अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
जहांगीरपुरी और अलवर में बुलडोजर पर सियासत के बीच एनसीईआरटी की 10वीं कक्षा के राजनीति विज्ञान विषय के सिलेबस से फैज अहमद फैज की शायरी के कुछ अंशों को हटाने के फैसले पर भी घमासान मच गया है। सरकार के इस कदम पर साहित्यकारों को एतराज है।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने नए शैक्षिक सत्र के लिए पाठ्यक्रम की घोषणा कर दी है। अपने नए सिलेबस में सीबीएससी (CBSE New Syllabus) ने कक्षा 10 की समाज विज्ञान की पुस्तक से पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज की शायरी और 11वीं की इतिहास पुस्तक से इस्लाम की स्थापना, उसके उदय और विस्तार की कहानी को हटा दिया गया है। इसी तरह, 12वीं की किताब से मुगल साम्राज्य के शासन-प्रशासन पर एक अध्याय में बदलाव किया गया है। सिलेबस में इन बदलावों पर शिक्षक समुदाय की राय बंटी हुई है। कोई विद्यार्थियों के फायदे में बता रहा है तो किसी का मानना है कि इससे स्टूडेंट्स बहुत सी महत्वपूर्ण बातें जानने से महरूम हो जाएंगे। वहीं, कोशिशों के बावजूद प्रतिक्रिया के लिए सीबीएसई के सीनियर ऑफिसरों से संपर्क नहीं साधा जा सका।
वह फैज की इन पंक्तियों को हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अहम मानते हैं। वह भी ऐसे समय जब दुनिया विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी है, तब फैज जैसे विश्व कवि की पंक्तियों को पाठ से हटाना गैर जिम्मेदाराना निर्णय है। इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। फैज की शायरी प्रेम और शांति की प्रतीक हैं। यह वजह है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है।
नामचीन शायर फैज अहमज फैज की शायरी के कुछ अंशों को एनसीईआरटी के सिलेबस से हटाए जाने के निर्णय पर बहस शुरू हो गई है। चाहे कवि, शायर हों या फिर कथाकार या फिर प्रगतिशील चेतना से जुड़े लोग, सभी सरकार के इस कदम से हैरान हैं। उनका कहना है कि आखिर एकता और प्रेम की सीख नहीं दी जाएगी, सद्भाव का पाठ नहीं पढ़ाया जाएगा तो फिर पढ़ाया क्या जाएगा?
नीलम शंकर सरकार ने कहा- यह सत्ता डरी हुई है
कथाकार नीलम शंकर सरकार के इस फैसले से आहत हैं। उनकी मानें तो फैज की शायरी को एनसीईआरटी के सिलेबस से हटाना अनुचित कदम है। इससे पता चलता है कि यह सत्ता कितनी डरी हुई है। वह कहती हैं कि लेखकों, शायरों से जो सत्ता डरने लगती है, उसके दिन जाने वाले होते हैं। किसी के लिखे-पढ़े से डरने या मुंह चुराने का मतलब है कि दिल साफ नहीं है।
यह कोई राष्ट्रवादी सोच नहीं हो सकती। फैज साहब ने तो लोगों की ही पीड़ा इन शेरों में कही है। जरा सोचिए, जब जनता ही नहीं रहेगी तो कौन किस पर राज करेगा। इसी तरह कवियत्री संध्या नवोदिता कहती हैं कि फैज की कविताएं जुल्म के खिलाफ लड़ने का दस्तावेज हैं। यही वजह है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। फैज जैसे कवि की पंक्तियों को सिलेबस से हटाना बहुत बुरा फैसला है।
हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रेरित करती हैं उनकी पक्तियां
फैज की जो पंक्तियां हटाई गई हैं, वह अनगिनत लोगों को जुबानी याद हैं। हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रेरित करती इन पंक्तियों को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की साझा संवेदना के रूप में देखा जाता रहा है। प्रगतिशील विचारों से जुड़ी डॉ. एकता शुक्ला कहती हैं कि आखिर फैज की उन्हीं पंक्तियों को क्यों हटाया गया। यह सोच दिलों की दूरियां बढ़ाने का काम करेगी। वह कहती हैं कि फैज विश्व कवि हैं। उनकी कविताएं ही नहीं उनका जीवन भी गलत बातों के खिलाफ लड़ने को प्रेरित करता है।
किसी भी तरह की तब्दीली जब अचानक बिना कारण के होती है तो दिल और दिमाग फौरन उसे कबूल नहीं कर पाता। जिस तरह पाठ्यक्रम से फैज अहमद फैज की नज्म के अंश हटाने का प्रसंग आया है, वह चिंता जनक है। वह नज्म कोर्स में रखी गई थी, तो सोच समझ रखी गई थी। फिर बिना किसी दलील के उसका हटाया जाना बेचैनी सी पैदा कर गया है। बरसों पहले लिखी नज्म में अचानक ऐसा क्या नजर आया जिस पर आपत्ति जताई जा सकती है। इस समय विश्व स्तर पर जो कुछ हो रहा उसके परिप्रेक्ष्य में यह नज्म दुखे दिल और शोषित वर्ग का आईना है। – नासिरा शर्मा, कथाकार।
पाकिस्तान से बंग्लादेश के अलग होने पर फैज ने लिखी थी ये नज्म
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रो. प्रणय कृष्ण फैज की उन पंक्तियों को दोहराते हैं।
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद/ कब बनेंगे आशनांह, कितनी मुलाकातों के बाद/ कब नजर में आएगी बेदाग सब्जे की बहार…।
वो इन पंक्तियों के रचे जाने का संदर्भ भी बताते हैं। प्रणय बताते हैं कि 1971 में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से आजाद हो गया तो उसके कुछ समय बाद फैज साहब ढाका गए थे। उन जैसे मानवता के महान शायर को उस देश में भी वैसी ही आत्मीयता मिली थी, जैसी विभाजन के पहले मिलती थी। लेकिन, फैज को उससे भी आगे दोनों मुल्कों यानी पाकिस्तान और बांग्लादेश की अवाम के बीच मानवीय संबंधों की अपेक्षा थी। 1974 में वहां से लौटकर उन्होंने ढाका से वापसी पर शीर्षक से यह नज्म लिखी थी। जिसे लोग आज भी दोहराते हैं।
सिलेबस से हटाई गई फैज की शायरी मानवीय संबंधों की मिसाल
कथाकार ममता कालिया कहती हैं कि बच्चों के दिमाग में पढ़ाई के नाम पर किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं डाला जाना चाहिए। लेकिन, फैज की जिन पंक्तियों को सिलेबस से हटाया गया है, वह मानवीय संबंधों की प्रतीक रही हैं। वह पाकिस्तान से बंग्लादेश के स्वतंत्र होने के बाद मानवीयता पर केंद्रित पंक्तियां हैं। उनको आखिर पाठ से हटाने का औचित्य ही क्या था। फैज बहुत ही खूबसूरत शायर हैं। उनके पास बहुत ही अच्छी नज्में हैं।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."