इतिहास

रानी दुर्गावती ; बुंदेली शौर्य एवं पराक्रम की जीवन्त अमिट गाथा

 प्रमोद दीक्षित मलय

भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ जहां तमाम वीर सम्राटों के शौर्य एवं पराक्रम की गाथाओं से भरे पड़े हैं, वही रानियों ने भी अपने ओज, तेज, नेतृत्व कौशल, युद्ध संचालन और प्रशासनिक क्षमता के बल पर इतिहास के मुख्य फलक पर अपने हस्ताक्षर अंकित किए हैं।

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अगर इतिहास महाराणा प्रताप, राणा सांगा, पृथ्वीराज चौहान, हठी हमीर, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, बाजीराव पेशवा, कृष्णदेव राय आदि का जीवन चरित्र लोकार्पित कर रोमांचित होता है तो वही अवंती बाई लोधी, रानी लक्ष्मीबाई, रानी रत्नावती, झलकारी बाई, वीर बाला चंपा, रानी कर्मवती, रानी चेन्नम्मा के अवदान के प्रति श्रद्धा से शीश झुकाकर अर्चना-आराधना के पुष्प भी अर्पित करता है। इन्हीं पराक्रमी वीरांगनाओं में एक नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है जिन्हें लोक रानी दुर्गावती के नाम से स्मरण कर गौरवान्वित होता है।

रानी दुर्गावती का जीवन बुंदेली शौर्य एवं पराक्रम की जीवन्त अमिट गाथा है। उनके चालीस वर्ष के अल्प जीवन में विविध आकर्षक एवं प्रेरक रंग दिखायी देते हैं।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर,1524 को बुंदेलखंड के महोबा राज्य अंतर्गत कालिंजर के किले में हुआ था जो अब बांदा जनपद में अवस्थित है। दुर्गाष्टमी के दिन चंदेल शासक कीर्ति सिंह के आंगन गूंजी बालिका की किलकारियों से समस्त परिवार परिजन-पुरजन आनंदित हुए और नवजात कन्या का नामकरण हुआ दुर्गावती। यथा नाम तथा गुण, कन्या अपनी बाल सुलभ चंचलता और जिज्ञासा के कारण सभी की प्रिय हो गयी।

शैशवास्था बीता तो बचपन ने दस्तक दी। सम वय बालिकाओं की टोली बना वीरतापूर्ण साहसिक खेल खेलने लगीं। टोली का नेतृत्व करते उनके मुखमंडल में भास्कर की प्रखरता का ताप दिखायी देता और नयन अग्नि सम तेजस्वी मानो शत्रु का संहार करने को बस शंकर की तीसरी आंख बन ज्वाला प्रकट करने वाले हों। लेकिन हृदय में सभी सखियों के प्रति आत्मीयता एवं मधुरता का भाव सिंधु हिलोरें लेता रहता। माता पिता बालिका के साहसिक कारनामे देख-सुन चिंतित भी होते और आनंदित-हर्षित भी। जल्दी ही किले के प्रांगण में सैन्य नायकों द्वारा दुर्गा का सैन्य प्रशिक्षण आरम्भ हुआ। धनुष कटार, तीर तलवार हाथों की शोभा बने। धनुष से अचूक सर संधान देख प्रशिक्षक भी अंचम्भित हो दांतों तले उंगली दबा लेते। तलवार के वार ऐसे कि लगता कि जैसे हवा की चादर खंड-खंड हो रुई बन फैल गयी हो और भाला प्रक्षेपण ऐसा सटीक कि दौड़ता शूकर पल भर में धराशायी हो चित्रवत हो जाता।

काल चक्र अपनी गति से चलता रहा और दुर्गावती के जीवन में सोलहवें बसंत ने अंगड़ाई ली। कठिन सैन्य प्रशिक्षण से तन सबल और पुष्ट तो था ही पर अब किशोरावस्था में स्त्रियोचित दैहिक बदलाव की मृदुलता और सौंदर्य ने अपना प्रभाव डालना शुरू किया। मुख में तेज तो था ही और अब ज्योत्स्ना की शीतलता भी समाने लगी। ताल के शांत जल में मुख प्रक्षालन करती तो सखियां छेड़ने लगतीं कि देखो, सरोवर के जल में पूर्णिमा का चंद्र उतर आया है, तब सभी खिलखिलाकर हंस पड़तीं।

समय एक सा कहां रहता है। वह कभी सरपट भागता है तो कभी ठहर सा जाता है। कभी खुशियों की खुशबू बिखेरता है तो कभी दुखों की बौछार भी करता है। समय कभी परीक्षक भी बनता है। और काल दुर्गावती की समझ, शक्ति एवं सूझबूझ और सीखे गये युद्ध विषयक पाठ्य की परीक्षा हेतु शेरशाह सूरी के रूप में किले के द्वार पर आ डटा। भयंकर युद्ध में राजा कीर्ति सिंह घायल हो पालकी में बैठ किले में सुरक्षित पहुंच अगली व्यूह रचना पर मंत्रणा करने लगे। और उधर शेरशाह सूरी के सेना नायकों ने योजनानुसार किले का फाटक और सुदृढ़ दीवार तोड़ने हेतु गुप्त रूप से बारूद बिछाना शुरू किया। पर दुर्गावती से सूरी की यह चाल छिपी न रह सकी। और एक योजनानुसार पिता से सलाह कर संधि का प्रस्ताव भिजवाया। शेरशाह सूरी खुश हुआ, संधि पत्र तैयार होने लगा पर बारूद बिछाने का काम भी चलता रहा। दुर्गावती तक सभी सूचनाएं पहुंचती रहीं। और एक दिन अचानक किले से पत्थर, खौलता तेल और तीरों की वर्षा शेरशाह की सेना पर होने लगी। सेना में भगदड़ मच गयी। किला विजित करने का स्वप्न संजोये शेरशाह सूरी स्वयं के बारूद में आग लगने से घायल हो परलोक सिधार गया। किले की प्राचीर से हर हर महादेव का घोष होने लगा और खुशियों का गुलाल उड़ने लगा।

