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कूड़े की ढ़ेर से हंसते फिसलते बच्चे आज भी स्वच्छ भारत को मुंह चिढ़ा रहे हैं

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अनिल अनूप की खास रिपोर्ट

हमारे समाज में आनन्द की अनुभूति के अलग-अलग मायने हो गये हैं। विषमता और गरीबी ने आनन्द की एक ऐसी ‘समानान्तर परिभाषा’ गढ़ दी है जो पारम्परिक परिभाषा से न सिर्फ अलग है बल्कि हृदयविदारक और क्रूर भी है। क्या जो बच्चा कूड़े के पर्वतनुमा ढेर से खुशी का इजहार करते हुए फिसलते हुए उतर रहा है कभी इस बात का एहसास कर पाएगा कि किसी फूलों की घाटी से फिसलते हुए उतरने का आनन्द क्या है? और अगर कहीं उसे अपनी भावी जिन्दगी में सचमुच ही किसी फूलों की घाटी में फिसलते हुए उतरने का आनन्द मिला, तो वो अपनी उस अनुभूति को कैसा याद करेगा जब उसका कर्मस्थल कूड़े का हिमालय (या कूड़ालय) हुआ करता था?

खेलने की उम्र में कूड़े के ढेर से कूड़ा बीनते बच्चे, ट्रैफिक सिगनल पर कला बाज़ियां खाते, तमाशा दिखाते, भीख मांगते, खिलौने, पेन्सिल, अखबार, गुब्बारे, फूल आदि बेचते बच्चे, देखने को मिल ही जाते हैं। इन अभागे बच्चों की संख्या हमारे देश में हजारों लाखों में नहीं बल्कि करोड़ों में है जो कि हमारे लिए शर्म की बात है। केवल पेट भरने के अतिरिक्त इन बच्चों को जन्म देने वाले माता-पिता भी अपने पापी पेट का वास्ता देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। वहीं सरकार अच्छे दिन आयेंगे का कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। अब दोष दिया भी दिया जाये तो किसको? यही कारण है कि बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होता आ रहा है और यह सिलसिला अनवरत गति से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी हस्तांतरित होता आ रहा है जो कि बहुत चिंता का विषय है।

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इस समस्या के लिए हमारी सरकार पूरी तरह से दोषी है। बच्चे जिन्हें राष्ट्र का भविष्य कहा जाता है वह बच्चा चाहे गरीब का हो या अमीर का, वह राष्ट्र की अनमोल धरोहर कहलाता है, लेकिन अफसोस इन बड़ी-बड़ी बातों की वास्तविक धरातल पर सच्चाई कुछ और ही है, प्रश्न उठता है कि देश में राइट टू एजूकेशन एक्ट लागू करने से क्या हासिल, जब सभी को ज्ञात है कि भूखे पेट भजन न होये कहावत यूं ही तो नहीं बनी।

गली-गली शिक्षा पहुंचाने से पहले यदि सरकार गली-गली रोजगार पहुंचाने और उनकी शिक्षा, आवास की व्यवस्था उपलब्ध करा दे तो मुझे नहीं लगता कि इस समस्या का समाधान न निकल पाये। आवश्यकता तो बस सार्थक कदम उठाने की है वही हम लोगों को भी गंभीरता से इस विषय में सोचना चाहिए कि क्या इन मासूमों को दान देकर या उनमें सामान खरीदकर आप हम क्या अपना कर्तव्य निभाते हैं ? ऐसा करना क्या उचित है ? यह अभागे बच्चे भी हमारे समाज का ही हिस्सा है और इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आपकी थोड़ी सी सहानुभूति, थोड़े से प्रयास की आवश्यकता है। यह प्रयास आप उनका मार्गदर्शन करके उन्हें रोजगार के अवसर देना उन्हें शिक्षित करने का भी हो सकता है आप प्रेरणा भी प्रदान कर सकते हैं आदि प्रयास इस समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे इसमें कोई दो राय नही ।

अलवर के बहरोड़ कस्बे व हाईवे पर बने हुए होटलों के आसपास छोटे छोटे बच्चे अपना व परिवार का पेट भरने के लिए सुबह से देर शाम तक कचरे के ढेरों में कांच की बोतलें, प्लास्टिक का सामान व अन्य सामान ढूंढ़ते नजर आते है।

