अरुण तिवारी का विश्लेषण
वर्षों पहले जोशीमठ की पहाड़ियों के भूगर्भ में सोए हुए पानी के स्त्रोत के साथ भी यही हुआ था। पनबिजली परियोजना सुरंग निर्माण के लिए किए जा रहे बारूदी विस्फोटों ने उसे जगा दिया था। धीरे-धीरे रिसकर जोशीमठ को पानी पिलाने वाला भूगर्भीय हुआ स्त्रोत अचानक बह निकला था। जोशीमठ में पेयजल का संकट हो गया था। जिस परियोजना ने कुदरत को छेड़ा, कुदरत ने उस तपोवन-विष्णु गाड परियोजना को तबाह कर दिया।
प्रकृति चेताती ही है। तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना को लेकर माटू संगठन ने लगातार चेताया। ग्लेशियरों को लेकर रवि चोपड़ा कमेटी रिपोर्ट ने 2014 में ही चेताया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित नई कमेटी ने चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना को लेकर भी चेताया है। हिमालयी नीति अभियान के पैरोकार समूह ने सांसदों को पत्र लिखकर 2017 में चेताया। गंगा की पांच प्रमुख धाराओं की संवेदनशीलता को लेकर स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद जी (पूर्व नाम – प्रो. गुरुदत्त अग्रवाल) ने प्रधानमंत्री महोदय को पत्र लिखकर चेताया। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने उनकी सुनना तो दूर, पत्र प्राप्ति की सूचना तक देने से परहेज रखा। किसी के नहीं सुनने की दशा में उस ज्ञानी स्वामी ने पानी का ही त्याग कर दिया और वर्ष – 2018 में अपने प्राण गंवाए। पहाड़ के प्रख्यात भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. खड्ग सिंह वाल्दिया, समूचे हिमालय को लेकर 1985 से ही चेताते रहे। वर्ष 2020 में हमने उस सचेतक को भी खो दिया।
कुमाऊं के दिवंगत भविष्यदृष्टा गीतकार स्व. श्री गिरीशचन्द्र तिवाङी ‘गिरदा’ ने आपदा से कई साल पहले आपदा और आपदा के दोषियों को इंगित करने हुए यह गीत लिखा था। दुर्योग से हमने ऐसे गीत-बातों पर तालियां तो खूब बजाई, लेकिन इनमे निहित दूरदृष्टि को पढने से चूक गये। उत्तराखण्ड को तरक्की का नया पहाड़ बनाने की रौ में बहते ज़माने को क्या कोई गिरदा की दृष्टि दिखायेगा ? इस देश में राजनीतिज्ञों का सुनना और निदान के लिए संकल्पित होना इसलिए भी जरूरी है चूंकि भारत में नीतिगत फैसले हमेशा राजनीतिक नफे-नुकसान के तराजू पर ही तोले जाते हैं।
”जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।”
यह दुर्योग ही है कि इंसान से लेकर कु्दरत की तमाम चेतावनियों की लगातार अनदेखी कर रहे हैं। हम आज भी आपदा आने पर जागने और फिर अगली आपदा तक नीमबेहोशी की आदत के शिकार हैं। न चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना को लेकर चेत रहे हैं और न गंगा एक्सप्रेस-वे व गंगा जल परिवहन जैसी परियोजनाओं को लेकर। आइए, इस आदत से बाहर निकलें। खुद चेतें और दूसरों को चेताएं।
सबसे पहले समझें क्या है कि पर्वतराज हिमालय की हक़ीक़त और इज़ाज़त
पृथ्वी पर सबसे पहला जीवन संचार, समंदर में पाई जाने वाली मूंगा भित्तियों में हुआ। सबसे पहले मानव की रचना, वर्तमान हिमालय के तिब्बत इलाके में हुई। बहुत संभव है कि तब यह स्थान, एक समंदर ही रहा हो और जीवन संचार की नर्सरी कही जाने वाली मूंगा भित्तियों का केन्द्र भी। इसका संदेश यह है कि हिमालय, समूची इंसानी दुनिया का प्रथम पिता है और तिब्बत हम सभी का पैतृक स्थान। इस नाते पृथ्वी दिवस पर पिता हिमालय की हकीकत और इजाजत को समझना और समझकर, इसके अनुकूल कदमों के लिए संकल्पित होना भी हर इन्सान का व्यक्तिगत दायित्व है। आइये, समझें और संकल्पित हों।
हिम-आलयी समझ ज़रूरी
हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। उत्तराखण्ड को सामने रख दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं। उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं के तीन स्तर हैं: शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमालय और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील है, ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी। इस संवेदनशीलता की वजह है, इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें। उत्तराखण्ड में दरारें त्रिस्तरीय हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर बढती 2000 किमी लंबी, कई किलोमीटर गहरी, संकरी और झुकी हुई। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाङा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी – ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं। भागीरथी के ऊपर लोहारी-नाग-पाला तक का क्षेत्र दरारों से भरा है। दरार क्षेत्र में करीब 50 किमी चौड़ी पट्टी भूकम्प का केन्द्र है। बजांग, धारचुला, कफकोट, पेजम आदि कई इलाके भूकम्प का मुख्य केन्द्र हैं।
