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November 23, 2024 4:44 am

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“उज्जैन के मोहन” की तान पर यूपी बिहार में यादवों को रिझा पाएगी भाजपा?

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

लखनऊ: मध्य प्रदेश में विधायक दल की बैठक में मोहन यादव को CM का चेहरा चुने जाने के बाद बिहार के भाजपा नेता सुशील मोदी की प्रतिक्रिया कुछ यूं थी, ‘आरजेडी तो बिहार में किसी यादव को CM नहीं बना पाई परंतु भाजपा ने मध्य प्रदेश में यादव को CM बना दिया।’ 

श्रेय और तंज का यह दौर केवल बिहार तक सीमित नहीं है, यूपी में भी भाजपा के नेता इन तर्कों के तीर सपा की ओर फेंक रहे हैं। ऐसे में सियासी गलियारों में आकलन शुरू हो गया है कि एमपी के मोहन की ‘तान’ से यूपी-बिहार के यादवों को मोहने में भाजपा कितनी सफल होगी? मध्य प्रदेश में CM की कुर्सी तक पहुंचने वाले मोहन यादव दूसरे यादव चेहरे हैं। इससे पहले 2005 में भाजपा ने ही बाबूलाल गौर को CM बनाया था।

यूपी की बात करें तो यादव-मुस्लिम कोर वोट बैंक की राजनीति करने वाली सपा के चेहरे अखिलेश यादव 2017 तक CM थे और इसके बाद सत्ता से बाहर हो गए। 

दूसरी ओर, बिहार में राबड़ी देवी CM के पद पर आखिरी यादव चेहरा थीं, जिनकी कुर्सी 2005 में चली गई थी। 

2015 में नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन में हुई प्रचंड जीत में अधिक सीटें जीतने के बाद भी आरजेडी ने CM की कुर्सी नीतीश कुमार के ही पास रहने दी। 

पिछले साल अगस्त में नीतीश जब भाजपा का साथ छोड़कर आरजेडी के साथ आए तो उनकी CM की कुर्सी नहीं हिली, तेजस्वी यादव जरूर डिप्टी CM बने।

यूपी- बिहार में यादव कितने अहम?

मोहन यादव को जिस एमपी में भाजपा ने CM बनाया है, वहां भी यादव वोटर 8 फीसदी बताए जाते हैं। यूपी में यादव वोटरों की भागीदारी 8 फीसदी से 9 फीसदी तक होने का दावा किया जाता है। 

मैनपुरी, इटावा, कन्नौज, बदायूं, फिरोजाबाद, आजमगढ़, अयोध्या, संतकबीरनगर, कुशीनगर, फर्रुखाबाद, जौनपुर आदि लोकसभा सीटों पर इनका प्रभावी असर है। यूपी में सपा का यह सबसे ठोस वोट बैंक हैं।

लोकसभा में इस समय चार यादव सांसद हैं जिसमें दो सपा, एक बसपा व एक भाजपा का है।

दूसरी ओर, बिहार में आए हालिया जातीय सर्वे के अनुसार वहां यादवों की जनसंख्या 14.30 फीसदी है। यहां से पांच यादव लोकसभा पहुंचे हैं, जिसमें नित्यानंद राय को मोदी सरकार में मंत्री भी बनाया गया है। हालांकि, यादव यहां लालू प्रसाद यादव की आरजेडी का कोर वोट बैंक माने जाते हैं। 

आरजेडी- जेडीयू की प्रदेश सरकार में 25 फीसदी मंत्री इसी बिरादरी से हैं। ये आंकड़ें इन राज्यों की सियासत में यादव वोटरों के दम की तस्वीर पेश करते हैं।

भाजपा फेंकती रही है पासा

मोदी-शाह की अगुआई वाली भाजपा ने अपनी रणनीति और सामाजिक विन्यास को बदलते हुए वोट बैंक के विस्तार में बड़ी सफलता पाई है। 

2014 के लोकसभा चुनाव से शुरू हुए जीत के सिलसिले के विस्तार के लिए भाजपा ने ओबीसी, दलित सहित हर संभावित वोट पॉकेट में पैठ बहाने के लिए पसीना बहाया है। 