दुर्गावती के इस सैन्य संचालन, वाक्चातुर्य, योजना कौशल एवं सौंदर्य की सुगंध चर्चा हवा में तैरते किले की दीवार पारकर गोंडवाना गढमंडल के राजा संग्राम शाह के आंगन में बिखरी गयी। राजा ने अपने पुत्र दलपतशाह के साथ दुर्गावती के विवाह हेतु कालिंजर हल्दी, अक्षतयुक्त पाती पहुंचाई। कालिंजर किले में उल्लास छा गया। दलपत शाह विवाह कर दुर्गावती को गढमंडल की राजधानी जबलपुर ले गये। सभी जगह खुशियां बरसने लगीं और जल्दी ही पुत्र नारायण का जन्म हुआ। अभी विवाह हुए चार वर्ष ही हुआ था। हाथों की मेंहदी भी न धुली थी, महावर भी फीका न हुआ था कि यम कालपाश ले किले की प्राचीर पर अट्टहास करने लगा। राजा दलपत शाह नहीं रहे, किले पर दुख की काली चादर पसर गयी। ऐसे नाज़ुक समय में पड़ोसी राज्यों की नजर गोंडवाना राज्य पर पड़ी। पर वे आश्चर्यचकित हुए कि रानी दुर्गावती ने राजकाज संभाल मंत्रियों और सेनानायकों को यथावश्यक निर्देश देकर राज्य की सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित कर ली है।

रानी का ध्यान अब अपनी प्रजा के हित और सेना के समुचित गठन पर था। जल व्यवस्था ठीक करने हेतु तीन विशाल तालाब बनवाये जिन्हें रानी ताल, चेरी ताल और आधार ताल कहा जाता है। इसके अलावा मठ, मंदिर, कुंआ, बावड़ी बनवाये। विद्या के केंद्रों को संबल और सम्मान दिया।

सम्पूर्ण राज्य में शांति, सौहार्द और प्रेम का आत्मीय वातावरण बना हुआ था। राजकाज संभाले बारह बरस ही बीते थे और वर्ष आ गया था 1562। पड़ोसी राज्य मालवा का सूबेदार बाज बहादुर रानी को कमजोर महिला समझ हमला कर बैठा। उसने अपने पैर कुल्हाड़ी मारे और बुरी तरह पराजित हुआ।

रानी की कीर्ति पताका का गाढ़ा रंग अकबर को खटकने लगा। उसने पहले मालवा को अपने अधीन किया और फिर रानी दुर्गावती के दरबार में फरमान भिजवाया कि अपना सरमन नामक सफेद हाथी और विश्वस्त मंत्री आधार सिंह को सम्मान सहित मुगल दरबार में उपस्थित किया जाये। रानी ने फरमान ठुकरा मानो अकबर को चुनौती दी। अकबर इस अपमान से तिलमिला गया और अपने खास सिपहसालार आसफ खां को हमले हेतु रवाना किया पर वह रणक्षेत्र की धूल चाट पीठ दिखा भाग गया। अकबर इस किरकिरी से तमतमा गया और एक बड़ी सेना के साथ आसफ खां को पुनः भेजा। 24 जून, 1564 को जबलपुर के पास नरई स्थान पर रानी ने मोर्चा लगाया। रानी ने हाथी पर बैठ सेना का नेतृत्व किया। भीषण युद्ध हुआ, मुगलों के हजारों सैनिक खेत रहे। रानी के सैनिकों की मार से मुगल सेना पीछे हटने लगी। तभी अकस्मात, एक तीर रानी की बांह पर लगी। उसे निकाल फेंका ही था कि दूसरा तीर आंख में जा धंसा और तीसरा तीर गर्दन में घुसा। अंत समय जान रानी ने अपना शीश काटने के लिए मंत्री आधार सिंह को आदेश दिया पर वह आंखों में आंसू लिए हाथ जोड़े खड़ा रहा। विलम्ब होते देख रानी ने सीने में कटार भोंक धरती माता की गोद में अपनी निष्प्राण देह समर्पित कर दी। रानी के शौर्य, वीरता और सम्यक युद्ध संचालन के प्रति शत्रु भी नतमस्तक था।

युद्ध स्थल के पास ही रानी की समाधि ने आकार लिया जहां आज भी गोंड जनजाति उनकी पूजा आराधना करती है। भारत सरकार ने 24 जून, 1988 को एक डाक टिकट जारी कर रानी की स्मृति को नमन किया। 1983 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर किया गया और संग्रहालय का भी।

बांदा, उ.प्र. स्थित राजकीय मेडिकल कालेज का नाम भी रानी दुर्गावती को समर्पित किया गया है। इसके साथ ही तमाम शहरों में सड़कों, चौराहों, इमारतों के नाम उनके नाम पर रख कर भावी पीढ़ी को उनके योगदान से परिचित कराने के लिए प्रेरक प्रयास के रूप में हैं।

आज आवश्यकता है कि हम बुंदेली गौरव की प्रतीक रानी दुर्गावती के आदर्श को जीवन मे उतारते हुए भारत के भविष्य की सुदृढ नींव का निर्माण करने में योगदान दें।
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा, (उ.प्र.)।

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