चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
कानपुर की गलियों में अक्सर एक दिलचस्प जुमला सुनने को मिलता है – ‘झाड़े रहो कलेक्टरगंज, मंडी खुली बजाजा बंद’। यह जुमला आम बोलचाल में डींग मारने वालों या अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वालों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह कहावत कब और कैसे प्रचलित हुई? इस कहावत के पीछे की कहानी उतनी ही रोचक है जितनी खुद कानपुर की ऐतिहासिक धरोहर।
कलेक्टरगंज – कानपुर की ऐतिहासिक मंडी
कानपुर का कलेक्टरगंज इलाके की पहचान आज भी एक बड़ी और पुरानी गल्ला मंडी के रूप में होती है। अंग्रेजों के जमाने से ही यह इलाका कानपुर और आसपास के गांवों से आए किसानों के लिए व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है। यहां दूर-दराज से किसान अनाज बेचने आते थे और बैलगाड़ियों में लाए गए गेहूं-चावल को उतारने के लिए पल्लेदारों की मदद ली जाती थी। पल्लेदारों को इस काम के लिए मजदूरी मिलती थी, लेकिन उनके लिए एक और कमाई का जरिया भी था – झाड़ू लगाकर अनाज बटोरना।
जब अनाज उतारने और तौलने का काम होता था, तो कुछ दाने ज़मीन पर गिर जाते थे। पल्लेदार इन गिरे हुए अनाज को झाड़ू लगाकर इकठ्ठा करते और बाद में इसे बेचकर अतिरिक्त पैसा कमा लेते। इसी काम के कारण उन्हें मज़ाक में ‘झाड़े रहो’ कहकर पुकारा जाने लगा, क्योंकि वे अनाज झाड़ने में माहिर थे। लेकिन यह जुमला तब मशहूर हुआ जब इसमें एक दिलचस्प मोड़ आया।
एक शौकीन पल्लेदार की अनोखी कहानी
स्थानीय लोगों की मानें तो उन्हीं पल्लेदारों में से एक था, जिसकी एक आंख खराब थी। यह शख्स बेहद शौकीन मिजाज था। पूरे हफ्ते वह मंडी में मेहनत करता, झाड़ू लगाकर अनाज इकट्ठा करता और फिर उस अनाज को बेचकर अच्छी खासी रकम बना लेता। लेकिन इस पैसे का इस्तेमाल वह किसी आम जरूरत के लिए नहीं, बल्कि मूलगंज के कोठों पर मुजरा देखने के लिए करता था।
जब भी उसे पैसे मिलते, वह अच्छे कपड़े पहनकर, पूरी तरह बन-ठनकर कोठों की ओर रवाना होता। पहचान छिपाने के लिए वह महंगे इत्र और सुगंधित पान का सहारा लेता। एक दिन जब वह कोठे के बाहर खड़ा होकर पान खरीद रहा था, तभी पान वाले ने उसे पहचान लिया। और फिर जो हुआ, उसने इस जुमले को कानपुर की गलियों में अमर कर दिया।
जब पान वाले ने कह डाली वह ऐतिहासिक बात!
उस दिन पल्लेदार ने पान वाले से कहा, “भैया, सबसे महंगा वाला पान लगाना!”
पान वाले ने गौर से देखा और मुस्कुराते हुए जवाब दिया –
“झाड़े रहो कलेक्टरगंज, मंडी खुली बजाजा बंद!”
इसका मतलब साफ था – वह पान वाला जान गया था कि यह व्यक्ति कौन है और उसकी असली पहचान क्या है। वह दिनभर कलेक्टरगंज मंडी में अनाज झाड़कर पैसा कमाता है और रात में उसे कोठों पर उड़ा देता है। चूंकि उसकी एक आंख खराब थी, इसलिए पान वाले ने मज़ाक में कहा –
‘मंडी खुली’ – यानी कि उसकी मंडी की तरफ वाली आंख (जो ठीक थी) खुली थी।
‘बजाजा बंद’ – यानी कि कोठों की ओर वाली आंख (जो खराब थी) बंद थी।
पान वाले का यह तंज इतना मज़ेदार और सटीक था कि धीरे-धीरे यह जुमला पूरे शहर में मशहूर हो गया। अब यह सिर्फ उस पल्लेदार की कहानी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि कानपुर की आम बोलचाल का हिस्सा बन गया।
आज भी जिंदा है यह कहावत
आज भी जब कोई बड़ी-बड़ी डींगे हांकता है या अपनी असली सच्चाई को छिपाकर शेखी बघारता है, तो कानपुर वाले मज़ाक में कह देते हैं – ‘झाड़े रहो कलेक्टरगंज…’। यह जुमला न सिर्फ कानपुर की बोली-बानी का हिस्सा है, बल्कि यह उस दौर की झलक भी दिखाता है जब शहर की गलियों में पान की दुकानें ही मज़ाक और कहावतों का अड्डा हुआ करती थीं।
तो अगली बार जब कानपुर में कोई आपको यह जुमला सुनाए, तो समझ जाइए कि यह सिर्फ एक मज़ाक नहीं, बल्कि इतिहास का एक दिलचस्प टुकड़ा है!
Author: मुख्य व्यवसाय प्रभारी
जिद है दुनिया जीतने की