समीक्षा- प्रमोद दीक्षित मलय
देहरादून रहवासी कथाकार जितेन्द्र शर्मा पिछले पांच दशकों से अनवरत कहानियां रच-बुन रहे हैं। उनके चार कहानी संग्रह ‘विरुद्ध’, ‘किधर’, ‘कदमताल’ तथा ‘पहाड़ों में द्वीप’ पाठकों द्वारा खूब पढ़े और सराहे गये हैं। इधर समय साक्ष्य (देहरादून) से पांचवां कहानी संग्रह “चुनी हुई कहानियां” प्रकाशित हुआ है जो इस समय चर्चा के केंद्र में है। इस संग्रह में कुल 17 कहानियां हैं जो बीते पचास साल के सामाजिक जीवन के ताने-बाने का खाका खींचते तत्कालीन समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये कहानियां लेखक के अनुभवों की धूप में पकी हैं, कथानक परिवेश से उठाये गये हैं इसलिए पाठक कहानी के पात्रों से सहज आत्मीयता से जुड़ जाता है। इन कहानियों में रोजमर्रा की ज़िंदगी की पेचीदगियों से जूझते परिवार हैं तो अकेलेपन को ढोते वृद्ध दम्पति भी। प्रेम का कोमल स्वर है तो आक्रोश की आग भी।
जितेंद्र शर्मा की कहानियों का फलक न केवल व्यापक है बल्कि विषय वैविध्य की दृष्टि से समृद्ध एवं बहुरंगी भी है। वास्तव में ये कहानियां संवेदना एवं आत्मीयता के स्नेहिल धागों से बुनी गयी हैं जिनमें प्रेम, वात्सल्य, करुणा, शांति, सहयोग, सत्कार के चटख उजले रंग घुले हुए हैं तो वहीं यत्र-तत्र पीर, बेबसी, दर्द, ईर्ष्या, कलह, कुसंगति, कुंठा एवं आक्रोश के स्याह छींटे भी हैं। कहीं खुशियों के नन्हे सुनहरे बादल के टुकड़े तैरते हैं तो कहीं डर-भय एवं शंकाओं के घने अंधेरे पसर जाना चाहते हैं। कैरियर के लिए ममता के आंचल के छोर की छूटन है तो अनजान दिलों का जोड़ना भी। वास्तव में जीवन के सभी रंग अपनी उपस्थिति से अद्भुत छटा बिखेर रहे हैं। इन कहानियों के पात्र हमारे अपने परिचित से लगते हैं जिनसे हमारा रोज का सामना होता है। इन पात्रों में रोबीले व्यक्तित्व का मालिक कप्तान सिंह है तो घरों में झाड़ू पोंछा करने वाली पार्वती भी। मस्तमौला गैरजिम्मेदार एंग्लो इंडियन युवा पीटर है तो अपने ही चुने रास्ते की चुनौतियों से जूझती गुड़िया भी। अमेरिकी जीवन शैली में घुला-मिला जसवंत सिंह है तो वहीं भारत में अपनी संस्कृति एवं सभ्यता की जड़ें तलाशता सुब्रत बनर्जी भी। संकट में अवसर खोजने में कुशल मुखौटे चेहरे वाला प्रोफेसर कश्यप हो या फिर उम्र के चौथेपन में एकाकी खड़े वर्मा एवं खंडेलवाल हों। जीवन में सत्य के पक्षधर आदर्शवादी शिक्षक चांद नारायण शुक्ला हों या फिर अपने गांव की माटी में रमी रामेश्वरी। सब अपने परिवार-पड़ोस के चीन्हे-जाने से लगते हैं। पाठक कहानियां पढ़ते हुए कभी अतीत की यात्रा पर निकल जाता है तो कभी वर्तमान के साथ कदमताल भी करता है। इन कहानियों में कहीं प्रेम के बीज से जीवन झांकता है तो कहीं कोई छोटी-छोटी बिखरी खुशियों को बटोर गठरी बांधती है। कहानियों की बात करूं तो आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाती कहानी ‘कदमताल’ भीख देने की बजाय काम देने की पैरवी करती है। जीवन के कड़वे यथार्थ से रूबरू कराती है कहानी ‘कितने ग्रहण’ जिसमें प्रेम विवाह कर दो साल बाद पति द्वारा दूसरी शादी कर विदेश चले जाने से उपजे अवसाद, निराशा और वेदना से युक्त युवती का कातर स्वर सुनाई देता है। ‘जब सपने बदलते हैं’ एक युवक का प्यार में टूटने और पुरुष सत्ता का विद्रूप चेहरा भी उजागर