• प्रमोद दीक्षित मलय
वर्ष 1857, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक वर्ष पश्चात बंगाल की क्रांतिकारी पुण्य धरा पर एक बालक ने जन्म लिया जिसने बड़े होकर भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल प्रमुख भूमिका का सम्यक निर्वहन किया बल्कि वैचारिक रूप से उसे समृद्ध करते हुए दिशा दी और तत्कालीन सामाजिक जड़ परंपराओं, अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए लोक जागरण कर समतायुक्त समाज रचना का विचार भी प्रस्तुत किया। वह न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी रहा बल्कि समाज जीवन के विविध क्षेत्रों यथा शिक्षा, लेखन, पत्रकारिता, संपादन एवं समाज जागरण का महत्वपूर्ण कार्य कर देश के प्रति अपनी सेवा समिधा समर्पित की। वह कोई और नहीं बल्कि क्रांतिकारी विचारों के जनक बिपिनचंद्र पाल ही हैं जो लाल, बाल, पाल की राष्ट्रवादी त्रिवल्लरी के एक सुवासित, समृद्ध एवं सशक्त सूत्र के रूप में विश्व विश्रुत हैं।
बिपिन चंद्र पाल का जन्म बंगाल क्षेत्र के हबीबगंज सिलहट जनपद अंतर्गत 7 नवंबर, 1858 को एक समर्थ जमींदार परिवार में हुआ था। पिता रामचंद्र पाल और मां नारायणी देवी की देखरेख एवं उचित पालन-पोषण से बालक शुक्ल पक्ष के चंद्र की भांति वृद्धि करता रहा। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही एक मौलवी द्वारा आरंभ हुई। आगे की पढ़ाई चर्च द्वारा संचालित एक मिशन कॉलेज में संपन्न हुई। बालक बिपिनचंद्र बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं जिज्ञासु था। समाज में व्याप्त जाति स्तरीकरण, वर्ग विभेद, लैंगिक भेदभाव, ऊंच-नीच एवं छुआछूत के प्रति मन में उठ रहे सवालों के समाधान खोजता रहता। समाधान खोजने की इस प्रक्रिया एवं ललक ने उसे ब्रह्म समाज से जोड़ दिया। यहां आकर उसे न केवल नवीन दिशा बोध हुआ बल्कि समाज के प्रति एक नागरिक के रूप में उसकी उचित भूमिका का ज्ञान भी हुआ। वह ब्रह्म समाज के आदर्श एवं विचारों के साथ पलने-बढ़ने लगा। वह अब अधिक संवेदनशीलता एवं जिम्मेदारी के साथ सामाजिक सद्भाव, समरसता एवं आत्मीयता वृद्धि के लिए कार्य प्रवृत्त हुआ। हालांकि तत्कालीन परंपरावादी जड़ समाज में उसके नवीन विचार सहज स्वीकार्य न थे। पर तार्किक आधार पर किसी के पास कोई स्पष्ट काट भी न थी। उसके तर्कपूर्ण विचार से लोग प्रभावित होने लगे। परिणामत: बिपिनचंद्र पाल एक दृढ़ और स्पष्ट विचारों वाले युवक के रूप में विकसित हुआ। अपने विचारों पर डटे रहने और स्वयं आचरण कर समाज सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने पहली पत्नी के निधन पश्चात एक बाल विधवा से विवाह कर समाज के समक्ष विधवा पुनर्विवाह का पथ प्रशस्त किया। पर विपिनचंद्र के इस कदम का न केवल समाज बल्कि परिवार द्वारा भी घोर विरोध किया गया। फलत: नव दंपति को परिवार छोड़ना पड़ा। पर वह न रुके, न झुके बल्कि अपने स्पष्ट विचार नौका में सवार हो नवल सर्जना की यात्रा आरंभ किया। इस झंझावात से उबरने एवं आजीविका हेतु बिपिनचंद्र पाल को अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़कर एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करना पड़ा। साथ ही पुस्तकालय व्यवस्था का संचालन भी स्वीकार किया। यहीं पर आपकी भेंट सुरेंद्रनाथ बनर्जी एवं केशवचंद्र सेन जैसे प्रमुख व्यक्तियों से हुई जो आपके विचारों से प्रभावित हुए। बिपिनचंद्र उनके सुझाव पर शिक्षकीय वृत्ति त्यागकर सक्रिय राजनीति की ओर उन्मुख हुए और 1886 में कांग्रेस में शामिल हो गए। पर जल्द ही आपको समझ आ गया कि देश की आजादी के लिए कांग्रेस के अंदर बहुत सारे काम करने आवश्यक होंगे।
कांग्रेस के 1887 के मद्रास अधिवेशन में आपके द्वारा आर्म्स एक्ट के विरुद्ध दिया गया कड़ा आलोचनापरक भाषण श्रोताओं के हृदय में उतर गया और आप कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शुमार होने लगे। कांग्रेस में न केवल आपका प्रभाव बढ़ने लगा बल्कि वैचारिक रूप से स्वीकृति भी बढ़ी और महाराष्ट्र के लोकमान्य बालगंगाधर तिलक एवं पंजाब के लाला लाजपत राय जैसे प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं से सम्पर्क-सहकार भी सम्भव हुआ और तब कांग्रेस जैसे नरम दल के अंदर ‘लाल, बाल, पाल’ नाम की तिकड़ी वाले एक गरम दल की विचार धारा का प्रवाह आरम्भ हुआ जिसने समग्र स्वतंत्रता आंदोलन को प्रभावित किया।
