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घायल, अधनंगी, नाबालिग, रेप पीड़िता दर-दर मदद मांगती रही और सबने दुत्कार दिया…. कैसे इंसान हैं हम 

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की खास रिपोर्ट 

एक बच्ची मदद की गुहार लगाती रही। एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक दस्तक देती रही। कमर के नीचे बदन पर कपड़ा नहीं है। खून से लथपथ, जख्मी हालत, अधनंगा बदन…लेकिन कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आया। 12 साल की बच्ची के साथ दरिंदगी हुई थी। उसके साथ रेप की आशंका है। वह ढाई घंटे तक गलियों में भटकती रही लेकिन उसकी गुहार, उसकी पुकार किसी ने नहीं सुनी। इंसानियत जैसे मर गई हो। एक रेप पीड़ित बच्ची के दर-बदर भटकने की झकझोर देने वाली घटना सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गई। एक फुटेज में ये दिख रहा है कि एक शख्स अपने घर के बाहर दरवाजे पर खड़ा है। लड़की मदद की भीख मांगती है लेकिन वह बेशर्मी से दुत्कारते हुए आगे बढ़ने को कहता है। 

ये घटना है धर्मनगरी उज्जैन से 15 किलोमीटर दूर बडनगर रोड की। एक और घटना देखिए। संयोग से ये भी एक धर्मनगरी की है। मध्य प्रदेश की नहीं, बल्कि यूपी के वाराणसी की। सड़क पर पानी में एक बच्चा गिरा हुआ है। तड़प रहा है क्योंकि पानी में बिजली का करंट उतरा हुआ है। सड़क से होकर गाड़ियां गुजरती हैं, लोग गुजरते हैं लेकिन बच्चे की मदद की कोई कोशिश तक नहीं करता। भला हो उन दो बुजुर्गों का जिन्होंने बच्चे की जान बचाने की कोशिश की और कामयाब भी हुए। 

आखिर हम कैसे इंसान हैं जो रेप पीड़ित बच्ची की मदद करने के बजाय उसे दुत्कारते हैं? आखिर कैसे इंसान हैं हम जो एक बच्चे को तड़पते हुए देखते हैं लेकिन दिल नहीं पसीजता, उसकी मदद के लिए आगे नहीं बढ़ते? आखिर हम कैसे इंसान हैं जो दुर्घटना में जख्मी या किसी मनबढ़ अपराधी की बीच सड़क पर करतूतों पर तमाशबीन बने रहते हैं? मदद के लिए आगे नहीं आते लेकिन किसी के दर्द का, किसी की चीख का और कभी-कभार तो किसी की मौत के पलों को मोबाइल फोन के कैमरों में कैद करने तक की बेशर्मी जरूर करते हैं।

दुनिया लगातार तरक्की कर रही है। विज्ञान लगातार चमत्कार कर रहा है। एक से एक तकनीकें आ रही हैं। विकास हो रहा है। लेकिन इन सबके बीच कहीं न कहीं इंसानों की संवेदनाएं मरती जा रही हैं। संवेदना के स्तर पर हम पत्थर होते जा रहे हैं। स्वार्थी होते जा रहे। मुझे क्या, मेरा क्या लेना-देना, यह भाव लोगों के जेहन में गहराई में उतरता जा रहा है। समाज के तौर पर हम कहीं न कहीं नाकाम होते जा रहे हैं। 

शहरीकरण से पहले ही सामाजिक ताना-बाना बिखर चुका है। लोग खुद में इतने मशगूल और खुदगर्ज हो गए हैं कि उन्हें आस-पास में क्या हो रहा उससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। लेकिन संवेदना सिर्फ शहरों में नहीं मर रही। गांवों में भी मर रही। कोई संकट में है तो क्या हुआ? कोई हादसे के बाद तड़प रहा है तो क्या हुआ? वे मदद की गुहार लगाते रहेंगे लेकिन हम तमाशबीन बने रहेंगे। अगर समय रहते पीड़ित को मदद मिल जाए तो उसकी जान बच सकती है। अगर तमाशबीन भीड़ में से दो-तीन भी आगे आ जाएं तो बीच सड़क पर किसी को चाकू से गोद रहा बदमाश उल्टे पांव भाग जाए। लेकिन हमें तो ऐसी घटनाओं में वायरल का मसाला दिखता है, वीडियो दिखता है। हम ऐसी घटनाओं पर मोबाइल कैमरे से वीडियो बनाते रहते हैं। तमाशबीनों की भीड़ में अगर किसी का दिल पसीज भी रहा है तो वह चाहता है कि मदद कोई और करे।