सपा, आरजेडी की ताकत माने जाने वाले यादवों को रिझाने की कवायद भी उसमें एक है। एमपी में मोहन यादव को CM बनाना भी इसी दांव का हिस्सा माना जा रहा है। 

बिहार में 2013 में यादव चेहरे को नेता प्रतिपक्ष बनाने से लेकर सरकार-संगठन तक भागीदारी बढ़ाई गई। लालू के खास रामकृपाल यादव जैसे चेहरे साथ लाए गए।

वहीं, यूपी में भी सरकार, संगठन, सदन तक यादवों की भागीदारी बढ़ी है। हरिनाथ सिंह यादव और संगीता यादव को राज्यसभा भेजा गया है तो सुभाष यदुवंश एमएलसी बनाए गए हैं। प्रदेश सरकार में गिरीश यादव मंत्री हैं। 

मुलायम परिवार के करीबी माने जाने वाले चेहरों तक को भाजपा अपने पाले में करने में सफल रही है। यहां तक कि दोबारा सपा में लौटे मुलायम के भाई शिवपाल यादव भी मैनपुरी लोकसभा सीट के उपचुनाव के पहले भाजपा व सरकार के ही नजदीक खड़े थे।

इशारे वोटरों के मिजाज में छिपे हैं

सियासत की गणित पर अलग दिख रही तस्वीर अक्सर मुद्दों व चुनाव के हिसाब से बदलती दिखती है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद यह ट्रेंड और मुखर है। 

मसलन 2012 में यूपी की सत्ता पर काबिज हुई सपा 2014 के लोकसभा चुनाव में महज 5 सीटें जीत पाई थी। इन सभी सीटों पर मुलायम परिवार के ही चेहरे थे। फर्रुखाबाद, इटावा, जौनपुर आदि यादव वोटरों के प्रभाव वाली सीटों पर भाजपा काबिज हुई।

2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन होने के बाद भी सपा को यादव बेल्ट की सीटों मसलन कन्नौज, बदायूं, इटावा, फर्रुखाबाद व फिरोजाबाद तक पर हार का सामना करना पड़ा। इसमें तीन सीटों पर मुलायम परिवार के ही चेहरे चुनाव में थे। 

आजमगढ़ में हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा के दिनेश लाल यादव निरहुआ ने अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को हरा दिया। जाहिर है बिना यादव वोटों में सेंधमारी के ये नतीजे संभव नहीं थे।

हालांकि, 2022 के विधानसभा चुनाव में यादव वोटर बहुतायत में सपा के पक्ष में लामबंद दिखे। वहीं, बिहार में 2015 में तीन-चौथाई सीटें जीतने वाले महागठबंधन के खाते में 2019 के लोकसभा चुनाव में 40 में महज एक सीट आई। 

यादव बहुल मानी जाने वाली पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से लालू यादव सहित उनका परिवार लगातार तीन चुनाव हार चुका है। विधानसभा व लोकसभा में वोटरों के अलग-अलग मिजाज ने भाजपा की उम्मीदों की जमीन को और मजबूत किया है।

भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती और लक्ष्य 2024 का लोकसभा चुनाव है। चुनाव दर चुनाव पार्टी अपना वोट शेयर बढ़ाने में सफल रही है। उसकी पीछे हर बार नए वोटरों को जोड़ने की कारगर रणनीति है। 

भाजपा के एक नेता कहते हैं कि चुनाव मोदी के चेहरे पर होना है और हमारी सबसे बड़ी ताकत लाभार्थी वोट बैंक है। इनके सबसे बीच पार्टी सामाजिक समीकरण भी दुरुस्त करती चल रही है। हर चुनाव में कुछ वोट छिटकते हैं, उनकी भरपाई नए वोट बैंक से हो जाती है। 

चेहरों के जरिए संदेश की यह कवायद आंशिक असर भी डालेगी तो वह खिसकने वाले वोटों की जगह लेने के लिए पर्याप्त होगी। इसलिए, बर्फ थोड़ी भी पिघली तो जीत की ठंडई बनाने में काम तो आएगी ही।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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