2025 में उत्तर प्रदेश सरकार ने सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में कक्षा 9 से 12 तक की परीक्षा फीस में 200% तक की बढ़ोतरी कर दी है। यह निर्णय छात्रों और गरीब परिवारों पर भारी आर्थिक दबाव डाल रहा है।
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में जारी आदेश के तहत, राजकीय और सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों की कक्षा 9 से 12 तक की परीक्षा फीस में 180% से 200% तक की भारी वृद्धि कर दी गई है। यह निर्णय भले ही प्रशासनिक और वित्तीय तर्कों से प्रेरित हो, लेकिन इसकी सामाजिक लागत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
फीस बढ़ी, उम्मीदें घटीं
अब हाई स्कूल की परीक्षा के लिए छात्रों को ₹80 के बजाय ₹500 और इंटरमीडिएट की परीक्षा के लिए ₹90 के बजाय ₹600 का भुगतान करना होगा। यह वृद्धि आकस्मिक नहीं, बल्कि आक्रामक लगती है, खासकर तब जब सरकार एक ओर “सबके लिए शिक्षा” की बात करती है और दूसरी ओर सरकारी स्कूलों को ही निजी शिक्षा संस्थानों की राह पर धकेलती दिखाई देती है।
निचले तबके पर सबसे भारी असर
यह बात समझना जरूरी है कि इन विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से आते हैं। उनके लिए ₹500 या ₹600 की फीस केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि राशन, दवा या पढ़ाई में से किसी एक को चुनने की मजबूरी है।
कई ग्रामीण इलाकों में अभिभावक अपनी दैनिक मजदूरी से बच्चों की पढ़ाई का खर्च जुटाते हैं। ऐसी स्थिति में यह वृद्धि उनके लिए मनोबल तोड़ने वाली है।
सरकारी तर्क और उसकी सीमाएँ
शासन का कहना है कि यह कदम शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने, परीक्षा व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और सुविधाओं के उन्नयन के लिए आवश्यक है। लेकिन सवाल यह है कि क्या शिक्षा सुधार का भार गरीब छात्रों के कंधों पर ही डाला जाएगा?
अगर सरकार को संसाधनों की कमी है तो बजट आवंटन बढ़ाया जाना चाहिए, न कि छात्रों से वसूली की जाए।
संवेदनशीलता बनाम संवेदनहीनता
इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि नीति निर्माता आज भी नीचे की ज़मीन पर खड़े लोगों की वास्तविकता से कोसों दूर हैं। शिक्षा को लेकर जो संवेदनशीलता होनी चाहिए, वह कहीं खोती जा रही है और उसकी जगह संवेदनहीनता का प्रशासनिक रवैया ले रहा है।
क्या विकल्प हैं?
सरकार को चाहिए कि वह इस फैसले पर पुनर्विचार करे। फीस वृद्धि को आय वर्ग के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, ताकि जिनके पास संसाधन हैं, वे अधिक दें और गरीब छात्रों को छूट मिले।
इसके अलावा, परीक्षा शुल्क के लिए छात्रवृत्ति योजना या स्थानीय स्तर पर फंडिंग व्यवस्था भी अपनाई जा सकती है।
शिक्षा न तो विलासिता है और न ही व्यापार — यह एक अधिकार है। और जब यह अधिकार ही लागत में तौला जाने लगे, तो यह केवल नीतिगत चूक नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय बन जाता है।