-अनिल अनूप
आजादी के तुरंत बाद खासकर साठ और साठोतरी सिनेमा में कश्मीर एक खूबसूरत लोकेशन है। झेलम की कलकल बहते पानी किनारे बसा धरती का स्वर्ग। सफेद बर्फों की चादर ओढ़े ऊंचे पर्वत, पहाड़ और इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते चिनार। लवर्स स्टोरी के लिए पर्फेक्ट बैकड्रॉप।
60 के दशक तक कश्मीर ने दो दो युद्धों को देखा लेकिन युद्ध की प्रेत छाया वादी से दूर रही। कश्मीर पर बनी फिल्मों में तरक्की पसंद कश्मीरी अवाम और कश्मीरियत का सभ्याचार था।
‘कश्मीर की कली’, ‘जब जब फूल खिले’ जैसी मुख्यधारा की सुपरहिट बॉलीवुड फिल्मों के कथानक में कश्मीरियों को मेन लैंड यानि हिंदुस्तान से जुड़ने में परेशानी नहीं होती है। फूल वाला हो या फूलवालियां या फिर हाउस बोट वाले सबकी केमिस्ट्री बाकी हिंदुस्तानियों के साथ खूब जमती है। उनके रिश्ते में कॉन्फ्लिक्ट का कांटा नहीं है।
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फिल्म ‘जंगली’ में नायक को आजादी से जीने और सेल्फ डिस्कवरी के लिए कश्मीर सबसे मुफीद जगह लगी। ‘कश्मीर की कली’ में तो नायक शम्मी कपूर सपनों की रानी की तलाश में कश्मीर जाता है और कुछ ड्रामे के साथ उन दोनों का मिलन भी हो जाता है।
कश्मीर की कली के तुरंत बाद कश्मीर पर ही एक और फिल्म बनी ‘जब जब फूल खिले’ जो दशक की सबसे बड़ी हिट फिल्म थी। इसमें कश्मीरी बोटमैन का किरदार निभा रहे शशि कपूर को बाहर से आई एक अमीर लड़की से इश्क हो जाता है। तमाम सोशल स्टेट्स की लड़ाई और गैरबराबरी, क्लास स्ट्रगल के बाद भी दोनों एक हो जाते हैं।
कश्मीर की कली, और ‘जब जब फूल खिले’ दोनों ही फिल्मों में मेटाफर से कश्मीर का इंटीग्रेशन देश के साथ खूबसूरती से दिखाया गया है। हालांकि इन फिल्मों को हिंदू कैरेक्टर वाली स्टोरी बताई गई। कश्मीरियत और मुस्लिम आबादी की रियलिटी से दूरे होने का आरोप इन पर चस्पां हुआ।
पर यश चोपड़ा की फिल्म नूरी ने इस कमी को पूरा किया। पूरी फिल्म कश्मीरी कैरेक्टर के साथ आई। नूरी की कहानी भारत ही नहीं चीन में भी बहुत पसंद की गई। लेकिन तब तक कश्मीर की फिजा में बारूद की गंध नहीं घुली थी।
80S का ट्रांजिशन और सिनेमा में कश्मीर
साल 1980 के बाद कश्मीर में कहानी नया टर्न लेती है। रोमांस और सफेद बर्फ का सुनहरा संसार बिखरने लगता है। पर्वतों और धरती पर बिछी सफेद बर्फ की चादर पर खून के छींटे नजर आने लगे। चिनार की छांव से सुकून समाप्त हो गया और वो आतंक का साया बनने लगा।
1971 युद्ध की हार के बाद मौके की तलाश में बैठा पाकिस्तान और ISI ने 1987 विधानसभा चुनाव में गड़बड़ी का पूरा फायदा उठाया।
यही वक्त था जब सोवियत संघ से भी अफगानी आतंकवादी घाटी में घुस गए और कश्मीर के लिए अंतहीन कांटों की फसल बोई गई। सिनेमा की शूटिंग भी बंद होने लगी। थिएटर पर हमले हुए और फिल्मों का पर्दा गिर गया। JKLF का कथित आजादी का संघर्ष जल्द आतंकवादी घटना में बदलता गया। रुबया सईद के बदले रिहा हुए आतंकवादियों ने खूनी होली खेली।
