प्रमोद दीक्षित मलय
रामनगीना मौर्य वर्तमान कालखंड के उन कहानीकारों में है जो अपने समय का सच बिना किसी लाग लपेट और मीठी चाशनी में लपेटे बिना सीधे सरल शब्दों में बयां करते हैं। उनकी कहानियों के विषय एवं पात्र हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से आते हैं। इनमें मानवता, सह अस्तित्व, जिजीविषा, संघर्ष एवं समानुभूतियों की गर्माहट को अनुभव किया जा सकता है। संवेदना का स्वर सहेजती ये कहानियां बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए किसी नायक का इंतजार नहीं करती बल्कि पाठक को उसके वर्तमान संकट से जूझने एवं जीतने का का जोश भरती सम्बल देती हैं। इसीलिए उनकी कहानियां न केवल पाठकों को उद्वेलित कर झकझोरती हैं बल्कि इंसानियत और जज्बातों के सुनहरे पथ पर आगे बढ़ने को प्रेरित भी करती हैं। रामनगीना मौर्य की कहानियों में अमावस की अंधेरी रात में आत्मा से निकला स्नेहिल उजास है तो पहाड़ी नदी का मोहक कलरव भी। इनमें आत्मीयता की मिठास घुली है तो मलय बयार का शीतल झोंका भी। सीधे सरल शब्दों में जीवन का कटु यथार्थ सहजता के साथ व्यक्त करने की कला में रामनगीना मौर्य न केवल माहिर हैं बल्कि पाठक के हृदय को वश में कर लेने का हुनर भी जानते हैं। इसीलिए पाठक उनके कथा संग्रह को पढ़ते हुए बंध सा जाता है। हालिया प्रकाशित कहानी संग्रह ‘आगे से फटा जूता’ इस कसौटी पर खरा उतरता है। संग्रह की 11 कहानियां पढ़ने के बाद पाठक का कायांतर हो जाता है। इन कहानियों में संवेदना का कोमल स्वर है तो मानवीयता का सौम्य सौंदर्य भी। अर्थ की चकाचौंध में जूझते पारिवारिक रिश्ते हैं तो खट्ठी-मिट्ठी नोंकझोंक भी। सवाल है तो समाधान भी।
रानगीना मौर्य की कहानियां कल्पना के फलक से नहीं बल्कि अनगढ़ कटु यथार्थ की शुष्क जमीन से उपजती हैं। इसलिए इनमें आम जनजीवन की पीड़ा, कसक, वेदना, नैराश्य है तो आत्मीयता, मधुरता और विश्वास भी। संकट से दो-दो हाथ करने का जज्बा है पलायन नहीं। इनमें सरिता समान सतत् प्रवाह है ठहराव नहीं। ये कहानियां अपने कहन के ताप और शिल्प के सौम्य सौंदर्य से सोलह आने शुद्ध सोने सी कसौटी पर खरी उतरती हैं। इनमें परिवार, समाज, बाजार, ट्रैफिक, कार्यालीय जीवन अपने असली रूप में अभिव्यक्त हुआ है। बनावटीपन और मुलम्मे को परे धकेलती ये कहानियां हाशिए पर जी रहे आम आदमी और अपने समय का सच परोसती पाठक की प्यास बुझाती है तो वहीं बढ़ाती भी हैं। उसे एक नजरिया मिलता है और सवाल भी उभरते हैं कि ऐसा पहले तो नहीं सोचा था। कहानीकार की यही सफलता होती है कि वह पाठक के अंदर न केवल सवालों कि जमीन तैयार करता है बल्कि समाधान की फसल के बीज भी बोता है। रामनगीना मौर्य भाषाई जादूगर हैं। वह अपनी कहानियों में हिंदी के साथ ही उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, भोजपुरी शब्दों का खूब प्रयोग करते हैं। तद्भव और धुर खाटी देशज शब्द कहानी में प्राण फूंकते हैं। कठकरेजी, नशा-पत्ती, निहोरा-चिरौरी, पनहियां जैसे शब्द प्रयोग मन मोहते हैं।
मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी खूब दिखाई देता है। आ बैल मुझे मार, मुंह से बड़ा कौर उठाना, मुंडे मुंडे मतिर्भिन्न कुंडे कुंडे नवपयः, दीगरां नसीहत खुदरा फजीहत, ईंट से ईंट बजा देना, कच्ची गोलियां न खेलना इत्यादिक। एक कहानीकार के रूप में उनकी दृष्टि व्यापक है। वे कहानियों का प्लाट वहां से चुनते हैं जहां आम आदमी की नजर नहीं जाती। इसीलिए ये पाठक के दिल में घर बना लेती हैं।
