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November 22, 2024 8:17 pm

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मानवीय गरिमा एवं स्नेह के आकांक्षी है कुष्ठ रोगी

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प्रमोद दीक्षित मलय

मई 1974 में संजीव कुमार तथा जया भादुड़ी अभिनीत एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी ‘नया दिन नई रात’। इस फिल्म में साहित्य के नौ रसों यथा श्रंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स,अद्भुत एवं शांत रसों पर आधारित नौ प्रकार की भूमिकाएं नायक संजीव कुमार द्वारा अभिनीत की गई थी। ये नौ भूमिकाएं सामाजिक जीवन के नौ व्यवहारों की झलक दिखा रहे थे। संत, डकैत, गायक, नशेड़ी, डाक्टर, साहूकार आदि छवियों के साथ ही इसमें एक दृश्य कुष्ठ रोग से ग्रस्त एक व्यक्ति से भी संबंधित था। संजीव कुमार के भाव प्रवण अभिनय ने कुष्ठ रोगी के पात्र को जीवंत कर दिया और समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति उपेक्षा, अलगाव एवं तिरस्कार की बजाय प्रेम, सहानुभूति एवं अपनेपन के भाव एवं मानवीय दृष्टिकोण के अंकुर फूटे। इसके साथ ही उस दौर की कुछ अन्य फिल्मों में भी कोढ एवं कोढ़ी पर दृश्य दिखायी देते हैं। इन सभी में कुष्ठ रोगी का अभिनय कर रहे पात्र ने उसके प्रति सहानुभूति एवं दया दिखाने वाले व्यक्तियों को उससे दूर रहने को कहते हुए इस रोग को उसके पापकर्मों का परिणाम बताया गया तो वहीं उसके समुचित इलाज एवं भोजन पोषण के प्रेरक दृश्य भी खींचे गये। एक प्रकार से यह तत्कालीन समाजिक नजरिए को व्यक्त करता है। यह धारणा उस समय व्याप्त थी कि कोढ़ व्यक्ति के इस जन्म या पूर्व जन्मों के पाप कर्मों का कुफल है जिसे उस व्यक्ति को भोगना ही है। हम सभी ने इस सामाजिक व्यवहार को बहुत करीब से देखा, सुना और समझा है। बड़े-बुजुर्गों द्वारा बच्चों को कुष्ठ रोगियों से बिल्कुल दूर रहने की सख्त हिदायत दी जाती थी। रोगी को समाज का कलंक माना जाता था। इसलिए रोगी गांव से बाहर कर दिये जाते थे, परिवार वालों का भी सहयोग-सम्बल नहीं मिलता था। बड़ी संख्या में रोगी हरिद्वार का रूख कर लेते थे। या फिर शहरों में बाजार, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और मंदिरों के बाहर भीख मांगकर बहिष्कृत, तिरस्कृत एवं अपमानित निकृष्ट जीवन जीने को विवश होते थे। लेकिन सरकारी और स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रयासों से कुष्ठ रोगियों को न केवल उपचार और आश्रय मिला बल्कि जीने की सम्मानजनक राह भी मिली। इसका श्रेय फ्रांसीसी मानवतावादी विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक राउल फोलेरो को जाता है जिन्होंने 1954 में कुष्ठ रोग दिवस मनाने की पहल कर जन सामान्य में जागरूकता लाने एवं रोग का उपचार कर रोकथाम करने की ओर विश्व का ध्यान खींचा। तब से प्रत्येक वर्ष जनवरी के अंतिम रविवार को विश्व कुष्ठ रोग दिवस मनाया जाता है। 

कुष्ठ रोग दिवस के माध्यम से इस घातक रोग के बारे में वैश्विक जागरूकता का प्रसार करने, रोग से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने और समुचित चिकित्सा के उपलब्ध होने का संदेश दिया जाता है।

उल्लेखनीय है कि कुष्ठ रोगियों के प्रति महात्मा गांधी के हृदय में न केवल असीम प्यार एवं अपनापन था बल्कि उनके लिए वे सम्मानजनक सामाजिक व्यवहार करने के भी पक्षधर थे। इसीलिए राउल फोलेरो ने महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा निवेदित करते हुए उनकी पुण्यतिथि 30 जनवरी को कुष्ठ रोग दिवस मनाने को समर्पित किया। तब से भारत में कुष्ठ रोग दिवस मनाकर गांधी जी के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हैं। जबिक वैश्विक स्तर पर यह आयोजन जनवरी महीने के अंतिम रविवार को किया जाता है।