ये बच्चे सुबह से शाम तक अपना व घर का गुजारा करने तथा दो जून की रोटी के लिए खेलने कूदने व पढ़ाई लिखाई का समय कूड़ा कचरा बीनने में बिता देते है।

बच्चे अपनी उम्र के अन्य बच्चों को सुबह स्कूल जाते हुए देख कर अपने आप को भी स्कूल में पढऩे तथा उनके साथ खेलने कूदने की सोचते है, लेकिन परिवार की माली हालात ठीक नहीं होने के कारण वह स्कूल जाने व खेलने कूदने की उम्र में कूड़ा कचरे के ढेरों में अपना भविष्य ढूंढते नजर आते है।

बच्चे सुबह से शाम तक कूड़े के ढेरों में शराब की खाली बोतलें,प्लास्टिक का सामान व लोहे का सामान निकालते रहते है। यह बच्चे अपना व परिवार को पेट भरने के लिए अपना जीवन कूड़े के ढेरों में बिता देते है। कचरा बीनने वाले यह छोटे छोटे बच्चे आने वाले खतरों से अनजान होकर कूड़ा कचरा बीनते रहते है।

हमारे समाज में आनन्द की अनुभूति के अलग-अलग मायने हो गये हैं। विषमता और गरीबी ने आनन्द की एक ऐसी ‘समानान्तर परिभाषा’ गढ़ दी है जो पारम्परिक परिभाषा से न सिर्फ अलग है बल्कि हृदयविदारक और क्रूर भी है। क्या जो बच्चा कूड़े के पर्वतनुमा ढेर से खुशी का इजहार करते हुए फिसलते हुए उतर रहा है कभी इस बात का एहसास कर पाएगा कि किसी फूलों की घाटी से फिसलते हुए उतरने का आनन्द क्या है?

और अगर कहीं उसे अपनी भावी जिन्दगी में सचमुच ही किसी फूलों की घाटी में फिसलते हुए उतरने का आनन्द मिला, तो वो अपनी उस अनुभूति को कैसा याद करेगा जब उसका कर्मस्थल कूड़े का हिमालय (या कूड़ालय) हुआ करता था? बात सिर्फ पर्यावरणीय असन्तुलन की नहीं हैं। 

हमारे बड़े-बड़े शहरों में रोजाना इतना कूड़ा इकट्ठा हो रहा है कि उससे कई उत्तुंग शिखर बन जाएं। इसीलिए हमारे शहरों में दो या कई केन्द्र हो गये हैं। एक वो जो चकाचक इलाके का होता है और दूसरा वो जहां कूड़ा इकट्ठा किया जाता है। विकास और बेतहासा आर्थिक वृद्धि की दौड़ में हम न सिर्फ प्रकृति को बल्कि मानव जीवन को हो प्रदूषित कर रहे हैं।

और बाकी चीजों को फिलहाल छोड़ दें और सिर्फ बच्चों के बारे में सोचें तो हर शहर, चाहे वो बड़ा हो या छोटा अपने भीतर दो तरह के संसारों को बना रहा है। एक संसार वो है जिसमें बच्चे सुबह स्कूलों में जाते हैं, साफ-सुथरे रहते हैं और शाम को स्केटिंग, बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल खेलते हैं। दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जो सुबह से ही इस जुगाड़ में घर छोड़ देते हैं कि शाम तक अधिक से अधिक कूड़ा बटोरा जाए (या इसी तरह का कोई और काम किया जाए) ताकि घर का खर्च निकल सके या रोटी का जुगाड़ हो सके।

कूड़ा बटोरते-बटोरते वो उसमें आनन्द भी लेने लगता है। आखिर वो करे भी क्या? जीवन तो जीना है। फिर उमंग के साथ क्यों न जिया जाए? मगर इस उमंग या आंनद को क्या नाम दिया जाए? क्या वो वही उमंग है जो टेनिस या बैडमिंटन खेलने वाले बच्चों की जिन्दगी में दिखती है? या फिर शब्दकोशकारों, साहित्यकारों और अंततः समाज को ऐसी कोटियां बनानी पड़ेंगी हम आंनद और उमंग जैसी अनुभूतियों के अलग-अलग स्तरों को देख सकें।

कूड़े के ढेर से हंसते और फिसलते हुए बच्चे का आंनद वही नहीं है जो अभिजात या मध्यवर्गीय बच्चे का आंनद है। गरीबी का पर्यावरण से क्या रिश्ता है इस पर अब  गहराई से विचार होना चाहिए।

samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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