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संपादकीय
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नारी तुम केवल श्रद्धा हो…..

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अनिल अनूप

स्त्री के व्यक्तित्व में कोमलता और सहानुभूति का गुण पुरुष से अधिक ही रहा है। युगों-युगांतर से उसके सम्मान को शब्दजालों में ही उलझाकर रखा गया। उसे देवी, जगत जननी, न जानें किन-किन अलंकरणों से अलंकृत किया गया। किंतु सम्मान! न तो उसे उच्च घरानों में प्राप्त हुआ, निम्न, अति निम्न एवं मध्यवर्गीय परिवारों में तो वह दोहरे और तीहरे शोषण को झेलने की अभ्यस्त ही बनी रही। क्या कारण है कि उसे भोग-विलास की ही वस्तु बनाकर रखा गया? वर्चस्ववादी एवं शारीरिक रूप से  सुदृढ़ पुरुष ने उसे केवल भोगने एवं बच्चे पैदा करने का यंत्र ही समझा। उसे कभी भी वह सम्मान नहीं दिया गया जिसकी वह वास्तव में अधिकारिणी थी। यद्यपि कुछ काल खंडों में वह सशक्त होने का प्रयास करती हुई प्रतीत होती है। किंतु उसकी सशक्तता को पुरुष ही नहीं, उसकी अपनी जाति की नारी भी पनपने नहीं देती। भारत असंख्य वर्षों तक गुलाम रहा, किंतु स्त्री तो मानव सभ्यता के पनपते ही गुलामी की जंजीरों में जकड़नी शुरू हो गई।

वर्चस्ववादी पुरुष समाज ने कभी भी उसकी वेदना एवं भावना को समझने का प्रयास नहीं किया। नारी को दैवीय अलंकरणों से तो अलंकृत किया गया, साथ ही देवदासी बनाकर उसे लूटा गया। पुरुष अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए नारी का उपयोग  एक वस्तु की तरह करता आया है। अतिथि को देवता समझकर भोजन और मदिरा की तरह रात को कुंवारी कन्या को सौंपा जाता था। इन सबके पीछे पुरुष की कामुक भावना विद्यमान थी। पुरुष समाज ने स्त्री के मन में यह भावना कूट-कूट कर भर दी थी कि वह केवल मात्र शरीर है। शरीर के अतिरिक्त उसकी कोई पहचान नहीं है। इस संबंध में पंत ने भी कहा था ‘योनी मात्र रह गई मानवी।’ कंकाल उपन्यास में प्रसाद ने भी यह स्वीकार किया है कि पुरुष नारी को उतनी ही शिक्षा देता है, जितनी उसके स्वार्थ में बाधक न हो।

ऐसा भी दौर रहा है जब नारियों को एक तरफ देवी बनाकर पूजा जाता था तो दूसरी ओर सेविका बनाकर शोषण किया जाता था। वर्तमान समय में नारियों ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद शोषण के विरुद्ध विरोध करना शुरू कर दिया है। नारियां अब शिक्षा प्राप्त करके जंग लगे हुए बंधन को काटने का प्रयास कर रही हैं। नारी को बंधनों से मुक्ति के साधन शिक्षा से ही मिल रहे हैं। नारी का सशक्त होना अति महत्त्वपूर्ण है।  नारी  घर में ही नहीं, घर के बाहर भी बेहतर प्रदर्शन करके परिवार को सशक्त बना सकती है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां स्त्री पुरुष के मुकाबले अति उत्तम कार्य प्रदर्शन कर सकती है। सेवा भावना का जितना अधिक गुण स्त्री में विद्यमान है, वैसा पुरुष में कभी हो ही नहीं सकता। कोमलता और संवेदना  का गुण ही नारी को पुरुष से अलग स्थापित करता है। स्त्री संवेदनात्मकता एवं कोमलता का प्रतीक है। नारी का दुर्भाग्य यह है कि कभी उसने अपनी शक्ति को जाना और कभी नहीं जाना। पति द्वारा आग में जलाए जाने का आदेश एवं पुत्र द्वारा परशु से गले को रेत देने का वह बिल्कुल भी विरोध नहीं करती।

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samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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