अनिल अनूप के साथ दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
‘बीती रात ही एक बूढ़े आदमी ने मुझे स्टेज के नीचे बुलाया। मैं नाचते-नाचते स्टेज के नीचे गया। उसने मुझे जांघ पर बैठने का इशारा किया। मैं नाचने में मग्न था। उसने फिर कहा, ‘बैठोगी तो पैसा देंगे।’
‘मैं उसकी जांघ पर बैठ गया। उसने अपने मुंह में 10 रुपए का नोट दबा लिया और बोला – ‘ले लो पैसा मुंह से। मैंने नोट उसके कहने के मुताबिक ले लिया। वो जानता था कि स्त्री की भेष में मैं एक लौंडा यानी पुरुष हूं। इसके बाद भी उसने ऐसा किया।’
40 साल के दिनेश्वर अपनी कहानी सुना रहे हैं। ऐसा उनके साथ आए-दिन होता है। वो लौंडा नाच करने वाले कलाकार हैं। बिहार में दिनेश्वर जैसे कई पुरुष हैं जो स्त्रियों का भेष बनाकर शादी, ब्याह, मुंडन, बर्थडे पार्टी में मेहमानों का मनोरंजन करते हैं। खुशियां बिखेरते हैं।
पॉलिटिकल रैलियों में वोट और आदमी जुटाने के लिए भी इन्हें बुलाया जाता है।
इनके कई नाम हैं। जैसे- नचनियां, मउगा, नटुआ और डांस पारटी यानी पार्टी। कहने का मतलब समाज के लिए एक ही मनुष्य कभी स्त्रीलिंग, कभी पुल्लिंग और कभी तीसरा लिंग बन जाता है।
20 साल के सिपाही राम की आईब्रो काली और गहरी हैं। कमर तक के लंबे बाल हैं। वो एक बच्ची के पिता हैं।
महज 15 साल की उम्र में लौंडा नाच करना उन्होंने शुरू कर दिया था। उनके पिता सुदामा राम भी यही करते थे। सिपाही 6 भाई हैं, लेकिन सिपाही के अलावा कोई भाई ‘लौंडा’ नहीं बना।
मैंने उनसे पूछा कि बाकी किसी भाई ने इस काम को कमाने का जरिया क्यों नहीं बनाया?
सिपाही राम कहते हैं, ‘सारे भाई बाहर कमाने चले गए। हम यहीं रह गए। पेट के लिए कुछ तो काम करना ही है। यही सही।
वैसे भी लौंडा कौन बनेगा, इज्जत पर भारी है ये काम। स्टेज पर नाचते हैं तो लोग स्टेज पर चढ़कर पकड़ने की कोशिश करते हैं। अपनी हवस मिटाने के लिए हमें छेड़ते हैं।
10 रुपए दिखाकर छोटे-छोटे लड़के तक बोलते हैं ढोंढ़ी (नाभि) दिखाओ। ढोंढ़ी पर ही तो सारे अश्लील गाने यहां चलते हैं। पता नहीं ऐसे गानों को सरकार बंद काहे नहीं करवाती है।’
सिपाही राम जब मुझे अपनी कहानी सुना रहे थे तभी उनके बगल में बैठे मोहन भोजपुरी में गीत गुनगुना रहे हैं, ‘कहले भिखारी हम ना नचनिया, नचवे में रहीकर कहीले कहनिया।’
मोहन मेरी तरफ घूमकर देखते हैं- ‘भिखारी ठाकुर का लिखा है यह गाना। इसमें वो कहते हैं कि हम नाचने वाले नहीं है, बल्कि हम नाच में रहकर अपने समाज की कहानी कहने वाले हैं।’
मोहन अब 50 साल के हो गए हैं। उनकी उम्र उनके चेहरे पर झलकने लगी है, लेकिन वो अभी भी नाचते हैं।
अब मैं उनसे सवाल करता हूं… कैसे शुरू किया नाचना?
