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जयप्रकाश चौकसे नहीं रहे ; आयु का सेतु कहीं दरकने लगा था और अलविदा की गूंज उन्हें सुनाई देने लगी थी

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अनिल अनूप की खास रिपोर्ट

अभी पिछले दिन एक फरवरी को उनके फोन पर ही मौका मिला था बात करने की। अस्पताल से ही बात हुई। फोन किसी और के पास था तो उसने मेरा पूरा परिचय लिए और लेटे हुए चौकसे साहब को उसने जैसे ही कहा कि, कोई अनिल अनूप है उनका फोन आया है, आवाज मुझे भी सुनाई दे रही थी, उन्होंने कहा, माईक आन करो मुझे बात करनी है। और मेरी बात हुई।

हालचाल पूछने की औपचारिकता के बाद मैं अपने मतलब पर आ गया और अनुरोध किया कि, “कल दो फरवरी को हमारे वेबसाइट की प्रथम वर्षगांठ है आपके शाब्दिक आशीष की याचना करने को फोन किया हूं” ।

उनका जवाब था, “लेखकों का एक अलग समाज होता है जहां सिर्फ भाई भाई का रिश्ता ही पैदा होता है, फर्क सिर्फ इतना ही होता है कि कोई बड़ा भाई हो जाता है तो कोई छोटा । आप याचना शब्द की जगह सिर्फ सूचना भी कह देते तो भी अपने अनुज के लिए मेरा आशिर्वाद होता ही।” फिर चौकसे साहब ने तत्काल अपनी शुभकामनाएं लिखकर दी और बहुत सारी कमियां और खूबियां जो हमारे वेबसाइट के मुतल्लिक उनके जेहन में थी वो भी जाहिर कर दी।

बारह मिनट की वार्ता में उन्होंने जो बातें कही अगर सविस्तर उसका वर्णन किया जाए तो निःसंदेह एक लंबी धारावाहिक बन जाए।

हमारे साइट पर प्रसारित होने वाली कुछ प्रमुख ख़बरें और लेखों को वो पढ लिया करते थे और ये कम बड़ी उपलब्धि की बात नहीं है कि कलम के ऐसे सिपाही हमारे जैसे छोटे मोटे सहाफियों की संपादित या लिखी रचनाओं पर गाहे बेगाहे अपनी टिप्पणियां भी करते थे। आज उनका इहलोक छोड़ परलोक सिधार जाना पूर्व निर्धारित था ये मृत्यु देवता यमराज उनके कानों में हफ्ते भर पहले ही कह गए थे। 

मृत्यु की यथार्थ और उसकी अवश्यंभावी सत्य को भला कौन झुठला सकता है इसलिए हम तो सिर्फ इतना भर जानते हैं कि परलोकवासी होने के बाद अब जयप्रकाश चौकसे जी दुनियां की झंझावातों से दूर निश्चिंत होकर अपनी और बाकी लेखन को अंजाम देते रहेंगे।

जय प्रकाश चौकसे सिर्फ फिल्म समीक्षक नहीं थे बल्कि एक स्थापित उपन्यासकार और लेखक भी थे। दैनिक भास्कर अखबार में उनका कॉलम ‘पर्दे के पीछे’ खासा लोकप्रिय था। इसके अलावा उन्होंने दराबा और ताज बेकरारी नाम के उपन्यास भी लिखे थे, साथ ही राज कपूर के जीवन पर आधारित एक किताब का लेखन भी किया था, जिसका शीर्षक, ‘राजकपूर: सृजन प्रक्रिया’ था।

उन्होंने फिल्म निर्माण से लेकर फिल्म रियलिटी शो के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग का काम भी किया था। इसके अलावा वह फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन बिजनेस से भी जुड़े रहे। लेकिन उनकी असली पहचान फिल्म पत्रकार के रूप में ही रही। चौकसे ने सलमान खान अभिनीत बॉडीगार्ड फिल्म की कहानी भी लिखी थी, जोकि बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल फिल्म रही थी।

जय प्रकाश चौकसे का जन्म 1 सितंबर 1939 को मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में हुआ था। बुरहानपुर से उन्होंने मेट्रिक की पढ़ाई की थी। फिल्म पत्रकारिता में जय प्रकाश चौकसे बड़ा नाम थे। उनके द्वारा लिखे गए लेख काफी पढ़े जाते थे। फिल्म जगत से जुड़े मसलों पर उनके विचार हो या उनके द्वारा की गई फिल्म समीक्षा का काफी महत्व माना जाता था।