आखिर ऐसा क्यों होता है कि लोग तमाशा देखने के लिए तो जुट जाते हैं लेकिन मदद करने से कन्नी काटते हैं? कई बार कोई जानवर संकट में हो तो उसके साथी जानवर भी मदद के लिए हर मुमकिन कोशिश करते दिख जाते हैं। लेकिन इंसान तो शायद अब जानवरों से भी बदतर होता जा रहा। आखिर मदद से कतराने की वजह क्या हैं? सबसे बड़ी वजह है खुदगर्जी। अगर पीड़ित करीबी जान-पहचान का हो, अपना हो तो वही इंसान मदद के लिए आगे आ जाएगा जो बाकी घटनाओं में तमाशबीन बना रहता है। एक बड़ी वजह यह डर भी है कि मदद कर दी तो मुसीबत मोल ले ली। लोग किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। सड़क के किनारे हादसे में किसी जख्मी की मदद हो या किसी अपराधी के हमले में जख्मी शख्स की मदद की बात हो, लोग अक्सर इसलिए कन्नी काट लेते हैं कि इससे वे पचड़े में फंस जाएंगे। पुलिस परेशान करेगी। कोर्ट-कचहरी का चक्कर शुरू हो सकता है। रोजी-रोटी की जद्दोजहद के बीच आखिर कौन मुफ्त में कोर्ट-कचहरी, पुलिस-थाने का चक्कर लेना चाहेगा! लोगों के जेहन से इस डर को दूर करने की जिम्मेदारी पुलिस तंत्र की भी है। मदद करने वाले को गवाही या पूछताछ के नाम पर प्रताड़ित न किया जाए बल्कि उन्हें पुरस्कृत किया जाय।

हादसे या फिर किसी हमले में जख्मी शख्स की मदद करने के बजाय तमाशबीन बने रहने को मनोवैज्ञानिक की भाषा में ‘बाइस्टैंडर इफेक्ट’ कहते हैं। इस थिअरी के मुताबिक, राहगीर इमर्जेंसी हालात में किसी की मदद करने से अन्य लोगों की मौजूदगी की वजह से कतराता है। अगर वह वहां अकेला हो तो शायद मदद के बारे में सोचेगा। भीड़ में जिम्मेदारी के भाव का अभाव होता है। कोई भी ये नहीं सोचता कि मदद करना उसकी जिम्मेदारी है। तमाशबीनों की ये भावना सिर्फ भारत नहीं बल्कि दुनिया के हर कोने में दिखती है। 1964 में अमेरिका के न्यूयॉर्क में 28 साल की महिला कैथरीन किट्टी जिनोवीज को उसके अपार्टमेंट के बाहर चाकुओं से गोदकर मार डाला गया। ये सब कुछ पड़ोसियों की आंखों के सामने हुआ लेकिन कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। किट्टी अपने घर के बाहर खून से लथपथ अचेत पड़ी रही, हमलावर दोबारा आता है और उसे चाकुओं से फिर गोदता है लेकिन कोई उसे रोकता नहीं है। कोई मदद के लिए आगे नहीं आता। इसी कुख्यात घटना के बाद मनोवैज्ञानिकों ने ‘बाइस्टैंडर इफेक्ट’ थिअरी दी थी।

मनोवैज्ञानिक इसे बाइस्टैंडर इफेक्ट कहें या कुछ और, असली वजह तो यही है कि लोगों की संवेदनाएं मरती जा रही हैं। इंसानियत मरती जा रही है। तभी तो रेप पीड़ित बच्ची मदद की गुहार लगाती है तो उसे दुत्कार मिलता है। करंट से बच्चा तड़प रहा है लेकिन लोग मदद की कोशिश के बजाय उसकी तड़प में वायरल कंटेंट खोजते हैं, वीडियो बनाते हैं। इस पतन को रोकना होगा। हम सभी को मिलकर। हम किसी के ‘देवदूत’ बनने की प्रतीक्षा करते हैं लेकिन खुद ‘देवदूत’ बनने की जहमत नहीं उठाते।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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