उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद जिले के दिहुली गांव में 1981 में हुए दलित नरसंहार के 44 साल बाद मैनपुरी की अदालत ने तीन दोषियों को मौत की सजा सुनाई। जानिए इस जघन्य हत्याकांड की पूरी कहानी और पीड़ित परिवारों की प्रतिक्रिया।
उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद ज़िले के दिहुली गांव में 1981 में हुए जघन्य नरसंहार के 44 साल बाद मैनपुरी की अदालत ने तीन दोषियों को मौत की सजा सुनाई है। इस हत्याकांड में 24 दलितों को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया था। पहले यह गांव मैनपुरी जिले का हिस्सा था, लेकिन अब यह फिरोज़ाबाद में स्थित है।
इतिहास में दर्ज एक भयावह घटना
18 नवंबर 1981 को दिहुली गांव में दलित समुदाय के 24 लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस नरसंहार के पीछे डकैत संतोष, राधे और उनके गिरोह का हाथ बताया गया था। पुलिस की चार्जशीट के अनुसार, इस घटना को अंजाम देने वाले ज़्यादातर अभियुक्त अगड़ी जाति से थे।
दरअसल, इस दुश्मनी की शुरुआत तब हुई जब दलित समुदाय के कुंवरपाल नामक व्यक्ति की मित्रता एक अगड़ी जाति की महिला से हो गई। यह बात संतोष और राधे को पसंद नहीं आई और उन्होंने कुंवरपाल की हत्या कर दी। इसके बाद पुलिस ने कार्रवाई करते हुए संतोष-राधे गैंग के दो सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया, जिससे गैंग के अन्य सदस्यों को शक हुआ कि दलित समाज के लोग पुलिस के साथ मिले हुए हैं। बदले की आग में उन्होंने दिहुली गांव पर हमला कर दिया।
चार घंटे तक चली गोलीबारी
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, संतोष-राधे गिरोह के 14 लोग पुलिस की वर्दी में गांव में घुसे और अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। यह गोलीबारी शाम 4:30 बजे शुरू हुई और चार घंटे तक जारी रही। जब तक पुलिस मौके पर पहुंची, तब तक हमलावर फरार हो चुके थे।
इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने गांव का दौरा किया था। विपक्ष ने इस हत्याकांड को लेकर सरकार पर सवाल खड़े किए थे। बाबू जगजीवनराम समेत कई नेता गांव पहुंचे थे।
न्याय की लंबी लड़ाई
इस केस में कुल 17 अभियुक्त थे। हालांकि, 44 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान 13 अभियुक्तों की मौत हो चुकी है, जबकि एक अभियुक्त अब भी फरार है। अदालत ने हाल ही में तीन अभियुक्तों—कप्तान सिंह, रामसेवक और रामपाल—को दोषी करार दिया था। अब इन तीनों को मौत की सजा सुनाई गई है।
अभियोजन पक्ष के वकील रोहित शुक्ला ने बताया कि अदालत ने दोषियों को धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या के प्रयास), 216 (अभियुक्तों को शरण देना), 120 बी (आपराधिक साजिश) और 449-450 (घर में घुसकर अपराध करना) के तहत दोषी ठहराया है।
पीड़ित परिवारों की प्रतिक्रिया
न्याय मिलने के बावजूद पीड़ित परिवारों को लगता है कि यह फैसला काफी देर से आया है। पीड़ित पक्ष के संजय चौधरी ने कहा,
“न्याय हुआ है, लेकिन बहुत देर से। अभियुक्त अपना जीवन जी चुके हैं। अगर यह फैसला पहले आता तो बेहतर होता।”
निर्मला देवी, जिनके दो चचेरे भाई इस घटना में मारे गए थे, ने कहा कि गांव में अब भी डर का माहौल है।
चश्मदीदों की आपबीती
भूप सिंह, जो उस समय 25 साल के थे, अब 70 साल के हो चुके हैं। वे बताते हैं कि इस हत्याकांड के बाद दलित समाज के लोगों ने गांव से पलायन शुरू कर दिया था। हालांकि, सरकार ने पुलिस और पीएसी को तैनात कर लोगों को गांव में ही रुकने के लिए कहा।
राकेश कुमार, जो उस समय 14-15 साल के थे, बताते हैं,
“मैं घर का काम कर रहा था, तभी अचानक गोलीबारी शुरू हो गई। मैं धान के पुवाल के ढेर में छुप गया। जब रात में फायरिंग बंद हुई, तो बाहर निकला और देखा कि मेरी मां चमेली देवी के पैर में गोली लगी थी।”
उनकी मां चमेली देवी, जो अब करीब 80 साल की हैं, उस भयावह मंजर को याद करते हुए कहती हैं,
“उन्होंने औरतों-बच्चों किसी को नहीं छोड़ा। जो मिला, उसे मार डाला।”
गांव में पसरा सन्नाटा
आज भी दिहुली गांव के दलित बहुल इलाकों में उस दिन की दहशत कायम है। गांव के लोग इस फैसले को न्याय की जीत मानते हैं, लेकिन उनका कहना है कि अगर यह फैसला पहले आता, तो इसका असर ज्यादा होता।
इस हत्याकांड ने भारतीय न्याय व्यवस्था की धीमी प्रक्रिया को भी उजागर किया है। 44 साल बाद आया यह फैसला पीड़ित परिवारों को राहत तो देता है, लेकिन बीते वर्षों की तकलीफें कभी नहीं मिटेंगी।
➡️चुन्नीलाल प्रधान के साथ ब्रजकिशोर सिंह की रिपोर्ट

Author: जगदंबा उपाध्याय, मुख्य व्यवसाय प्रभारी
जिद है दुनिया जीतने की