मोदी सरकार द्वारा अचानक घोषित जाति जनगणना ने राजनीतिक हलचल मचा दी है। यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में क्रांतिकारी हो सकता है, या केवल चुनावी समीकरण साधने की कोशिश? जानें इस फैसले के पीछे की पूरी कहानी।
संजय कुमार वर्मा की रिपोर्ट
भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव और पहलगाम नरसंहार के बाद जब देश की निगाहें सुरक्षा मामलों पर टिकी थीं, तब मोदी सरकार ने अचानक जाति जनगणना की घोषणा कर राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी। यह फैसला कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति, जिसे ‘सुपर कैबिनेट’ भी कहा जाता है, में लिया गया। चूंकि इस समिति की बैठकें बहुत कम होती हैं, इसलिए इसका निर्णय अपने आप में महत्वपूर्ण बन जाता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सरकारों का रुख
भारत में अंतिम बार पूर्ण जाति जनगणना 1931 में हुई थी। आज़ादी के बाद 1951 और 1961 की जनगणनाओं में केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आंकड़ा प्रकाशित किया गया। पंडित नेहरू का मानना था कि जाति आधारित आंकड़ों के सार्वजनिक होने से राष्ट्रीय एकता को नुकसान हो सकता है। यही वजह रही कि कांग्रेस सरकारों ने लंबे समय तक जाति जनगणना का विरोध किया।
राजीव गांधी ने तो ओबीसी के खिलाफ एक लंबा भाषण भी दिया था। कांग्रेस का नारा भी जातिवाद के खिलाफ था— “जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।” लेकिन समय बदला और अब वही कांग्रेस, सपा, राजद और द्रमुक जैसी पार्टियां ‘जाति जनगणना’ को लेकर मुखर हो चुकी हैं।
जनगणना का अटका सफर
1881 में पहली जनगणना हुई थी और हर 10 साल में इसे दोहराया गया। 2011 में यूपीए-2 सरकार के दौरान सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वे हुआ, लेकिन जाति संबंधी आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता संभाली और ग्रामीण डाटा तो जारी किया, पर जातिगत आंकड़े फिर दबा दिए गए।
2018 में सरकार ने कहा कि डाटा में गंभीर गलतियां हैं। फिर 2021 में कोरोना महामारी के कारण जनगणना स्थगित कर दी गई। अब, जब 2025 में भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, तो सवाल उठता है: क्या अगली जनगणना 2031 में ही होगी?
चुनावी साल और राजनीतिक समय-सीमा
भारत में 2024 का लोकसभा चुनाव बीत चुका है और 2029 तक मौजूदा सरकार का कार्यकाल है। इस बीच महिला आरक्षण कानून को लागू करना और परिसीमन की प्रक्रिया को भी पूरा करना है। साथ ही, आगामी वर्षों में बिहार, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन परिस्थितियों में जाति जनगणना का पूर्ण क्रियान्वयन चुनावों से पहले मुमकिन नहीं दिखता।
इसलिए, इस घोषणा को कई विश्लेषक चुनावी ‘मास्टरस्ट्रोक’ मानते हैं, जिससे भाजपा को तत्काल राजनीतिक लाभ मिल सकता है।
जातिगत आंकड़े और आरक्षण की बहस
लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्षी दलों ने नारा दिया— “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” यह नारा सामाजिक न्याय की मांग को नए सिरे से उठाने का माध्यम बना। सवाल ये है कि यदि दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक कुल जनसंख्या का लगभग 90% हैं, तो क्या उन्हें उसी अनुपात में आरक्षण मिल सकेगा?
यहां पर एक बड़ी बाधा है—सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई 50% आरक्षण की सीमा। राहुल गांधी और अन्य नेताओं ने इस सीमा को तोड़ने की वकालत की है, लेकिन इसके लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी।
जाति जनगणना: संभावनाएं और चुनौतियां
यदि जातिगत डाटा सामने आता है तो यह शिक्षा, रोजगार, और नीति-निर्माण में गहरी भूमिका निभा सकता है। राजनीतिक दलों को अपने सामाजिक गठबंधन और उम्मीदवार चयन की रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा। हालांकि, इस प्रक्रिया को लागू करना बेहद जटिल और संवेदनशील कार्य है।
जाति जनगणना का निर्णय सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम हो सकता है, लेकिन इसका समय और राजनीतिक संदर्भ इसे एक चुनावी औजार की शक्ल देता है। जब तक इस प्रक्रिया की स्पष्ट रूपरेखा, समयसीमा और कानूनी ढांचा सामने नहीं आता, तब तक यह घोषणा एक राजनीतिक ‘चौंक’ से अधिक नहीं लगती।