है। पास बजते रिकॉर्ड से खां साहब की पसंदीदा धुन हवा में तैर रही थी। ऐसा लगा कि खां साहब रियाज कर रहे हैं। उनके पौत्र नासिर अब्बास बिस्मिल्लाह कहते हैं कि बाबा अक्सर शाम को हमें बुलाते और कहते- ‘अरे भाई ऐसे ही क्यों बैठे हो, चलो सुर में कुछ बतिया लिया जाए।’ और फिर घंटों रियाज चलता।
नासिर अब्बास ने बताया कि खां साहब तो यहां तक कहते थे, ‘अगर कोठे नहीं होते, तो तवायफें नहीं होतीं और बिस्मिल्लाह खां भी नहीं होता।’ वह मानते थे कि जिस तरह की पक्की गायकी कोठे पर होती है, वह कहीं और नहीं मिल सकती। बिस्मिल्लाह खां के सबसे छोटे बेटे नाजिम हुसैन मशहूर तबला वादक हैं। रॉकस्टार, लिंगा, बाहुबली, RRR फिल्म में नाजिर हुसैन ने तबला बजाया है। 36 वर्षों तक पिता बिस्मिल्लाह खां के साथ कई देशों में तबले पर साज भी दिया। नाजिम हुसैन सराय हड़हा की इसी हवेली में रहते हैं। वह बताते हैं कि बिस्मिल्लाह खां साहब मुजफ्फरपुर की तवायफ बृजबाला की गायकी के मुरीद थे।
दोनों की मुलाकात एक महफिल में हुई थी। फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ में संगीतकार भरत व्यास ने ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ गीत में बृजबाला की ही धुन का इस्तेमाल किया। खां साहब ने भी इसमें शहनाई बजाई थी।
तनवीर कहते हैं एक समय फिल्मों में जो कोठा दिखाया जाता था, वह कहीं न कहीं बनारस की इन्हीं गलियों से प्रेरित था। राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में कोठे का एक हिस्सा यहीं पर फिल्माया गया था। गायन, वादन और नृत्य के जिन घरानों के लिए बनारस मशहूर रहा, उनमें से कई इसी दालमंडी से फले-फूले।
तनवीर बताते हैं कि दालमंडी गली में पहुंचते ही कहीं ठुमरी, कहीं पूरबी की आवाज आती थी। कहीं सारंगी तो कहीं शहनाई की धुन सुनाई देती। यही वजह है कि इटावा घराने के मशहूर सितारवादक उस्ताद विलायत खान ने कहा है, ‘बनारस, संगीत की खराद मशीन है जहां फनकार की घिसाई होती है और वह संवरकर, निखरकर निकलता है’।
‘फूलगेंदवा न मारो, लागत जोबनवा में चोट’
रसूलन बाई का नाता भी दालमंडी से रहा। तनवीर बताते हैं कि बुजुर्गों से सुना है कि जब रसूलन बाई मुजरा गातीं तो बनारस के रईसों और जमींदारों का जमावड़ा देखने वाला होता। ‘मटुकिया मोरी छिन ले गयो सांवरिया’, ‘फूलगेंदवा न मारो लागत जोबनवा में चोट’ जैसे मुजरों की लोकप्रियता कितनी थी, इसे बताना मुश्किल है।
डॉ. प्रवीण कुमार झा ने अपनी किताब ‘वाह उस्ताद, हिंदुस्तानी संगीत घरानों के किस्से’ में लिखा रसूलन बाई का मुजरा- ‘अजी फूल गेंदवा न मारो, लागत करेजवा में चोट’ मन्ना डे ने भी गाया। रसूलन बाई का गाया दादरा, ‘ठाढे रहियो रे ओ बांके यार’, फिल्म ‘पाकीजा’ का हिस्सा बना। यह गीत लता मंगेशकर ने गाया, जिसे मीना कुमारी पर फिल्माया गया था।
इसी तरह ठुमरी की महारानी गिरिजा देवी का भी संबंध दालमंडी से रहा। डॉ. प्रवीण बताते हैं कि बनारस में जो कद उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का रहा, वही गिरिजा देवी का है। गिरिजा देवी ने ठुमरी ही नहीं, दादरा, चैती, कजरी, टप्पा, होरी और छोटा ख्याल शास्त्रीय संगीत के सभी रूप समय-समय पर गाए हैं। गिरिजा देवी को लोग प्यार से ‘अप्पा जी’ बुलाते थे। उनका तंबाकू खाना, खिलंदड़पन और मस्ती की ढेरों कहानियां हैं।
बंद कमरे में रियाज करते थे लच्छू महाराज
दालमंडी की एक गली में बनारस घराने के मशहूर तबलावादक लक्ष्मी नारायण सिंह भी हुए। इन्हें लच्छू महाराज नाम से जाना जाता है। उनकी उंगलियों से जब धिर-धिर-तिटकत और ताक-धिन-धिन्ना की ताल झड़ती तो सभी उसमें डूब जाते। 71 साल की उम्र में भी जब वह तबले पर थाप देते तो वह बेजोड़ होता था। देश में जब आपातकाल लगा तो वह जेल भी गए।
