अनिल अनूप के साथ दुर्गा प्रसाद शुक्ला की खास रिपोर्ट
उन्होंने हिंदी में कविता लिखी, जो हाशिए की जातियों, दलितों, गरीब लोगों की दुर्दशा को उजागर करती है। नाम है उनका अदम गोंडवी। दुष्यंत ने अपनी गजलों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की है, जहां से एक-एक चीज बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके। यह अजीब इत्तफ़ाक भी है कि दोनों ने अपने-अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना।
अदम का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है। समाज और व्यवस्था को आइना दिखाते हुए देखिए इन्होंने क्या कहा है-
बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है
कोई रूसो कोई हिटलर कोई खय्याम होता है
इन पंक्तियों से दो कदम आगे बढ़ कर देखा जाए तो उनकी इस गंभीरता का कायल कौन नहीं हो सकता –
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब
अदम गोंडवी…वो नाम जिनके लिखे शेर विपक्ष में रहने वाले नेताओं की जुबान पर रटा होता है। लेकिन वही नेता जब सत्ता में आता है तब उसे शेर चुभने लगते हैं। अदम की यही उपलब्धि थी। वह पक्ष-विपक्ष के नहीं बल्कि जीवनभर चिर विपक्ष बने रहे। उनका लिखा एक-एक शब्द बिना किसी धुंधलके के पहचान में आ जाता है। उनका गंवई अंदाज में लिखा और पढ़ा गया शेर सत्ता को सीधे चुनौती देता है।
अदम का असली नाम रामनाथ सिंह था। गोंडा जिले के अट्टा परसपुर गांव में घर है। कभी कोई पद्म पुरुस्कार नहीं मिला। सत्ता के आगे कभी झुके नहीं। मजदूरों के दर्द की बात की। महिलाओं के अपमान पर लिखा। नेताओं की निरंकुशता और तानाशाही पर तंज कसा।
अदम गोंडवी उर्फ रामनाथ सिंह जाति से ठाकुर थे। इस जाति पर अक्सर अत्याचार करने के आरोप लगते रहे लेकिन अदम ऐसे नहीं थे। उनकी रचना, ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको…’ बेहद संवेदनशील है। इसमें दलितों की व्यथा से लेकर पुलिस के अत्याचार, जमींदारों के अनाचार को गोंडवी साहब ने बहुत बारिकी से पेश किया गया है। उनकी ये रचना पढ़िए…
वो जिनके हाथ में छाले हैं
पैरों में बिवाई है
उसी के दिम पे रौनक
आपके महलों में आई है।
अदम गोंडवी वीर रस के कवि थे। लेकिन वह पाकिस्तान के खिलाफ नहीं बल्कि अपने देश की तंगहाल व्यवस्था पर तंज कसते हुए अपनी रचनाएं पढ़ते थे। इसलिए उन्हें सरकार या फिर सरकारी लोगों की तरह से आयोजित प्रोग्राम में नहीं बुलाया जाता था।
अदम को वहीं बुलाया जाता था जहां आयोजक पूरी तरह से आजाद हो। इसके एवज में पैसे तो मिलते थे, लेकिन उतने नहीं जितना सरकार की तरह से आयोजित मुशायरों में मिलते थे। व्यवस्था को चुनौती देती उनकी ये रचना पढ़िए।
जो डलहौजी न कर पाया वो
ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान
को नीलाम कर देंगे
अदम गोंडवी को आखिरी दौर में यानी 1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया। 2001 में उन्हें हिन्दी में विशेष योगदान के लिए शहीद शोभा संस्थान के जरिए माटी रतन सम्मान दिया गया। उन्हें कभी कोई पद्म पुरस्कार नहीं मिला। इसकी बड़ी वजह ये है कि वह अपनी रचनाओं से लगातार सवाल करते रहे।
अदम गोंडवी लखनऊ और दिल्ली में रहे। यहां नेताओं की कार्यशैली को बहुत करीब से देखा। उन्होंने दफ्तरों में आम आदमी को परेशान होकर इधर से उधर दौड़ते हुए देखा। मामूली काम के लिए घूस लेते हुए लोगों को देखा। उन्होंने लोगों का जो दर्द महसूस किया वही रच दिया।
पिन खुली, टाई खुली,
बकलस खुला, कॉलर खुला,
खुलते खुलते डेढ़ घंटे में
कहीं अफसर खुला।
आम आदमी के कवि अदम गोंडवी का आज जन्मदिन है. वे रचनाकार से ज्यादा क्रांतिकारी के तौर पर याद रखे जाएंगे. यथार्थ के एक ऐसे रचनाकार जो सीधे प्रहार करते हैं. जिसे काव्य-शास्त्र की मान्यताओं-वर्जनाओं की कोई चिंता नहीं है. ‘हरखुआ की छोकरी’ उन्हें ‘सरजूपार की मोनालिशा’ लगती है तो फागुन की धूप बिल्कुल नशीली नहीं लगती. ताउम्र धोती-कुर्ता और अंगोछे में दिखने वाले अदम साहेब की रचनाओं की यही खासियत उनके पढ़ने वालों को पसंद भी आती हैं।
समय और परिवेश के प्रति जो जितना जागरूक है, वो उतना ही आधुनिक भी है. यही आधुनिकता प्रासंगिक होने की पहली शर्त भी है. इस लिहाज से अदम गोंडवी (Adam Gondvi) बहुत ही प्रासंगिक और आधुनिक रचनाकार के तौर पर हमेशा याद रहेंगे. यही वजह है कि उनकी कुछ रचनाओं ने तो नारों की शक्ल अख्तियार कर ली. बात चाहे प्लेट में भुने काजुओं की हो या फिर फाइलों में झूठे आंकडों की. अदम की रचना सीधे नश्तर सी लगती हैं –
काजू भुने पलेट में, ह्विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में
या
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम बहुत गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे ये दावा किताबी है।
लखनऊ और फैजाबाद से लगे गोंडा के रामनाथ सिंह यानी अदम गोंडवी का परिचय बहुत सारे नेताओं से रहा. सभी जानते पहचानते थे. जो उन्हें नहीं भी जानते थे उन्होंने भी राजनीति के चौबारे की सीढ़ियां चढ़ने के लिए अदम साहेब की रचानाओं का इस्तेमाल नारों की तरह किया था. लेकिन उन्हें कोई पद्म सम्मान नहीं मिला. सम्मान मिला तो धरती से लोगों से. अदम भी शायद ये समझते रहे इसी वजह से उन्होंने गांव की पगडंडियां पकड़ी और फटा पुराना पहनने वाले को अपना विषय बनाया।
“… फटे कपड़ों से तन ढांपे जहां कोई गुजरता हो, समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।”
दरअसल, अदम ने दिल्ली की चमक दमक और लखनऊ की दबंगई देखी थी. देखा था कि कैसे चौबीस घंटों की उलझन में आम आदमी टूट जाता है, कैसे व्यवस्था अमरबेल की तरह लिपट कर उसका खून चूस लेती है. ये सब देख कर ‘सत्यमेव जयते’ से जैसे उनका यकीन हिल सा गया और उन्होंने लिख दिया –
“खुदी सुकरात की हो या रूदाद गांधी की सदाकत जिंदगी के मोरचे पर हार जाती है… ”
ये भी एक संयोग है कि अदम साहेब 15 अगस्त को देश आजाद होने के बाद 22 अक्टूबर को पैदा हुए. और वे आजाद थे भी. इस हद तक आजाद कि उन्हें देश की हालत देखते हुए इस आजादी पर ही शक होने लगा-
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."