खास खबररपट

‘फुटबॉल की तरह उछलते हुए मेरा बचपन बीता और बड़ी हुई तो “अस्तित्व” की तलाश में भटकन शुरू हो गया…’ एक दर्द जो लाइलाज आज भी है

IMG_COM_20240207_0941_45_1881
IMG_COM_20240401_0936_20_9021
7290186772562388103

अनिल अनूप की खास रिपोर्ट

पैदा हुई तो लड़कों के जन्म पर जितनी खुशियां मनाने का चलन है, सब मनाई गईं। लड्डू बंटे। कांसे की थाल बजी। मैं घर का इकलौता लड़का थी। मां चाव से काला टीका लगाती कि बेटे को किसी की नजर न लगे। यहां तक सब ठीक था, लेकिन परेशानी शुरू हुई, जब मैं बड़ी होने लगी। मुझे कमीज-पैंट पहनना पसंद नहीं था। मां-बहनें जरा भी घर से बाहर गईं, मैं झट से बहनों की फ्रॉक निकालकर पहन लेती।

वो मेरी अपनी दुनिया होती। सजकर देर तक आईना देखा करती। मुझे मेरा यही चेहरा पसंद था। सजा-धजा, अदाओं से दमकता हुआ, लेकिन ये थोड़ी देर के लिए ही होता। सबके घर लौटने से पहले फटाफट सारे निशान ऐसे मिटाने होते, जैसे कोई अपराधी जुर्म के निशान मिटाता है। बहनों के कपड़े तह लगाकर उनकी अलमारी में सज जाते और मैं पैंट-शर्ट पहनकर घर का दुलारा बेटा बन जाती।

IMG_COM_20231210_2108_40_5351

IMG_COM_20231210_2108_40_5351

कोलकाता की घनी बस्तियों में शाम यानी रसोई में पकती मछलियों की गंध के साथ संगीत और बच्चों के खेलने-कूदने की आवाजें। इसी शहर में मेरा बचपन बीता, लेकिन खेलते हुए नहीं- इधर से उधर फुटबॉल की तरह उछलते हुए। लड़कों के ग्रुप में जाती तो वे भगा देते कि मुझ जैसे छुईमुई लड़के की उनके बीच जगह नहीं। लड़कियों के पास पहुंचती तो वे इशारों में कुछ फुसफुसातीं और लड़कों के पास भेज देतीं। मैं कहीं फिट नहीं थी।

सीने पर उभार दिखने लगे। आवाज बदलने लगी, और चाल भी। यहां तक कि कपड़े चुनते हुए मैं खुद अटक जाती कि चेक वाली शर्ट पहनूं या फूलों वाली फ्रॉक। इस अटकन, इस झिझक ने मेरा बचपन बदलकर रख दिया। स्कूल में टीचर ने एब्यूज किया, तो डॉक्टरी पढ़ने के बाद मरीजों ने इलाज करवाने से मना किया। बहुत वक्त लगा, खुद को आजाद करने में।

डॉ संतोष गिरी कहती हैं- शाम की चाय सुकड़ते हुए, या फिर शॉपिंग मॉल में नहीं बताया जा सकता कि आप ट्रांसजेंडर हैं। इसमें बहुत ताकत लगती है। बताते हुए गले के साथ दिमाग की नसें भी फटती हैं। तैयार रहना होता है- अपनों से अलग रहने के लिए।

आंखों के सामने जैसे पिक्चर चल रही हो, संतोष इस तरह से अपने बचपन को याद करती हैं। वे कहती हैं- सेक्शुअल एब्यूज हो तो लड़कियां रो सकती हैं, शिकायत कर सकती हैं, लेकिन ट्रांसजेंडर के साथ एब्यूज मामूली बात होती है। वे अक्सर चुप ही रहते हैं, जैसे मैं रही।

तब मैं मिडिल स्कूल में थी, जब एक टीचर ने बात करने के बहाने मुझे क्लास में रोके रखा। बाकी क्लास खेल के मैदान में थी, और मैं टीचर के साथ अकेली। वो मुझे यहां-वहां छूने लगा। कमर और पेट पकड़कर दबाने लगा। मैं रोने लगी तो छोड़ दिया। इसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा। हफ्ते में दो बार उसकी क्लास होती, और हर बार मैं उसकी गंदी हरकतें झेलती। जब दर्द से रोने लगती तो गोद से उतारकर भगा देता था।

बातचीत में संतोष उस टीचर का पूरा नाम भी बताती हैं। वे कहती हैं, उसके कारण मुझे स्कूल के नाम से डर लगने लगा था। पढ़ाई में बहुत अच्छी थी, लेकिन क्लास में जाने से बचने लगी।

किसी से शिकायत क्यों नहीं की? मेरे सवाल पर संतोष कहती हैं- जो बच्चा अपनी पहचान से जूझ रहा हो, वो टीचर की शिकायत कैसे और किससे करेगा! लगता था जैसे अंधेरी सुरंग से गुजर रही हूं, जो कभी खत्म नहीं होगी। अकेले में अपने शरीर को देखा करती और सोचती कि ऊपरवाले से मुझे बनाने में कोई भूल जरूर हो गई!