दालमंडी के कटरा राजपूत में लच्छू महाराज की हवेली है। लच्छू महाराज के भाई जय नारायण सिंह के बेटे वैभव सिंह ने बताया कि उनके दादा कुबेर सिंह मूल रूप से सुल्तानपुर के रहने वाले थे।
वह 10-12 साल की उम्र से ही रियाज करने लगे थे। रियाज के वक्त वह दालमंडी के कटरा राजपूत हवेली में ऊपर के कमरे को बंद कर लेते। पंखा नहीं चलता और सिर्फ एक मोमबत्ती जलती।
इसी दालमंडी में एक से बढ़कर एक फनकार हुए लेकिन वक्त के साथ सब भुला दिए गए। जो दालमंडी तबले की थाप और ठुमरी गायन से सराबोर रहती वो अब एक बड़े बाजार के रूप में तब्दील है।
दालमंडी की इसी हवेली से अभिनेता गोविंदा का भी जुड़ाव
जिस हवेली में अंतिम समय तक लच्छू महाराज रहे उसी हवेली में निर्मला देवी का भी जन्म हुआ। निर्मला देवी वासुदेव सिंह की बेटी थीं। यानी लच्छू महाराज की बहन। निर्मला देवी बनारस की बड़ी ठुमरी गायिकाओं में गिनी जाती हैं। निर्मला देवी के ही बेटे हैं फिल्म स्टार गोविंदा। इस लिहाज से गोविंदा का ननिहाल है दालमंडी। राज नारायण कहते हैं इसी हवेली में लच्छू महाराज ने अपने भांजे गोविंदा को भी तबला बजाना सिखाया।
जब धनेसरीबाई ने चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों से बचाया था
एक तवायफ थीं धनेसरीबाई। तब भारत के स्वतंत्रता संग्राम का दौर चल रहा था। वह चौक में थाने के पीछे रहा करती थीं। कहा जाता है कि चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों से बचने के लिए कई बार धनेसरीबाई के घर में ही पनाह लेते थे। धनेसरीबाई तो इतनी बहादुर महिला थीं कि वह अंग्रेजों को अपने दरवाजे से ही रफा-दफा कर देती थीं।
जद्दनबाई के कोठे पर अंग्रेज मारते छापा, रसूलनबाई ने गहने तभी पहने जब देश आजाद हुआ
आजादी की लड़ाई के दौरान ऐसा नहीं है कि बनारस की इन तवायफों ने केवल लोगों के मनोरंजन से ही वास्ता रखा। उनके कोठे पर संगीत की महफिलें सजती थीं। इन्हीं महफिलों में अंग्रेजों को देश से बाहर करने के बारे में बातें होतीं। जद्दनबाई के कोठे पर ऐसी महफिलें खूब सजतीं। उनके यहां तो आए दिन अंग्रेज छापा मारते, जिससे तंग आकर उन्होंने दालमंडी ही छोड़ दी थी।
यही हाल सिद्धेश्वरी देवी के महफिलों का भी रहता, जहां वह देशभक्ति गीत गाकर चाहने वालों में जोश भरतीं।
रसूलनबाई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गहने तभी पहने जब देश आजाद हो गया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान रसूलनबाई को इबादत की आवाज कहा करते थे। आजादी के बाद उनके शौहर सुलेमान पाकिस्तान चले गए, मगर रसूलनबाई को हिंदुस्तान छोड़ना गवारा न हुआ। वहीं तवायफ दुलारीबाई के कहने पर उनके सबसे खास नन्हकू ने कई अंग्रेजों को मार गिराया था।
एक हकीम के नाम पर पड़ा दालमंडी का नाम
अब चलते-चलते जरा ये जान लीजिए कि आज के बनारस में दालमंडी का नाम हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग क्यों पड़ा? दरअसल, दालमंडी का नाम यहां के सरकारी कागजों में कहीं भी दर्ज नहीं है। यहां आने वाले अंग्रेज अफसरों और रईस लोगों ने अपनी इज्जत पर आंच न आए, इसलिए इस मोहल्ले का नाम सरकारी कागजों में दर्ज ही नहीं करवाया।
दालमंडी गली का नाम जाफर मार्ग रख दिया था। 2018 में जब नगर निगम ने यहां अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया तो लाल पत्थर पर एक शिलापट्ट मिला, जिस पर यह नाम लिखा था, जिसे 1962 में फिर से लगाया गया था। हकीम जाफर बनारस के पितरकुंडा मुहल्ले के रहने वाले थे। 1840 में जन्मे हकीम साहब यूनानी तरीके से टीबी और कोढ़ के इलाज करते थे। बनारस और ग्वालियर के राजघराने उनके इसी इलाज के कायल थे।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."