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12 January 2025 9:57 am

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सभ्य समाज पर काला धब्बा: रुदाली प्रथा की विडंबना

59 पाठकों ने अब तक पढा

वल्लभ लखेश्री की खास रिपोर्ट

भारत में सामंतवाद से जुड़ी कई कुप्रथाओं ने सदियों से दलितों और महिलाओं का शोषण किया है। इन्हीं कुप्रथाओं में से एक है रुदाली प्रथा, जो शोषण और अमानवीयता का एक प्रतीक है। इस प्रथा के तहत, गरीब और दलित महिलाएं जमींदारों और ठाकुरों की मौत पर मातम करने के लिए मजबूर की जाती थीं। यह मातम दिखावा मात्र होता था, जहां इन महिलाओं को जोर-जोर से रोने, चीखने-चिल्लाने और खुद को लोटपोट करने का अभिनय करना पड़ता था।

सामंती प्रथा का प्रतीक

रुदाली प्रथा सामंती समाज की उस मानसिकता को दर्शाती थी, जहां “उच्चकुल” की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपना दुख व्यक्त करना अनुचित माना जाता था। यदि उनके पति की मृत्यु हो जाती, तब भी उन्हें अपने दुख को दबाकर रखना पड़ता था। उनकी जगह उनके दर्द और शोक को दिखाने के लिए रुदालियों को बुलाया जाता था। ये रुदालियां काले कपड़े पहनकर और जोर-जोर से विलाप कर अपने “काम” को अंजाम देती थीं।

रुदालियों का निजी जीवन

रुदाली प्रथा से जुड़ी महिलाओं को न केवल सामाजिक बहिष्कार सहना पड़ता था, बल्कि उन्हें एक सामान्य और खुशहाल जीवन जीने का अधिकार भी नहीं दिया जाता था। कहा जाता है कि यदि रुदाली खुद अपने पारिवारिक जीवन में खुश होती, तो वह दूसरों की मौत पर “नकली” आंसू नहीं बहा सकती थी। इस कारण रुदालियों को सामाजिक तौर पर अपमानित और वंचित रखा जाता था।

महाश्वेता देवी और रुदाली प्रथा का सिनेमा में चित्रण

महान साहित्यकार महाश्वेता देवी ने इस अमानवीय प्रथा पर अपनी कलम चलाई और उनके उपन्यास “रुदाली” पर 1993 में कल्पना लाजमी ने एक चर्चित फिल्म बनाई। इस फिल्म में लता मंगेशकर और भूपेन हजारिका का गाया हुआ गीत “दिल हूम-हूम करे, घबराए” रुदालियों की पीड़ा और उनके निजी दुखों का सजीव चित्रण करता है।

आजादी के 75 साल बाद भी जारी है प्रथा

यह अत्यंत दुखद है कि भारत के आजाद होने के 75 साल बाद भी देश के कुछ हिस्सों में यह कुप्रथा जारी है। कुछ पिछड़े इलाकों और आदिवासी समुदायों में आज भी महिलाएं दूसरों की मौत पर बेमन से आंसू बहाने के लिए विवश हैं। इस प्रथा में केवल महिलाओं का ही शोषण नहीं होता, बल्कि रुदालियों के पूरे परिवार को अपमान और मानसिक यातना सहनी पड़ती है। परिवार के पुरुषों, बच्चों और बुजुर्गों को भी सामाजिक बहिष्कार और जबरन सिर मुंडवाने जैसी अमानवीय परंपराओं का सामना करना पड़ता है।

संविधान के अधिकारों का उल्लंघन

रुदाली प्रथा भारतीय संविधान में निहित समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों का खुला उल्लंघन है। दलितों और महिलाओं के लिए आरक्षण का विरोध करने वाले अक्सर इस तरह की जातिवादी प्रथाओं को नजरअंदाज कर देते हैं। वास्तविकता यह है कि इस तरह की प्रथाओं को जड़ से समाप्त करना और शोषित वर्ग को समाज की मुख्यधारा में लाना ही सच्चा सामाजिक सुधार है।

प्रथा का सीमित प्रभाव, लेकिन समस्या बरकरार

हालांकि समय के साथ और सामाजिक संगठनों के प्रयासों से यह प्रथा अब काफी हद तक सिमट चुकी है, लेकिन कुछ पिछड़े क्षेत्रों में आज भी इसकी काली छाया देखी जा सकती है। यह प्रथा केवल महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं है, बल्कि यह पूरे सभ्य समाज के लिए एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती है।

रुदाली प्रथा जैसी परंपराएं न केवल महिलाओं के शोषण का प्रतीक हैं, बल्कि यह हमारे समाज की सामंती सोच को भी उजागर करती हैं। ऐसे में आवश्यकता है कि हम इन प्रथाओं को जड़ से समाप्त करने और दलितों तथा महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए ठोस कदम उठाएं। सभ्य और प्रगतिशील समाज के निर्माण के लिए यह बेहद जरूरी है।

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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