सांसों की डोर सृजन से बंधी होती है। रचनात्मकता यश को नहीं उम्र को भी बढ़ाती है और कलाएं जीवन में केवल बाह्य उपक्रम मात्र नहीं होती बल्कि उसका एक संसार आत्मा और देह के बीच भी रचता-बसता है जहां जीवन की तमाम उठापटक और तन-मन की आधियों-व्याधियों के बीच आयु के सेतु की सतत् मरम्मत होती रहती है। संगीत की साधना हो अथवा कैनवास में रंग भरती किसी चित्रकार की कूची अथवा शब्दों से संसार में रचते-पगते किसी लेखक, स्तंभकार की कलम, जिस दिन सृजन की यह यात्रा थमती है उससे बंधी सांसें भी उखड़ने लगती हैं और देह और आत्मा के बीच बंधा आयु का सेतु दरकने लगता है।

वरिष्ठ पत्रकार श्री जयप्रकाश चौकसे की सांसों की डोर भी उनकी कलम से बंधी थी। 26 साल तक एक कॉलम लगातार लिखते रहने वाले इस अद्भुत और अद्वितीय फिल्म पत्रकार, कहानीकार, उपन्यासकार और संवेदनशील कवि हद्य ने कुछ दिन पूर्व ही जब अस्पताल के बिस्तर से यह खबर अपने चाहने वालों और लाखों पाठकों के बीच पहुंचाई कि वे अब बीमारी और देह की मनाही के बीच लिख ना पाएंगे तो अंदेशा हो गया था कि चौकसे जी नि:संदेह ज्यादा तकलीफ में हैंं, अन्यथा कैंसर जैसी बीमारी के शारीरिक, मानसिक कष्ट और पीड़ा के बीच आत्मा के भीतर चल रही कलम की यह यात्रा अचानक ना थमती।

एक ऐसे दौर में जब फिल्मों को ही गंभीरता से नहीं लिया जाता था और उसका प्रभाव पत्रकारिता में सिनेमा और मनोरंजन पत्रकारिता पर भी नकारात्मक ही था और जिसके चलते फिल्म पत्रकारिता मुख्यधारा में केवल चटपटी मसालेदार खबरों की भरपाई मात्र थी, वहां जयप्रकाश चौकसे जैसे प्रखर फिल्म पत्रकार/स्तंभकार ने 5 दशक तक सिनेमाई दुनिया के संसार की ऐसी छवि गढ़ी जिसने फिल्म पत्रकारिता को एक स्तर दिया और अपनी गरिमा, प्रतिष्ठा के साथ स्थापित कर दिया।

उन्होंने उपन्यास ‘दराबा’, ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’ और ‘ताज बेकरारी का बयान’ भी लिखे। ‘उमाशंकर की कहानी’, ‘मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी अनुकृति कैमरा’ और ‘कुरुक्षेत्र की कराह’ उनकी कहानियां हैं।

चौकसे जी की समीक्षाएं आम फिल्मी समीक्षाओं की भाषा और गॉसिपबाजी से हटकर होती थी। उनमें दायित्वबोध भी था और इसीलिए वे पसंद भी किए जाते थे।

सागर और इंदौर विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने गुजराती कॉलेज में 13 साल अध्यापन किया। श्री चौकसे के अध्ययन, पठन और सूचनाओं के विराट संसार की गलियां दूर-दूर तक फैली हुईं थीं। 12 साल की उम्र में वे राजकपूर की आवारा से प्रभावित हुए थे और यही वह फिल्म थी जिसने उनके सामने बंबई के आकाश का चित्र खींचा। राजकपूर से प्रभावित जयप्रकाश जी बाद में कपूर परिवार के निकट भी आए और उनके स्तंभ में कपूर परिवार के जीवन की घटनाएं और फिल्मी जुड़ाव के ब्यौरे सामने आते रहे जिसकी वजह से वे आलोचना के भी शिकार हुए। 

बहरहाल, तमात विरोधाभासों, विषमताओं के बीच अपनी पत्रकारिता, लेखन और दीर्घ रचनात्मक यात्रा को लेकर जयप्रकाश चौकसे मानते थे कि साहित्य से सिनेमा तक का उनका यह सफल सफर उनके जीवन में घटे उन संयोगों का हिस्सा ही है जहां वे सही समय पर सही लोगों से मिल पाए।

चौकसे का यह अंतिम आलेख स्वघोषित दुनिया कूच कर जाने की खास पूर्व सूचना थी

और देखिए कैसा ही यह संयोग है कि जैसे ही उन्होंने अपने कॉलम को थामने की घोषणा की, उसके कुछ दिन बाद ही उनके सांसों की वह डोर भी थम गई जो सृजन से बंधी थी- ठीक महान लेखक प्रूस्त की तरह जो अपने महान उपन्यास “रिमेम्बरेंस ऑफ थिंग्स पास्ट” का आखिरी पन्ना लिखने के कुछ घंटे बाद ही इस संसार को अलविदा कह गए थे, जैसे वे केवल इसे ही लिखने आए थे।  

प्रभु चरणों में लीन जयप्रकाश चौकसे को समाचार दर्पण 24 परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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