करती है जिसमें युवक अपनी मंगेतर का किसी अन्य युवक से बात करना बर्दाश्त न कर शादी तोड़ने का दृश्य सवाल खड़े करता है। भावुकता, आत्मीयता, सम्बन्धों की बजाय कैरियर को महत्व देती नयी पीढ़ी की सोच का सच परोसती ‘उसका आसमान’ किशोरों के व्यावहारिक रूप से मजबूत होने का संकेत करती है। ‘खुशियों की गंध’ अलग मिजाज की कहानी है। इसमें झाड़ू पोंछा करने वाली एक औरत द्वारा अपनी सौतन के पुत्र के प्रति उपजे अथाह प्यार की धारा का प्रवाह है जो पाठक को अंदर तक भिगो जाता है। पहले प्यार के कोमल स्पर्श को महसूसती कहानी ‘गन्ने ते गंडेरी मिट्ठी’ पढ़ते हुए लगता है कि जैसे पाठक के ऊपर मौलश्री के सुरभित पुष्प हौले-हौले झर रहे हों। ‘प्रवास’ अमेरिका में काम कर रहे युवक-युवतियों की अपने देश भारत के प्रति उत्कट प्रेम एवं चाह का प्रकटन है तो वहीं तुलनात्मक रूप से अमेरिका को सभ्य, सुशिक्षित एवं सम्पन्न बताकर भारत के प्रति उपेक्षा भाव का प्रदर्शन भी। ‘ढलान का दर्द’ आदर्शवादी पिता और बेरोजगार पुत्र के टूटते-जलते सम्बंधों की कहानी है। ‘कप्तान सिंह’ पुलिस महकमें के एक रिटायर्ड क्लर्क की कहानी है जो बाहर बहुत कड़क लेकिन अंदर दयालु और सबकी मदद करने वाला है। अन्य कहानियों में पुल, विरुद्ध, नायिका, जुड़ाव, सौदा, मृत्युलोक, अपनों के बीच पाठक को बांधे रखने में समर्थ हैं। अंतिम कहानी ‘डाकू आ रहे हैं- बाजा बजाओ’ से एक दृश्य देखिए, “तभी लगा, बाहर कुछ भगदड़ सी मच गयी। ‘डाकू आ रहे हैं। सब लोग चौकस हो जाओ।’ एक आदमी हाथ में लाठी लिए हुए तेज़ी से भागता, कह गया। लोगों में खलबली मच गयी। लड़की वालों का एक आदमी हांफता हुआ जनवासे में आया। बोला, ‘डाकुओं का बारात लूटने का इरादा है। कल भी यहां भयंकर वारदात हुई थी।’ आक्रोश, कुंठा और विद्रोह से भरा स्वर सुनिए, “कैसे मर जाएगा, बुड्ढ़े! तू तो मर मरकर जी रहा है। कैसा बाप है तू। तूने किया क्या है प्रोफेसर की औलाद मेरे लिए। कैसा बाप है तू। जिंदगी भर आदर्श बघारता रहा, हरिश्चंद्र की औलाद! मेरे पतन के जिम्मेदार तुम हो।” ऐसे ही चुटीले संवाद पाठक को झकझोर कर जगाते हैं और वह स्वयं को इन कसौटियों पर परखने लगता है।
अंततः “चुनी हुई कहानियां” अपने कथानक और कथा कहन शैली से पाठक के हृदय को तृप्त करती हैं। लेखक शब्द संपदा का धनी है तभी देश-काल और परिस्थिति अनुकूल शब्दों का प्रयोग कर कहानी को प्राणवान बना देता है। इन कहानियों में एक लय, प्रवाह और रागात्मकता है। कहानी में गति है पर तीव्रता नहीं, ठहराव है पर जड़ता नहीं। कथाकार शब्द चित्र बनाने में माहिर हैं। वाक्य विन्यास सरल और सहज संप्रेषणीय हैं। आवरण जीवन में संतुलन साधने का सुखद संकेत करता आकर्षक बना पड़ा है। कागज मोटा सफेद और छपाई स्पष्ट एवं नयनाभिराम है। प्रस्तुत कथा कृति “चुनी हुई कहानियां” न केवल पठनीय एवं संग्रहणीय है बल्कि सुधी पाठकों और समीक्षकों के मध्य समावृत होगी, ऐसा मुझे विश्वास है।
कृति – चुनी हुई कहानियां, कथाकार – जितेन्द्र शर्मा, प्रकाशक – समय साक्ष्य, देहरादून, पृष्ठ – 148, मूल्य – ₹200/-
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समीक्षक वरिष्ठ साहित्यकार एवं शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा (उ.प्र.)
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."