चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
कानपुर में होली केवल एक दिन का त्योहार नहीं, बल्कि पूरे सात दिनों तक चलने वाला रंगों का महोत्सव है। इस साल होली 14 मार्च को खेली जाएगी, लेकिन रंगों का जोश 20 मार्च तक गंगा मेले में चरम पर पहुंचेगा। खास बात यह है कि इस दौरान शहर के बड़े हिस्से में छुट्टी का माहौल रहेगा, जबकि थोक बाजार पूरी तरह बंद रहेंगे।
गंगा मेला: 250 साल पुरानी परंपरा
कानपुर में गंगा मेला की परंपरा लगभग 250 साल पुरानी मानी जाती है। इतिहासकारों के अनुसार, साहित्यकार सद्गुरु शरण अवस्थी की आत्मकथा में इस बात का जिक्र मिलता है कि 1910 में भी होली के अंजे (रंगों का त्योहार) लंबे समय तक चलते थे। यही नहीं, 1875 की ‘तवारीख-ए-जिला कानपुर’ नामक उर्दू किताब में भी जाजमऊ में होली के पांचवें दिन तक रंग खेलने का उल्लेख मिलता है।
गंगा मेले से जुड़ी रोचक कहानियां
इस मेले से जुड़ी कई ऐतिहासिक और जनश्रुतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जाजमऊ के राजा और मखदूम शाह आला के बीच हुए विवाद के बाद जब पांचवें दिन मामला शांत हुआ, तो उन्होंने होली खेलकर खुशी मनाई। वहीं, एक अन्य कहानी के अनुसार, 1917 में अंग्रेजों द्वारा लगाए गए भारी लगान के विरोध में वाजिदपुर के जमींदार जगन्नाथ ने आंदोलन छेड़ दिया था। इस कारण होली नहीं मनाई गई, लेकिन जब पांचवें दिन आंदोलनकारियों की रिहाई हुई, तो पूरे उल्लास के साथ रंगों का त्योहार मनाया गया।
बिरहाना रोड: कानपुर की होली का मुख्य केंद्र
कानपुर में होली की असली धूम बिरहाना रोड पर देखने को मिलती है। यहां मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन होता है, जिसमें हजारों लोग जुटते हैं। यह सड़क करीब 1 किलोमीटर लंबी है, और होली के दिन यहां इतनी भीड़ होती है कि तिल रखने की भी जगह नहीं बचती।
होली के दौरान निकलने वाले रंगों के ठेलों (रथों) को देखने के लिए लोग घर की छतों और बालकनियों से टकटकी लगाए रहते हैं। लोडरों और ठेलों में रखे ड्रमों से रंगीन पानी फेंका जाता है, जिससे दूसरी और तीसरी मंजिल तक लोग रंगों से सराबोर हो जाते हैं।
प्रशासनिक तैयारी और सुरक्षा व्यवस्था
गंगा मेले की शुरुआत डीएम, पुलिस कमिश्नर और विधायकों को पगड़ी पहनाकर गुलाल लगाने से होती है। इसके बाद तिरंगा फहराया जाता है और रंगों की ठेलों की भव्य यात्रा शुरू होती है। पूरे शहर में उत्सव का माहौल होता है और शाम को सरसैया घाट पर धर्म और जाति की सीमाओं को मिटाते हुए लोग एक-दूसरे को होली की बधाइयां देते हैं।
कानपुर में होली की छुट्टियों की परंपरा कैसे शुरू हुई?
कानपुर का औद्योगीकरण बढ़ने के बाद कई क्षेत्रों से लोग यहां आकर बसने लगे। पहले यहां होली की कोई निर्धारित छुट्टी नहीं होती थी। इतिहासकारों के अनुसार, शहर के कामगारों ने खुद ही छुट्टी लेना शुरू कर दिया, जिससे धीरे-धीरे यह परंपरा बन गई। व्यापारियों ने भी साल में एक बार छुट्टी लेने की इस परंपरा को अपनाया और आज यह कानपुर की पहचान बन चुकी है।
कानपुर की होली केवल रंगों का खेल नहीं, बल्कि इतिहास, परंपरा और उत्साह से जुड़ा एक भव्य आयोजन है। गंगा मेला, बिरहाना रोड की मटकी फोड़ प्रतियोगिता और रंगों के ठेले इस त्योहार को और खास बना देते हैं। जब तक कानपुर में होली के रंग न बिखरें, तब तक होली अधूरी लगती है!
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Author: जगदंबा उपाध्याय, मुख्य व्यवसाय प्रभारी
जिद है दुनिया जीतने की