‘मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई तो घर चलाने के लिए बिदेसिया पार्टी को जॉइन कर लिया। बिदेसिया में नाचने लगे तो लड़की ने शादी से इनकार कर दिया। किसी तरह लड़की वालों को मनाया। शादी हुई, बच्चे हुए।
अब पत्नी शिवकुमारी देवी और चारों लड़के मुझ पर बिगड़ते हैं। वो कहते हैं कि उनके साथी-संगति यानी दोस्त ताने देते हैं कि तुम्हारा पापा लौंड नाच करता है। लड़के कहते हैं कि हमारे साथ रहकर मजदूरी कीजिए।
लेकिन हम इसे कैसे छोड़ दें? हम तो कलाकार हैं और भिखारी ठाकुर की परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं।’
उनके ठीक बगल में बैठे एक और लौंडा नाच कलाकार मुकेश राम कहते हैं, ‘मेरी पत्नी भी कहती है कि ये काम छोड़ दीजिए। मैंने भी सोच रखा है कि जब सिर के सारे बाल झड़ जाएंगे तब नहीं नाचेंगें।
इस काम में बहुत बेइज्जती है। हमारे पिता और चाचा जी दोनों ही लौंडा नाचे, तब आदमी शौक से लौंडा बनता था। अब तो कोई हम लोगों को कलाकार मानता ही नहीं।’
मैंने फिर पूछा- लौंडा नाच तो एक लोक कला थी, अश्लील कैसे बन गई?
आज इस लोक कला का स्तर गिर गया है। इसके कलाकार खास तौर पर पुरानी पीढ़ी वाले खुद को भिखारी ठाकुर की विरासत का विस्तार मानते हैं। उनके लिखे नाटकों में पुरुष ही स्त्रियों का रूप धरकर नाचते थे।
आज भी बिहार के भोजपुरी भाषी इलाके जैसे- भोजपुर, सीवान, छपरा में लौंडा नाच खूब देखा जाता है। लौंडा नाच के ज्यादातर कलाकार दलित हैं।
सुरेश प्रसाद, बिहार के भोजपुर में आजाद नाट्य कला परिषद चलाते है। ये एक लौंडा नाच पार्टी है। इसमें 18 सदस्य हैं और सभी दलित जातियों से ही आते हैं।
सुरेश प्रसाद कहते है, ‘यह काम कोई अमीर क्यों करेगा। सब छोटी जाति वाले ही इसे करते हैं या कह लीजिए मजबूरी में चुनते हैं। क्या करें, उनके पास कोई और काम जो नहीं होता।
ज्यादातर लौंडा नाच का प्रोग्राम यादवों के यहां होता है। लालूजी खुद भी शौकीन रहे हैं लौंडा नाच के। कुछ शौकीन राजपूत भी इसे करवाते हैं। दलितों में भी इसका चलन अब बढ़ा है।
लौंडा नाच कलाकार कौन बनेगा इसका चयन कैसे होता है?
इसका जवाब सुरेश देते हैं, ‘जब कम उम्र का कोई लड़का लौंडा बनने के लिए आता है तो उसे नाच करवाकर और गाना गवाकर देखा जाता है। अगर इसमें वो पास हुआ तभी हम लोग उसे अपने पास रखकर सिखाते हैं।
हमारे साथ रहते-रहते वो मेकअप करना भी सीख जाता है। इसमें कई ऐसे भी मिलेंगें जो लड़की का रूप लेने के बाद अपनी पत्नियों से भी सुंदर दिखते हैं।
अगर आप किसी लौंडा नाच की परफॉर्मेंस को देखें तो उसमें बहुत एनर्जी की जरूरत होती है। यानी एक लौंडा कलाकार को खुद को फिट रखना बहुत जरूरी होता है।
इन कलाकारों को खास कमर लचकाने की ट्रेनिंग दी जाती है। यही इस नाच का आकर्षण है।
लौंडा कलाकार महेश राम कहते है, ‘हम लोग ऐसा डांस करते हैं कि मार्केट यानी डांस प्रोफेशन में आई सब लड़की डांसर को हरा देते हैं। हम दो बार प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुके हैं। शील्ड लेकर आए हैं।’
लगन का मौसम बीत जाने के बाद ये लोग क्या करेंगें?
