अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के लिए चुनौतियां समय के साथ बढ़ती जा रही हैं। हालांकि विधानसभा उपचुनाव में जीत सभी पार्टियों का मुख्य उद्देश्य है, लेकिन बसपा के सामने दांव और भी ऊंचा है। पार्टी को अपने कोर वोट बैंक को दूसरी पार्टियों की सेंधमारी से बचाने के साथ-साथ ‘बहुजन हिताय’ पार्टी की छवि को कायम रखने की चुनौती है।
पिछले कुछ दशकों से बसपा प्रमुख मायावती दलित राजनीति का प्रमुख चेहरा रही हैं। लेकिन हाल के चुनावों में यह देखा गया है कि उनके दलित वोट बैंक में धीरे-धीरे भाजपा और समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपनी पकड़ मजबूत की है। अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती आजाद समाज पार्टी (ASP) और इसके नेता चंद्रशेखर आजाद की है, जो दलित वर्ग में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। चंद्रशेखर ने नगीना से लोकसभा चुनाव जीता और इसके बाद से दलित युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता में इजाफा हुआ है।
इस राजनीतिक बदलाव ने बसपा को अपनी रणनीतियों में बदलाव लाने के लिए मजबूर कर दिया है। सवाल उठता है कि क्या चंद्रशेखर, मायावती के नेतृत्व वाली बसपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रहे हैं? और क्या यही कारण है कि बसपा इस उपचुनाव में पूरी ताकत झोंक रही है?
उत्तर प्रदेश में दलित वोटरों के बीच पैठ बनाना ही आगे ‘बहुजन हिताय’ की राजनीति का रास्ता तय करेगा। इसी होड़ में बसपा और आजाद समाज पार्टी दोनों ने विधानसभा उपचुनाव में अपने पूरे जोर से चुनाव प्रचार किया है। मायावती, जो अब तक दलित राजनीति का चेहरा रही हैं, के सामने चंद्रशेखर एक नए चेहरे के रूप में उभर कर आए हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, दोनों ही पार्टियां उपचुनाव में दलित वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही हैं, और यह चुनाव प्रचार के दौरान साफ झलक रहा है।
चंद्रशेखर ने लोकसभा चुनाव के बाद ही यह घोषणा कर दी थी कि उनकी पार्टी आजाद समाज पार्टी-कांशीराम (ASP) विधानसभा उपचुनाव लड़ेगी। उन्होंने आठ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जबकि बसपा ने सभी नौ सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए हैं।
बसपा की हालत पिछले कुछ चुनावों में कमजोर रही है। 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 30.43% था, जो 2024 के लोकसभा चुनाव तक गिरकर 9.39% पर पहुंच गया है। पिछले चुनावी नतीजों ने बसपा के लिए खतरे की घंटी बजा दी है और पार्टी को अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
2012 के बाद से बसपा की राजनीतिक ताकत कमजोर पड़ती गई। इस बीच, भीम आर्मी के जरिए चंद्रशेखर ने दलित वोटरों में अपनी जगह बनानी शुरू की। उनका समर्थन लोकसभा चुनाव तक इतना बढ़ा कि वे सांसद बन गए। अब, वे अपनी पार्टी का विस्तार करते हुए बसपा के मुख्य मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रहे हैं।
बसपा प्रमुख मायावती ने अपने संगठन को निर्देश दिया है कि वे पार्टी के कोर वोटरों को वापस लाने के लिए पूरी ताकत लगाएं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मायावती की बसपा इस चुनौती का सामना कर पाती है या चंद्रशेखर आजाद दलित राजनीति का नया चेहरा बनकर उभरते हैं।