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साहित्य

“खोल दो” यही तो कहा था उसने…लेकिन ये आज का इंसान है कि कुछ खुलने नहीं देता…..वीडियो ? देखिए

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अनिल अनूप/ वीडियो दुर्गा प्रसाद शुक्ला 

मेरी ज़िंदगी में सबसे पसंदीदा कवि अगर फ़ैज़ हैं तो अफ़सानानिगारी के मामले में यह मोहब्बत सआदत हसन मंटो के लिए है। इस हद तक मोहब्बत कि मैंने सपनों में मंटो से बातें की हैं, उनसे कहानियां सुनीं हैं और हसरत है कि कुछ दिन किसी दीवानाखाने (मैं पागलखाना जैसा शब्द नहीं मानता) में बिताकर आऊं।

एक शेर है-

“वो तुम्हें याद करे, जिसने भुलाया हो तुम्हें

न कभी हमने भुलाया, न कभी याद किया”

यह शेर मंटो को नज़्र है। लोग मंटो को याद करने बैठे हैं क्योंकि यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। अपन को इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई खास मौका आए तभी मंटो को याद करें। हाँ, एक अच्छा बहाना ज़रूर है कि समाज को कम से कम तारीखों के ताने-बाने के ज़रिए ही सही, वो आइना तो दिखाएं जो मंटो अपनी कहानियों के मार्फ़त दिखाते रहे।

मंटो की उम्र चाहे जितनी साल हो चुकी है पर मंटो का कहा इन सौ सालों में भी हम समझ के राजी नहीं हैं। मंटो के सेमिनारों से निकलकर रास्तों, घरों तक पहुंचता पहुंचता इंसान वैसा ही जानवर बन जाएगा जैसा हमने नीले सियारों की कहानी में पढ़ा है।

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हम नील की मांद से निकले हुए लोग है। कपड़ों में वो छिपाते फिरते हैं जो आंखों से, ज़बान से टपकता रहता है। गीला, चिपचिपा, गंदा, बू से भरा, गला घोटता हुआ। एकदम वैसा जैसा मंटो ने दिखाया। हम अभी तक एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो सबसे ज़्यादा आइने से डरता है। खुद के अल्फ़ खुला देख पाने की हिम्मत हममें नहीं है। कोई खोल कर सामने रख दे तो नारियल और सिंदूर लेकर ढोंगियों की तरह पीठ फेर लेते हैं। इस पूरे दायरे को, जो हमने अपनी शक्लों के इर्द-गिर्द, आइनों से दूर तैयार कर लिया है, यहां जब-जब मंटो आइना लेकर आते हैं, हम नंगे नज़र आने लगते हैं।

पर नंगा पैदा होने वाला हर बच्चा केवल और केवल ओढ़ना चाहता है, ढकना चाहता है, छिपाना चाहता है। ताउम्र यही तो होता है। अपनी हर सच्चाई को छिपाने की कोशिश. कहीं कोई देख न ले। किसी और का क्या, खुद को ही कहीं सच्चा-सच्चा न देख लें, यही डर लिए जीते हैं हम।

हम खाप पंचायतों से घिरे हैं। प्यार की कहानियां जिस्म से शुरू होकर जिस्म पर सिमटती नज़र आती हैं। ललचाई आंखें कितनी बार फिसलती हैं पर दावा घोड़े के चश्मे की तरह केवल एक को देखने का करती हैं। लपलप करती नीयत हमेशा एक औपचारिकता को नक़ाब बनाकर पहने रहती है। हाथ मिलाते लोग मन में क्या कहते हैं और ज़बान से क्या।

कुछ भी तो नहीं बदला है मंटो और न बदलेगा। तुमने कहा था कि खोल दो.. पर खोलने के खेल में लगा यह पूरा इंसान दरअसल कुछ भी खुलने नहीं दे रहा है। इसे बू भी नहीं आती। न ठंडा गोश्त दिखाई देता है। अपने समाजी जानवर (अंग्रेज़ी में बहुत ख़ूबसूरती से हम इसे मैन इज़ अ सोशल एनिमल कहते हैं) होने के सच को स्वीकारना नहीं चाहते। हमको लगता है कि इंसान दरअसल किसी और तरह की कलंदरी का नतीजा है। इसमें प्राकृतिक और जैविक कुछ भी नहीं है।

यहां मर्यादा मां बनती है, प्रतिबद्धता पिता, नैतिकता परिवार, आस्था और विश्वास आपके हाथ बना दिए जाते हैं पर हम इन्हीं हाथों से हस्तमैथुन करते रहते हैं। इस पूरे परिवार को ज़बरदस्ती झेलते हुए और कोने में अपने जानवर होने के सच को निचोड़-निचोड़कर टपकाते हुए। जो सच है, उसे हमने या तो हरामी कहा है, या अश्लील और या फिर अनैतिक, नंगा, बेईमान, कुत्ता…. ऐसा बहुत कुछ।

मंटो, जब जब पन्ने के बाद पन्ने पलटता चलता हूं, एक आइना सामने होता है। और इस नीचता को स्वीकारने में मुझे ज़रा भी गुरेज़ नहीं है कि दरअसल मैं भी इन आइनों से डरता हूं। पर इस डर के बीच भी कहता है दिल कि ऐ दुनिया वालों, सड़ांध में गलते पिघलते रहने से बेहतर है कि जो सच है, उसे खोल दो।

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samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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