कुष्ठ रोग एक संक्रामक रोग के रूप में समाज में माना जाता है। यह पाप कर्म का फल नहीं बल्कि एक जीवाणु जनित रोग है। वर्ष 1873 में चिकित्सक गेरार्ड हेनरिक आर्मोर हैन्सेन ने कुष्ठ रोग के उत्तरदायी जीवाणु माइक्रो बैक्टीरियम लैप्री और माइक्रो बैक्टीरियम लेप्रोमेटासिस को खोजा। उनके नाम पर इसे हैन्सेन रोग भी कहा जाता है। रोगी में इस रोग के शुरुआती लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। पांच साल तक यह जीवाणु बहुत धीरे-धीरे बढ़ता है। लेकिन बाद में गम्भीर रूप धारण कर त्वचा, नसों, हाथ-पैर और आंखों को प्रभावित करता है। यह प्रभावित अंगों में घाव कर देता है। बहुत समय पहले से ही यह भारत में पहचान लिया गया था। सुश्रुत एवं चरक संहिता में कुष्ठ रोग के लक्षण एवं उपचार का वर्णन मिलता है। इसके अलावा चीन और मिस्र में भी रोग के बारे में प्राचीन काल से जानते थे। 

कुष्ठ रोग के जागतिक प्रसार की बात करें तो दक्षिण-पूर्वी एशिया, भारत इंडोनेशिया, अफ्रीका, और ब्राजील में इस रोग की बहुतायत है। 2019-20 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार भारत में दुनिया के 57 प्रतिशत रोगी पाये गये थे। तब विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत ने अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर हिंदी, गुजराती, बांग्ला, उड़िया भाषा में फ्लिप चार्ट तैयार कर आशा बहुओं को वितरित किया था। जिसका प्रयोग छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, गुजरात, पश्चिमी बंगाल में लोगों को जागरूक करने के लिए किया गया था। इसके साथ ही एक एनीमेशन फिल्म भी बनायी गयी थी जिसमें रोग के लक्षण, जरूरी उपचार एवं सावधानियों का वर्णन था। भारत सरकार ने 1955 में राष्ट्रीय कुष्ठरोग नियंत्रण कार्यक्रम बनाया जो 1983 में राष्ट्रीय कुष्ठरोग उन्मूलन कार्यक्रम के नाम से काम कर रहा है। 1980 के दशक में बहु औषधि उपचार के माध्यम से रोगी को चिकित्सा दी जाने लगी जो लाभप्रद रहा।

आज सम्पूर्ण विश्व में कुष्ठरोग का निदान बहु औषधि उपचार द्वारा ही किया जा रहा है। भारत में कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिए 1840 में ब्रिटिश सैन्य अधिकारी हैरी रैम्जे ने अल्मोड़ा में सर्व प्रथम प्रयास किये। विश्व में कुष्ठरोग के समूल निर्मूलन के लिए 1874 में मिशन टू लैपर्स नामक अन्तरराष्ट्रीय संगठन की शुरुआत हुई। कुष्ठरोग का पहला टीका भारत में बनाया गया। इसके अतिरिक्त भारत माता कुष्ठ आश्रम फरीदाबाद, विश्वनाथ आश्रम वाराणसी, कुष्ठ सेवाश्रम गोरखपुर, राजकीय कुष्ठ आश्रम रिठानी (मेरठ) सहित देश भर में राज्य सरकारों एवं स्वप्रेरित स्वैच्छिक संस्थाओं ने कुष्ठ रोगियों के लिए उपचार एवं निवास हेतु संगठित प्रयास किये हैं। आज भारत, चीन, रोमानिया, मिस्र, नेपाल, सोमालिया, लाइबेरिया, वियतनाम एवं जापान में कुष्ठ रोगियों की बस्तियां या आश्रम हैं, जहां कुष्ठ रोगियों को इलाज हेतु रखा जाता है और इलाज बाद उनके रोजगार एवं पुनर्वास के बेहतर प्रबंध किये जाते हैं। 

महात्मा गांधी सामाजिक जीवन में मानवता एवं समानता के पक्षधर रहे हैं। वह मनुष्यों में छुआछूत, गैरबराबरी के व्यवहार के सख्त खिलाफ थे।। कुष्ठ रोगियों के प्रति सेवा को मानवता की सेवा मानते थे। उनकी पुण्यतिथि के अवसर हम संकल्प लें कि कुष्ठरोगियों के प्रति सहानुभूति, संवेदनशीलता, समता एवं स्नेहसिक्त व्यवहार करते हुए कुष्ठरोगियों को मानवीय गरिमा अनुकूल सम्मानजनक जीवन जीने में अपनी यथेष्ट भूमिका निर्वहन करेंगे।

लेखक शिक्षक एवं शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा (उ.प्र.)।
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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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