संग्रह की 11 कहानियों में पहली कहानी ‘ग्राहक देवता’ सामाजिक सम्बंधों का सुखद चित्र साझा करते हुए धार्मिक सौहार्द एवं सहिष्णुता का भी दर्शन कराती है तो साथ ही आज व्यक्ति के पास समय न होने और एक अबूझ हड़बड़ी-दौड़ की ओर संकेत कराते हुए व्यक्ति के व्यवहारों की झांकी दिखाती है। ‘पंचराहे पर’ ट्रैफिक में बढ़ते दबाव, राहगीरों की लापरवाही एवं नियमों की अवहेलना, ट्रैफिक कर्मी की जिम्मेदारी एवं सदाशयता का परिचय देती आम जन में एक सिविक सेंस की मांग करती है। ‘लिखने का सुख’ में एक दम्पत्ति की नोंकझोंक के बहाने आम पति-पत्नियों के परस्पर शिकायतों, रूठने-मनाने, उपजते आत्मीय प्रेम, गुस्सा और शांति के बाद समन्वय, सहकार एवं एक-दूसरे के अस्तित्व, अस्मिता एवं स्वीकृति को ही दिखाते हुए दिन भर की थकान अवसाद से मुक्ति हेतु मनोभावों को लिखने की राह सुझायी गयी है। एक स्त्री के अस्तित्व, स्वाभिमान, पहचान और संघर्ष की दास्तान है ‘उठ, मेरी जान’, नायिका गौरी के माध्यम से कहानीकार ने एक आम स्त्री की इच्छा-आकांक्षा और सपनों का वितान रचने की राह की बाधा-चुनौतियों को उघाड़ कर रख दिया है। दाम्पत्य प्रेम और वृद्धावस्था में एक दूसरे की जरूरतों एवं चिंता को बयां करती कहानी ‘सांझ-सवेरा’ शीतल सुरभित पवन सी है जिसमें सम्बंधों का मीठापन और प्रेम का नमक बाकी है। ‘ढ़ाक के वही तीन पात’ कहानी के माध्यम से अपने पद-प्रतिष्ठा का रौब गांठने, उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ते आफिस कर्मी का सटीक चित्रण किया है। ‘परसोना नॉन ग्राटा’ कहानी झूठे प्रदर्शन में खुशी खोजते आदमी की सचबयानी है। तो ‘गड्ढा’ नगर पालिका की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ते सिस्टम पर प्रहार करती है। हम अपने नगर और पास पड़ोस में ऐसे गड्ढे और घटनाएं अक्सर देखते हैं। ‘ग्राहक की दुविधा’ कहानी बाजारीकरण का विद्रूप चेहरा दिखाती दूकानदार द्वारा ग्राहक को आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी सामान अधिक दाम पर बेंचने की कला से परिचित कराती है, वहीं सीधे-सादे भोले छोटे दूकानदारों की सरलता भी दिखाती है। ‘आफ स्प्रिंग्स’ में बड़े-बूढ़ों की समझ और दूरदृष्टि का खाका खींचा गया है। अंतिम कहानी ‘आगे से फटा जूता’ एक लम्बी कहानी है जो जूतों के परस्पर संवाद के बहाने समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में काम करने वालों की मानसिकता, रुचि, दृष्टि और सामाजिक व्यवहार की परतें खोलती है। यह कहानी अलग से चर्चा की मांग करती है। कुल मिलाकर सभी कहानियां समय से संवाद करती हुई पाठक को उसके परिवेश से जोड़ते हुए एक दृष्टि देती हैं और यह दृष्टि है स्वयं को जानने के साथ समाज में हो रहे नित नूतन बदलावों को समझने और अपनी जड़ों को थामे रहने की।
रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित ‘आगे से फटा जूता’ कहानी संग्रह अपने कहन, शिल्प और भाव सम्प्रेषण में समर्थ सिद्ध है। 132 पृष्ठों की पुस्तक में से 108 पृष्ठों में बिखरी 11 कहानियां पाठकों का न केवल मनोरंजन करती हैं बल्कि एक इन्सान के रूप में उसे बेहतर भी करती हैं। आवरण आकर्षक एवं कौतूहल भरा है। हल्के नेचुरल शेड कागज पर साफ स्वच्छ मुद्रण आंखों को सुहाता है। यदा कदा वर्तनी की त्रुटियां चुभती हैं पर पठन प्रवाह में बाधा नहीं बनतीं। बाइंडिंग कमजोर होने से पन्ने खुल रहे हैं। भूमिका की बजाय विभिन्न समीक्षकों-साहित्यकारों के अभिमत को जगह देना स्वागतयोग्य पहल एवं प्रयोग है। कुल मिलाकर कहानी संग्रह ‘आगे से फटा जूता’ पाठक को कंकड़-कांटों से बचाते हुए मंजिल तक ले जाने में समर्थ है। मुझे विश्वास है, सुधी पाठकों, साहित्यकारों एवं समीक्षकों के बीच यह कथा कृति समादृत होगी।
कृति – आगे से फटा जूता
कथाकार – रामनगीना मौर्य
प्रकाशक – रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
पृष्ठ – 132, मूल्य – ₹220
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."