मेरे पूछते ही जवाब आया- ‘मजदूरी और क्या?’
अब शाम के 7 बजे हैं। गजराज गंज में मैं जिन लौंडा नाच कलाकारों से मिला था वो अब अपनी टीम के साथ महिंद्रा पिकअप से बाबू कुंवर सिंह की भूमि जगदीशपुर के एयार छपरा गांव पहुंच गए हैं। आज वे यहीं परफॉर्म करेंगे। पार्टी ने पंडाल लगवाया है।
पिकअप वैन के अंदर ही वे सब पहले शर्ट और जींस को उतारकर चटकीले रंग का लहंगा पहनते हैं। फिर चेहरे पर खूब सारा पाउडर, फाउंडेशन, काजल, आई लाइनर और आई शैडो एक-एक कर लगाने लगते हैं। उन्हें मेकअप करते देख ऐसा लग रहा है कि वो सब एक सधे हुए मेकअप आर्टिस्ट हैं।
आप सबकी पत्नी इतना सुंदर मेकअप कर लेती हैं?
मेरे इस सवाल पर सिपाही राम कहते हैं, ‘नहीं, वो ऐसा मेकअप नहीं कर पाती हैं। मेरी पत्नी ने एक दफे मुझे लड़की बने देखा है। बाद में उसने मुझसे कहा कि मैं सुंदर लगता हूं।’
इस बीच नाच देखने के लिए भीड़ लग रही है। 15-16 साल के लड़के भी यहां आए हैं। ये लड़के पहले उत्सुकता से कलाकारों को देखते हैं, फिर ‘नचनिया’ कहकर वहां से भाग जाते हैं।
लौंडा कलाकार दिनेश्वर कहते हैं, ‘बूढ़ा तो बूढ़ा लड़के भी उल्टी बात करते हैं। जैसे-जैसे रात बीतेगी, इन लोगों की बदतमीजी बढ़ती जाएगी। इनको भी पता है न कि यहां नाच पार्टी में कोई लेडीज आएगी नहीं, तो ये लोग कुछ भी करेंगे। कभी-कभी तो लगता है मर्द जात कितना गंदा होता है।’
लौंडा नाच की मुश्किल सिर्फ उनकी बदनामी ही नहीं है बल्कि उनके इस रोजगार को मिलने वाली चुनौती भी है। दरअसल ऑर्केस्ट्रा कंपनी गांव-गांव में खुल गई है। यह लोग बहुत कम पैसे में डांसर लड़कियां शादी-पार्टी में उपलब्ध करा दे रहे हैं, जिसके चलते लौंडा नाच करने वालों की डिमांड लगातार कम हो रही है।
पहले नाच पार्टी पीढ़ी दर पीढ़ी ये व्यवसाय करती थी, लेकिन अब लौंडा नाच से नौजवान दूर जा रहे हैं। नाच पार्टी के ऑर्गेनाइजर सुरेश प्रसाद के बेटे ने भी लौंडा नाच पार्टी चलाने की बजाय ड्राइवर का पेशा अपना लिया है।
वो कहते है, ‘पहले अकेले भोजपुर जिले में 60-70 टीम थीं। अब बमुश्किल तीन रह गई हैं। कलाकार भी नहीं टिकते, गंदे माहौल के चलते दिल्ली-बंबई जाकर गार्ड की नौकरी कर लेना ही ठीक मानते हैं। हम तो जब तक चलेगा, इसे ही चलाएंगे। हमने इस नाच पार्टी की वजह से एक जमाने में बहुत सम्मान कमाया है।’
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."