आतंकवाद और राष्ट्रवाद के लेंस से कश्मीर
कश्मीर के बैकड्रॉप में बदलाव से बॉलीवुड का लेंस भी बदला। 1990 के बाद की जो फिल्में बनी उनमें बाहरी यानि देश के दूसरे हिस्से से कश्मीर आने वाला हीरो था और कश्मीरी या तो अलगाववादी या आतंकवादी।
घाटी में आतंकवाद बढ़ने के बाद जो सबसे ज्यादा चर्चा में फिल्म रही वो है 1992 में मणिरत्नम की फिल्म रोजा। हीरो और विलेन का साफ साफ फर्क।
रोजा में एक मिशन पर जुटे क्रिप्टोलॉजिस्ट को आतंकवादी किडनैप कर लेते हैं। लेकिन वो आतंकवादियों को समझाने में कामयाब होता है कि उसकी लड़ाई का तरीका गलत है और इस्लाम हिंसा नहीं सिखाता। कुछ हद तक कश्मीर युवाओं में जो कुछ शुरुआती भटकाव होता है। मसलन वो कभी हथियार उठाते हैं लेकिन दिली तौर पर हथियारों पर बहुत ज्यादा उनका भरोसा नहीं उसको ये फिल्म दिखाता है।
संघर्ष जैसे जैसे गहरा होता जाता है, मेनलैंड यानि भारत और कश्मीर की खाई चौड़ी होती जाती है। 1994 में आई गोविंद निहलानी की फिल्म द्रोहकाल यूं तो एक मिलिट्री और कॉप ड्रामा फिल्म है लेकिन आतंकवाद की जड़ें कश्मीर में कहां तक घुस चुकी होती है उसका इस फिल्म में चित्रण है। कश्मीर में आतंकवादी कमांडर की ताकत और नेक्सस के सामने पुलिस और सिक्योरिटी फोर्स कुछ कुछ बेबस नजर आता है।
रुपहले पर्दे पर कश्मीरी फ्रस्टेशन और ट्रैजेडी
फिर 2000s के दशक की जो बॉलीवुड फिल्में आती हैं उनमें बोली और गोली से नेशनल इंटीग्रेशन और कॉन्फ्लिक्ट खत्म करने की कोशिश दिखती है। आतंकवाद बढ़ने के बाद भी नई दिल्ली में कश्मीरियों के लिए दरवाजे खुले रहते हैं।
अटल शासन में जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत की बात हो या मनमोहन सरकार में ‘नया कश्मीर’ का मिशन। बॉलीवुड ने भी अपने अपने हिसाब से इन मोमेंट्स को कैप्चर किया। ‘मिशन कश्मीर’, ‘यहां’ ‘फना’ और तहान में कश्मीर के फॉल्टलाइन दिखे।
मिशन कश्मीर में एक डॉक्टर जो जख्मी पुलिस वाले का इलाज कर रहे होते हैं वो कहते हैं आजकल कश्मीर में फतवों का दौर चल रहा है। फिल्म का हीरो इनायत खान यानि संजय दत्त जो एक मुस्लिम पुलिस अफसर है वो देशभक्त है।
एक आतंकवादी ऑपरेशन के दौरान घर के सभी सदस्यों को वो मार गिराते हैं लेकिन एक बच्चा बच जाता है, जिसे इनायत खान अपनी पत्नी के साथ अडॉप्ट करते हैं।
लेकिन एक दिन उस बच्चे को इनायत खान को मास्क दिख जाता है जिसे पहनकर पुलिस अफसर इनायत खान ने बच्चे के मां-बाप को मारा था। बस वो इनायत का घर छोड़कर भागकर सीमापार आतंकवादियों का फिदायीन बन जाता है।
इसी तरह ‘यहां’ में कश्मीर में आर्म्ड इन्सर्जेंसी और फिर उसका आतंकवाद के साथ जुड़ जाने की कहानी दिखाई गई है। लेकिन 2006 में आई फिल्म ‘फना’ कश्मीर की बात करती है।