घर पर भी माहौल बदलने लगा था। छुप-छुपकर कपड़े पहनने का राज खुला और मेरी जमकर पिटाई हो गई। बाहरवाले शिकायत करने लगे। कोई मउगा बुलाता, कोई जनखा।

पिताजी ने एक रोज बुलाया और डपटकर कहा कि मैं ‘सुधर’ जाऊं। मुझ पर लड़का बनने का दबाव था। जैसे किसी पर डॉक्टर बनने या फिर परिवार चलाने का होता है। मैंने कोशिश भी की। उन्हीं जैसे कपड़े पहनती, उनकी ही तरह चलने और बोलने की कोशिश करती- लेकिन ये सब कोशिश ही थी। दिल से मैं लड़की थी। तो इस तरह से मर्दानापन जगाने की सारी कोशिशें बेकार हुईं।

फिर एक रोज पिताजी ने मुझे घर से निकाल दिया। कोलकाता की सड़कों पर भटकते हुए शाम घिरने लगी। कोई दोस्त था नहीं, जिसके घर चली जाती। रिश्तेदार पहले ही मजाक बनाते थे। भटकते हुए एक तालाब किनारे पहुंची और बैठ गई।

कहने को लड़कों के कपड़े पहने हुए थे, लेकिन ढीली-ढाली शर्ट के भीतर लड़की का दिल जोरों से धड़क रहा था। रात गहराने लगी। इसी बीच कुछ लड़के आए और मुझे घेर लिया। एक ने टांगों पर हाथ रखा। इसके बाद का कुछ याद नहीं। मेरी आंखें अस्पताल में खुली।

शरीर पर ढेरों जख्म थे। टीस से मैं रो पड़ी। खूब खुलकर रोई। वहीं सामने स्टूल पर पिताजी बैठे थे और मुझे देखते हुए वो भी रो रहे थे। ये मुझे अपनाने की शुरुआत थी। वे समझ चुके थे कि लड़कों के कपड़ों के भीतर उनका बच्चा असल में लड़की था।

संतोष के लहजे में पश्चिम बंगाल-बिहार का लोच है। वे खुद को ‘हम’ कहते हुए सारी बातचीत करती हैं। घर पर कुछ राहत मिली तो कॉलेज मुंह फाड़े खड़ा था- संतोष याद करती हैं। कॉलेज में एडमिशन का समय आया। मैं लड़कों की तरह दिखने-चलने की प्रैक्टिस करके पहुंची, लेकिन हो नहीं सका। एडमिशन काउंटर से मुझे हटने को कह दिया गया। एकदम मुंह पर। मैं चुपचाप कोने में खड़ी हुई पीछे वालों को आगे बढ़ता देख रही थी। आखिर में कॉलेज यूनियन के पास पहुंची। उन्होंने खूब ठोकने-बजाने के बाद मुझे लेने पर हामी भर दी।

मैं पढ़ाई में खासी तेज थी, लेकिन एडमिशन के लिए मुझे गिड़गिड़ाना पड़ा। हालांकि, यहां हालात स्कूल से बेहतर रहे। किसी ने मुझे सेक्सुअली एब्यूज नहीं किया। मैं खुलकर लड़कियों वाले डांस करती और खूब तालियां बटोरतीं। बंगाल में ये अच्छी बात है कि संगीत आपको जेंडर से ऊपर ला देता है। मेरे जिस शरीर की लचक और आंखों के भाव मुझे शर्मिंदा करते थे, वहीं यहां मेरा साथ देने लगे।

यानी कॉलेज के बाद से आपकी जिंदगी ट्रैक पर आ गई? संतोष बोली- नहीं! बीच में ही मैंने मेडिकल की पढ़ाई में दाखिला ले लिया। वो आखिरी साल था। इंटर्नशिप चल रही थी। फिर मैं डॉक्टर बन जाती, लेकिन मरते हुए मरीज को भी ट्रांसजेंडर डॉक्टर नहीं चाहिए।

अस्पताल में मरीजों की भीड़ होती, सब एक के ऊपर एक टूटने को तैयार कि जैसे भी हो जल्दी चेकअप हो जाए। मैं एक कोने में खाली टेबल-कुर्सी लिए बैठी रहती। सीने पर डॉक्टर के सफेद कोट के बावजूद कोई मरीज मेरी तरफ नहीं आता था। मैं आवाज भी देती तो या तो इग्नोर कर देते, या फिर कहते- हमें तो डॉक्टर को ही दिखाना है। दूसरी तरफ मेरे साथी डॉक्टरों के पास पेशेंट्स धक्कामुक्की करते होते। तब जाना कि डॉक्टरी का भी जेंडर होता है। फिर मैं कभी प्रैक्टिस नहीं कर सकी। जितना धीरज और लगन मुझमें है, शायद मैं बहुत अच्छी डॉक्टर होती, लेकिन इससे पहले मुझे लड़की या लड़का होना था।

डॉक्टर तो नहीं बन सकी, लेकिन अपनी तरह के लोगों के लिए काम करने लगी, बोलने लगी, लेकिन ये आसान नहीं। मैं ऐसे ही लोगों के लिए काम करती हूं। कहने को खासी मजबूत हो चुकी हूं, तब भी कई मामूली चीजों पर अटक जाती हूं। कपड़े चुनने जाऊं तो ऐसा कोई स्टोर नहीं, जो जेंडर न्यूट्रल कपड़े दे।

लड़कियों के स्टोर में जाऊं तो सब घूरते हैं। लड़कों के स्टोर में जाऊं तो वक्त बर्बाद होता है। कभी कोई एप्लिकेशन भरूं तो मेल-फीमेल कॉलम पर अटक जाती हूं। हर जगह ‘अदर’ का ऑप्शन नहीं होता।

samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

Tags

samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."
Back to top button
Close
Close