भूकम्प का खतरा इसलिए भी ज्यादा है, चूंकि शेष भू-भााग हिमालय को पांच सेंमी प्रतिवर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। इसका मतलब कि हिमालय चलायमान है। हिमालय में हमेशा हलचल होती रहती है। भूखण्ड सरकने की वजह से दरारों की गहराई में मौजूद ग्रेनाइट की चट्टानें रगङती-पिसती-चकनाचूर होती रहती हैं। ताप निकल जाने से जम जाती है। फिर जरा सी बारिश से उधड़ जाती हैं। उधड़कर निकला मलवा नीचे गिरकर शंकु के आकार में इक्ट्ठा हो जाता है। वनस्पति जमकर उसे रोके जरूर रखती है, लेकिन उसे मजबूत समझने की गलती ठीक नहीं।
यहां भूस्खलन का होते रहना स्वाभाविक घटना है। किंतु इसकी परवाह किए बगैर किए निर्माण को स्वाभाविक कहना नासमझी कहलायेगी। अतः यह बात समझ लेनी जरूरी है कि मलवे या सङकों में यदि पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है। हम याद रखें कि हिमालय, बच्चा पहाड़ है यानी कच्चा पहाड़ है। वह बढ रहा है; इसलिए हिल रहा है; इसीलिए झड़ रहा है। इसे और छेड़ेंगे; यह और झड़ेगा … और विनाश होगा।
गलतियां कईं
हमने हिमालयी इलाकों में आधुनिक निर्माण करते वक्त गलतियां कईं की। ध्यान से देखें तो हमें पहाड़ियों पर कई ‘टैरेस’ दिखाई देंगे। ‘टैरेस’ यानी खड़ी पहाडी के बीच-बीच में छोटी-छोटी सपाट जगह। स्थानीय बोली में इन्हे ‘बगड़’ कहते हैं। ‘बगड़’ नदी द्वारा लाई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं। यह उपजाऊ मलवे के ढेर जैसे होते हैं। पानी रिसने पर बैठ सकते हैं। हमारे पूर्वजों ने बगड़ पर कभी निर्माण नहीं किया था। वे इनका उपयोग खेती के लिए करते थे। हम बगड़ पर होटल-मकान बना रहे हैं।
हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है; रास्ता नीचे; फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊंचाई पर क्यों बसाये ? वह भी उचित चट्टान देखकर। वह सारा गांव एक साथ भी तो बसा सकते थे। नहीं! चट्टान जितनी इजाजत देती थी, उन्होने उतने मकान एक साथ बनाये; बाकी अगली सुरक्षित चट्टान पर। हमारे पूर्वज बुद्धिमान थे। उन्होने नदी किनारे कभी मकान नहीं बनाये। सिर्फ पगडंडिया बनाईं। हम मूर्ख हैं। हमने क्या किया ? नदी के किनारे-किनारे सड़कें बनाई। हमने नदी के मध्य बांध बनाये। मलवा नदी किनारे फैलाया। हमने नदी के रास्ते और दरारों पर निर्माण किए। बांस-लकङी की जगह पक्की कंक्रीट छत और मकान…. वह भी बहुमंजिली। तीर्थयात्रा को पिकनिक यात्रा समझ लिया है। एक कंपनी ने तो भगवान केदारनाथ की तीर्थस्थली पर बनाये अपने होटल का नाम ही ‘हनीमून’ रख दिया है। सत्यानाश! हम ‘हिल व्यिु’ से संतुष्ट नहीं हैं। हम पर्यटकों और आवासीय ग्राहकों को सपने भी ‘रिवर व्यिु’ के ही बेचना चाहते हैं। यह गलत है, तो नतीजा भी गलत ही होगा। प्रकृति को दोष क्यों ?
उन्होने वाहनों को 20-25 किमी से अधिक गति में नहीं चलाया। हमने धड़धड़ाती वोल्वो बस और जेसीबी जैसी मशीनों के लिए पहाड़ के रास्ते खोल दिए। पगडंडियों को राजमार्ग बनाने की गलती कर रहे हैं। चारधाम ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ी सड़को के चौड़ीकरण, एक ऐसी ही विनाशक गलती साबित होगी। अतः अभी चेतें। अब पहाड़ों में और ऊपर रेल ले जाने का सपना देख रहे हैं। क्या होगा ? पूर्वजों ने चौड़े पत्ते वाले बांझ, बुरांस और देवदार लगाये। ‘चिपको’ ने चेताया। एक तरफ से देखते जाइये! इमारती लकड़ी के लालच में हमारे वन विभाग ने चीड़ ही चीड़ लगाया। चीड़ ज्यादा पानी पीने और एसिड छोड़ने वाला पेड़ है। हमने न जंगल लगाते वक्त हिमालय की संवेदना समझी और न सड़क, होटल, बांध बनाते वक्त। अब तो समझें।
समझें कि पहले पूरे लघु हिमालय क्षेत्र में एक समान बारिश होती थी। अब वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टि का दुष्चक्र चल रहा है। यह और चलेगा। अब कहीं भी यह होगा। कम समय में कम क्षे़त्रफल में अधिक वर्षा होगी ही। इसे ’बादल फटना’ कहना गलत संज्ञा देना है। जब ग्रेट हिमालय में ऐसा होगा, तो ग्लेशियर के सरकने का खतरा बढ जायेगा। हमे पहले से चेतना है। याद रखना है कि कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड और उत्तर-पूर्व में विनाश इसलिए नहीं हुआ कि आसमान से कोई आपदा बरसी; विनाश इसलिए हुआ, चूंकि हमने आद्र हिमालय में निर्माण के खतरे की हकीकत और इजाजत को याद नहीं रखा।
अरुण तिवारी
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."