कश्मीर के भारत में विलय पर जनमत संग्रह का जिक्र भी है पर फिल्म जल्द ही वहां से हटकर आतंकवाद और हिंसा के प्लॉट पर शिफ्ट हो जाती है। इस पार Vs उस पार में फंसी कश्मीरी ट्रैजेडी को फिल्म कैप्चर कर लेती है।
उसी तरह 2008 में तहान में एक बच्चे की कहानी है जिसके अब्बू मिसिंग हैं लेकिन उसे अब्बू ने जो बीरबल यानि गदहा दिया था अब लालाजी ने उसे किसी और सौदागर को बेच दिया है। अब वो उसे किसी भी तरह वापस लेना चाहता है और इसी चक्कर में वो आतंकवादियों के संपर्क में आ जाता है। फिल्म में एक सीन है जहां पर वो गदहा लेने के लिए ग्रैनेड पहुंचाने वाला हैंडलर बनता दिखता है।
फिर लंबे वक्त तक कश्मीर पर कोई मुख्यधारा की बड़ी फिल्म नहीं बनती. इस दरम्यान दिल्ली और कश्मीरियों दोनों में ही फ्रस्टेशन बढ़ता गया था।
फिर साल 2014 में हैदर आई। हालांकि इसमें कश्मीर शेक्सपियर के नाटक हैमलेट के लिए एक सेटिंग है और पूरी फिल्म भी शेक्सपिरियन ट्रैजेडी ड्रामा जैसी है। पर ये काफी हद तक कश्मीरी फ्रस्टेशन, फौज, आतंकवाद और आजादी की ट्रैजेडी को कैप्चर करती है।
गजाला जो कश्मीर में रहती है वो रुहदार से चुपके चुपके मिलती है और ‘आजादी’ को हवा देती है लेकिन अपने बेटे को चरमपंथी बनने नहीं देना चाहती। खासकर ‘उस पार’ के खतरे से बचाने के लिए खुद को उड़ा लेती है।
नया भारत और बॉलीवुड
हैदर के बाद कश्मीर एक सब्जेक्ट के रूप में फिल्म से गायब हो गई। कुछ फिल्में बनी उनमें कश्मीरी कैरेक्टर भी रखे गए लेकिन वो आतंकवाद और युद्ध पर बनी फिल्म ही कही जाएंगी। इसमें एक फिल्म जो बहुत सुपरहिट हुई वो थी राजी और उड़ी द सर्जिकल स्ट्राइक। निश्चित तौर इन फिल्मों पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और युद्ध को स्क्रीन प्ले का आधार बनाया गया है। कश्मीर की कथानक से गायब है।
कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम और सिनेमा
घाटी में कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बेहतर रिश्तों का एक लंबा इतिहास है पर 1989 की हिंसा और JKLF की अगुवाई में आजादी की आग जो लगी उसमें ये रेशमी डोर जल गई।
घाटी में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को सबसे ज्यादा यातनाएं झेलनी पड़ीं। इन चुभती कीलों को बॉलीवुड ने पहले अशोक पंडित की फिल्म शीन (2004) में दिखाया।
फिर विधु विनोद चोपड़ा ने भी शिकारा से उस त्रासदी को बताने की कोशिश की लेकिन सबसे ज्यादा तूफान मचा है अग्निहोत्री की द कश्मीर फाइल्स से। कश्मीरी पंडितों को लग रहा है कि बरसों बाद ही सही उनकी कहानी से दुनिया रुबरू हुई। कश्मीर फिर से सेंट्रल प्लॉटलाइन है। लेकिन सवाल है कि क्या हम कश्मीर की दूसरी फाइल्स भी देख पाएंगे ? क्या इस बैकड्रॉप में कोई लव स्टोरी बन पाएगी ?
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."