बिपिनचंद्र पाल राष्ट्रीय आंदोलन में एक शिल्पकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कांग्रेस के अंदर आपकी पहचान एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में रही है। एक प्रखर वक्ता के रूप में आपने कांग्रेस अधिवेशनों एवं सामाजिक समारोहों में लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने हेतु प्रेरित किया। पत्रकार एवं संपादक के रूप में आपकी अग्निधर्मा लेखनी से नि:सृत ओजमय लेखन जनता में स्फूर्ति, उत्साह और स्वतंत्र चेतना जगाने में समर्थ थे। साथ ही अंग्रेजों के हृदय में भययुक्त कंपन पैदा करने में भी।
अंग्रेजों द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन कर राष्ट्रीय एकता को खंडित करने की साजिश के विरुद्ध बिपिनचंद्र पाल द्वारा बंग-भंग के विरोध में आरंभ राष्ट्रीय आंदोलन ने अंग्रेजी सत्ता की चूलें हिला दीं। जन-सिंधु के उठे विरोध स्वर ने अंग्रेजों को बंगाल विभाजन रद्द करने को विवश कर दिया। यह आपके सक्षम नेतृत्व एवं दूरदृष्टि का ही परिणाम था। देश एवं समाज के समृद्धि के लिए आप स्वदेशी उत्पादों के प्रयोग के प्रबल पक्षधर थे। इसके लिए विदेशी उत्पादों के सार्वजनिक बहिष्कार करने, मैनचेस्टर की मिलों में निर्मित कपड़ों को प्रयोग न करने एवं औद्योगिक कल-कारखानों में हड़ताल कर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने जैसे सशक्त धारदार हथियार आपकी रणनीति के हिस्सा थे। बिपिनचंद्र पाल कांग्रेस की अनुनय-विनय, निवेदन, असहयोग जैसे उपायों से स्वराज्य प्राप्ति के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष के पैरवी करने वाले योद्धा थे। इसीलिए हम देखते हैं कि तमाम मुद्दों पर महात्मा गांधी के विचारों से असहमत रहे और खुलकर विरोध किया। अपने विचारों पर और सत्य के पक्ष में बिना डिगे खड़े रहना उनके जीवन से सीखा जा सकता है। 1907 में अरविंद घोष के विरुद्ध एक मुकदमे में गवाही देने से इनकार करने पर 6 महीने की कारावास की सजा भी भोगी पर अपने विचारों से किनारा नहीं किया, दबाव के आगे झुके नहीं। वह न कभी रुके न ही समझौते किये बल्कि सतत आगे बढ़ते रहे, देश और समाज को दिशा देते रहे।
एक लेखक के रूप में अपने विचारों को पुस्तकों के रूप में जन सामान्य तक पहुंचाया। इंडियन नेशनल, द सोल ऑफ इंडिया सहित आठ महत्वपूर्ण पुस्तकों की सर्जना की जो राष्ट्रवादी साहित्य प्रासाद की आधारशिला बनी हैं। द न्यू इंडिया, वंदे मातरम, इंडिपेंडेंट इंडिया, स्वराज, लाहौर ट्रिब्यून सहित आधा दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करके अपने ओजस्वी विचारों एवं लेखों से जनमानस को परिचित कराते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खड़े होने को प्रेरित-प्रोत्साहित किया। देश ही नहीं आप कुछ वर्षों के लिए इंग्लैंड में जाकर श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इंडिया हाउस से जुड़कर वहां क्रांतिकारियों को मार्गदर्शन दिया, प्रेरणास्रोत बने। जीवन के अंतिम वर्षों में आपका राजनीति से मोहभंग हुआ और मृत्यु के लगभग के एक दशक पूर्व ही आपने कांग्रेस को छोड़ दिया।
क्रांतिकारी विचारों से इतर बिपिनचंद्र पाल की एक छवि नवल समाज रचनाकार के रूप में भी दिखाई देती है। आप जाति, वर्ग, धर्म एवं संप्रदाय विहीन मानव मूल्यों से ओतप्रोत समाज रचना में विश्वास रखते थे, जहां सभी के लिए समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त हो। आपका कहना था कि दासता मानवीय आत्मा के विरुद्ध है। ईश्वर ने सभी प्राणियों को स्वतंत्र बनाया है। राष्ट्रवादी विचारों की अग्नि में तपा आपका जीवन अंत तक अनथक अविराम मां भारती की सेवा में साधनारत रहा। राष्ट्रवाद की मशाल थाम कोटि-कोटि देशवासियों का नेतृत्व कर मां भारती का वीर सपूत 20 मई 1932 को अपने अस्थि सुमन भारत माता के चरणों में अर्पित कर देश की माटी में मिल गया। भारत सरकार ने बिपिनचंद्र पाल की जन्म शती के अवसर पर 7 नवम्बर, 1958 को 15 पैसे का एक डाक टिकट जारी कर उनके योगदान को नमन किया। उनके विचार भारत को दिशा देते रहेंगे।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."