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जिंदगी एक सफर
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दुल्हे के सिर का ताज (मउर) बनाने वाले कारीगर आज बदहाली की जिंदगी जीने को हैं मजबूर

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 राकेश तिवारी की रिपोर्ट 

गोरखपुर: बदलते वक्त के साथ बहुत सी चीजों ने सांस्कृतिक और भौतिक स्तर पर अपना अस्तित्व खो सा दिया है। लेकिन शादी विवाह में इस्तेमाल होने वाली कुछ चीजें ऐसी हैं, जिनके बिना यह संस्कार अधूरे हैं। जिनमें से एक बहुत महत्वपूर्ण वस्तु है ‘मउर’, जिसे विवाह के वक्त दूल्हे के सर का ताज कहा जाता है। ‘मउर’ (बांस से बनी एक विशेष प्रकार की टोपी) धीरे-धीरे अपना पारंपरिक वजूद खोता जा रहा है। इसे बनाने वाले भी अब बदहाली के कगार पर हैं।

समाज का सबसे निचला तबका बनाता है इस पवित्र ‘मउर’ को

भारतीय संस्कृति और हिंदू मान्यताओं के अनुसार मउर को बनाने के लिए पवित्र और शुभ माने गए बांस (Bambu) का इस्तेमाल किया जाता है। इसको बनाने वाले लोग भी समाज के सबसे निचले तबके से आते हैं, जिन्हें ‘बांसफोर’ कहा जाता है। अपने हाथों से इतनी सुंदर चीजे बनाने वाले लोगों को सभ्य सामाज में इन्हें हेय की दृष्टि से देखा जाता है। हालांकि ऊंच-नीच की भावना को समाज के कुछ ठेकेदारों ने सृजित किया है, पर भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म की खूबसूरती देखिए कि, सामाजिक तौर पर सबसे निचले तबके के लोगों द्वारा बनाए गए ‘मउर’ और डाल जिसमें दुल्हन के लिए शगुन का सामान जाता है। इसे सबसे शुभ और पवित्र माना जाता है।

पापी पेट का सवाल है साहब

गोरखपुर के बाजारों में इसकी कीमत 100 से 200 रुपए तक है। सड़क किनारे इसे बनाकर बेचने वाले कारीगर(बांसफोर) राम पुकार का कहना है कि बाबू अब वो पुरानी वाली बात नहीं रही। राम पुकार कहते हैं कि धंधा भी अब पहले जैसा नहीं रहा। पहले लोग इसे शगुन की वस्तु मानकर मुंह मांगी कीमत देते थे। लोग अपनी हैसियत के हिसाब से 101 से लेकर 1100 और 3100 तक भी अदा करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। फिर भी ज्यादातर लोग हम लोगों द्वारा बनाए गए मउर और डाल का ही इस्तेमाल करते हैं। काम के मुताबिक पैसा तो नहीं मिल पाता पर क्या करें पापी पेट का सवाल है। इसीलिए परंपरागत रूप से इस काम को करते आ रहे हैं। इसी कार्य से फिलहाल मेरी और मेरे जैसे पचासों परिवार की जीविका चल रही है। हम इन्हें पारंपरिक औजारों द्वारा अपने हाथों से बनाते हैं। इसको बनाने में कोई मशीनरी भी इस्तेमाल नहीं की जाती।

महंगाई का असर इस धंधे पर भी दिखाई दे रहा है

बैंक रोड पर सड़क किनारे अपने परिवार के साथ इस काम को बड़ी तन्मयता से अंजाम दे रहे, बांसफोर रामप्रीत कहते हैं कि बाबू यह हमारा पारंपरिक काम है। हम इसे कई पीढ़ियों से करते आ रहे हैं,पर अब महंगाई बहुत ज्यादा हो गई है। इसमें इस्तेमाल होने वाला बांस जो कभी 20 से 25 रुपए में आता था, आज एक बांस की कीमत 200 से 250 रुपए हो गई है। गोरखपुर और इसके आसपास बांस की पैदावार अब ज्यादा नहीं होती। यह ज्यादातर गोरखपुर से सटे आसपास के जिलों से आता है। वहीं इसमें इस्तेमाल होने वाला रंग जिससे इस मउर को रंगा जाता है, उसका भी रेट बढ़ गया है। सरकार की तरफ से किसी प्रकार की मदद की बात पर रामप्रीत बड़े मायूस होकर कहते हैं कि साहब मदद की तो बात छोड़िए फिलहाल धंधे के ही लाले पड़े हैं। खासकर वैवाहिक सीजन में ही सड़क के किनारे हमारा धंधा होता है। गर्मी ,बरसात ,जाडा हम यहीं पर रहते हैं, आए दिन प्रशासन के लोग हमे यहां से हटने के लिए बाध्य करते हैं। लेकिन यदि हम कहीं और जाएंगे तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा। बच्चो को पालना मुश्किल हो जायेगा।

पारंपरिक तरीके से मउर का परछावन होता है

गांव की रहने वाली बुजुर्ग और जानकर महिला लक्ष्मी देवी कहती हैं कि गांव में विवाह तय होने पर बांसफोर को सर्वप्रथम साई (एक तरह से शगुन या एडवांस) दिया जाता है। एक निश्चित तिथि पर बांसफोर जब मउर को लेकर दरवाजे पर आता है तो उसे 5 महिलाएं मिलकर पारंपरिक तरीके से थाली में गुड़, दही, हल्दी, चावल सिंदूर, रखकर बट्टा यानी लोढा से परछती हैं। बसफोर मउर को सौंपने से पहले अपनी कुछ शर्त रखता है, जिसे काफी मान मनौवल के बाद महिलाएं शगुन के तौर पर कुछ धनराशि, अनाज और वस्त्र देकर ससम्मान उसे विदा करती हैं। लक्ष्मी देवी कहती हैं कि यह रिवाज सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथा का एक हिस्सा हुआ करता है।

गांवों में मुंहमांगी कीमत मिलती है

सावित्री देवी कहती है कि आधुनिक समय में यह सारी चीजें धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही हैं, हालांकि गांव में आज भी यह परंपरा जीवित है। शहरों में लोग इसे बाजार से खरीदकर लाते हैं। सावित्री देवी कहती हैं कि मैंने अभी अप्रैल माह में ही अपने बेटे की शादी की है जिसमें शगुन के तौर पर बांसफॉर को मौर और डाल के 3100 रुपए दिए थे।

कहते हैं जानकार पंडित

पंडित राम नाथ चतुर्वेदी कहते हैं कि मउर वैवाहिक संस्कार में सबसे जरूरी माना जाता है। पश्चिम की तो नहीं कहेंगे चूंकि जगह-जगह इसका स्वरूप थोड़ा अलग हो सकता है। राम नाथ कहते हैं कि पर पूर्वांचल में विवाह के समय दूल्हा के सर पर इसे पहना कर एक परंपरा जिसे ‘इमली घोटावन’ कहा जाता है, उसका निर्वहन किया जाता है। हालांकि ‘मउर’ का प्रयोग विवाह संस्कार के समय कई जगह होता है। इसलिए पारंपरिक ‘मउर’ के अस्तित्व को कभी नकारा नहीं जा सकता और यह हमेशा बरकार रहेगा।

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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